पानी क्यों जरूरी है?
मानव जीवन के निर्माणकारी तत्त्वों में जल का प्रमुख स्थान है। शारीरिक स्वास्थ्य, बाह्य और भीतरी अंगों की सफाई, शारीरिक शुद्धि और पवित्रता के लिए जल का उपयोग आदिकाल से किया जाता रहा है। कटे हुए स्थानों पर गीले कपड़े की पट्टी बाँधने की परंपरा अत्यंत प्राचीन है।
इंग्लैंड में सर जानसर क्लेयर ने सत्रहवीं शताब्दी में स्नान को स्वास्थ्य और दीर्घायु जीवन का महत्त्वपूर्ण साधन बताया था। ‘फेब्रिकुगम मैगनम’ के विद्वान लेखक जानहेन काक ने चेचक और ज्वर में ठंढा पानी पीने को बहुत लाभकारी बताया है। मुसलिम देशों में इस महत्त्वपूर्ण सिद्धांत को आज भी मानते हैं और अनेक बीमारियों में शीतल जल प्रयोग करने को अत्यंत लाभदायक समझते हैं।
शरीर में खून की सफाई, मलों की सफाई और कांति प्रदान करने वाली वस्तु, जल है। जल जब आँतों में पहुँचता है, तो इसका एक अंश पाचनक्रिया में भाग लेता है। आहार को रसयुक्त बनाकर पाचनक्रिया में मदद देता है और मल को गीला बनाकर मलद्वार की ओर धकेल देता है।
इस बीच जल चूषक कोशिकाएँ अपना कार्य प्रारंभ करती हैं और जल से ऑक्सीजन प्राप्त कर सारे शरीर को कांतिवान, रक्त को शुद्ध और शिराओं को प्रवाहमान बनाती हैं। इसलिए संतुलित आहार में पेट का आधा भाग आहार और चौथाई भाग जल से भरने की उपयोगिता बताई जाती है। आहार के बाद एक-एक घंटे में कई बार थोड़ा-थोड़ा पानी पीना स्वास्थ्य के लिए बड़ा हितकर होता है। प्रातःकाल उषः पान अर्थात चारपाई से उठते ही एक गिलास शीतल जल का प्रयोग स्वास्थ्य के लिए अमृततुल्य माना जाता है। इससे आँखों की ज्योति बढ़ती है और मस्तिष्क की ताजगी दिन भर बनी रहती है।
ठंढा पानी जब आँतों में पहुँचता है या जब किसी विशेष स्थान पर शीतल जल या बरफ का प्रयोग करते हैं, तो दूसरे अंगों का रक्त उस स्थान की ओर खिंच जाता है, जिससे वह स्थान मजबूत बनता है और उस स्थान का विष या रोगवर्द्धक शक्ति समाप्त हो जाती है। आमाशय की यह क्रिया आँतों को मजबूत करती है और पाचनक्रिया को सशक्त बनाती है। उपवासकाल में जल के अधिकाधिक प्रयोग से संचित मलगीला होकर बाहर निकल जाता है।
जल से स्वास्थ्य बनाए रखने के साथ-साथ उसका प्रयोग अनेक बीमारियाँ दूर करने में भी होता है। फिलाडेल्फिया के प्रसिद्ध चिकित्सक बेंजामिन रश ने ठंढे पानी के प्रयोग से पीले ज्वर, गठिया, चेचक तथा शीतला माता का सफल इलाज किया है। बरफ से भरी हुई थैली का प्रयोग रश के सिद्धांत के अनुसार ही सन् १७९४ ई० में प्रचलित हुआ, जो अब डॉक्टरी चिकित्सा का अंग माना जाता है। गीली पट्टी बनाकर घाव या चोट में रखना भी ऐसी ही पद्धति है। इससे उस स्थान के रक्त की रोग निरोधक ऊमा बढ़ती है, जिससे तात्कालिक लाभ मिलता है।इन प्रयोगों से जल के महत्त्व पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
शरीर में जल का उपयोग मुख्यतः दो प्रकार से होता है। आहार की तरह जल पीने से और स्नान के द्वारा, शरीर जल के सूक्ष्म और स्थूल प्रभाव ग्रहण करता है। यह दोनों ही साधन अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। स्वास्थ्य के लिए इन दोनों का विकास आवश्यक है।
स्नान स्वास्थ्य से संबंध रखने वाली एक प्रमुख क्रिया है। संभवतः इसीलिए हमारे यहाँ इसे एक धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक कर्त्तव्य माना जाता है। जो नियमित रूप से स्नान नहीं करता, उसे स्पर्श करना भी बुरा माना जाता है। भले ही इस अवहेलना का कोई वैज्ञानिक आधार न हो, किंतु मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से कोई भी इस महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया से वंचित न रहे, इस सिद्धांत का प्रचलन कोई बुरा नहीं है। भारत उष्ण प्रकृति का देश है, इसलिए यहाँ प्रत्येक ऋतु में स्नान करना उपयोगी तो है ही, आवश्यक भी है।
अठारहवीं शताब्दी के उत्तरकाल में दो अँगरेज चिकित्सक क्यूरी और जैक्सन ने भी यह साबित किया कि शीतल जल से स्नान करना स्वास्थ्य के लिए बड़ा लाभदायक होता है। उन्होंने लिखा है कि ठंढे पानी से स्नान करने से शरीर को विश्राम मिलता है और स्फूर्ति बढ़ती है। इस क्रिया से शरीर को शक्ति और सजीवता प्राप्त होती है। इससे भी पूर्व सन् १७८० ई० के लगभग डॉ० क्राफोर्ड ने ठंढे पानी से स्नान के मनोवैज्ञानिक प्रभाव तथा प्राणवायु संबंधी महत्त्व पर प्रकाश डाला था। शीतल जल से स्नान करने के पश्चात रक्तवाहिनी नाड़ियों में एक प्रकार की गति उत्पन्न होती है और रक्त के रंग में परिवर्तन होने लगता है।
सन् १८०१ ई० में गरम पानी के प्रयोग पर पेंसिलवेनिया यूनिवर्सिटी के मेडीकल फेकल्टी (स्वास्थ्य संगठन) के ट्रस्टियों के समक्ष थीसिस के रूप में प्रस्तुत किया गया। इसमें विभिन्न प्रकार के प्रयोग सम्मिलित थे और कम से कम व अधिक से अधिक फारेनहाइट तापमान पर नाड़ियों की गति के आँकड़े प्रस्तुत किए गए थे और यह निश्चय किया गया था कि जब जल का तापमान धीरे-धीरे बढ़ाकर ११० डिगरी फारेनहाइट तक कर दिया जाता है, तो नाड़ी की गति में ८३ से लेकर १५३ तक वृद्धि हो जाती है, इससे रक्त-संचालन में तीव्रता आने से मस्तिष्क में दरद होने लगता है।
शीतल जल में स्नान करने से शरीर में हलकापन आता है। रोमकूप साफ हो जाते हैं, शरीर की गंदगी मिट जाती है और दिन भर काम करने से उत्पन्न थकान व रात्रि में सोने से उत्पन्न शिथिलता समाप्त हो जाती है। शरीर में ताजगी तथा नव जीवन का संचार होने लगता है। प्रातःकाल का स्नान इस दृष्टि से अधिक उपयोगी माना जाता है। सायंकालीन स्नान से शरीर का पसीना, चिपचिपापन और सुस्ती दूर हो जाती है। इससे थकावट दूर होती है और भूख खुलकर लगती है। रात्रि में पूरी नींद लेने के लिए सायंकालीन स्नान लाभदायक होता है।
स्नान से शरीर की मांसपेशियों की शिथिलता दूर हो जाती है और सारे शरीर में चैतन्य विद्युत का प्रवाह दौड़ जाता है, जिससे शरीर को स्फूर्ति मिलती है। रोमकूप खुल जाते हैं। जिससे रक्ताभिसरण में मदद मिलती है। स्नान से केवल त्वचा और बाहरी अंगों की ही सफाई और शुद्धि होती हो, इतना ही नहीं, वरन आंतरिक चेतना भी प्रादुर्भूत होती है। इससे जठराग्नि प्रदीप्त होती है और पेट संबंधी शिकायतें दूर होती हैं।
प्रातःकाल स्नान करने के बाद सूर्य की बाल किरणों से शरीर को सेंकने से प्राकृतिक विटामिन्स प्राप्त होते हैं, शरीर में स्निग्धता आती है और त्वचा की कोमलता बढ़ती है। इसलिए स्नान के बाद कुछ देर तक शरीर को वस्त्रविहीन रखना चाहिए, ताकि वायु के द्वारा जो जल की आर्द्रता शरीर में शेष रह गई है, वह समाप्त हो जाए अन्यथा दाद, खुजली और चकत्ते पड़ने की शिकायतें उठ खड़ी होती हैं।
स्नान के लिए तालाब का जल उतना अच्छा नहीं होता। तालाबों में गंदगी सड़ती रहने से पानी खराब हो जाता है और छोटे-छोटे कीड़े पड़ जाते हैं। कुएँ का जल या बहता हुआ जल स्नान के लिए अधिक उपयुक्त होता है। बहते हुए जल में चूँकि सल्फेट जैसे खनिज तत्त्व बहुतायत से मिले होते हैं, इसलिए उसका स्वास्थ्य पर हितकर प्रभाव पड़ता है। कुएँ का जल तालाब की अपेक्षा अधिक शीतल रहता है। इससे कुएँ के जल में अधिक शक्ति व स्फूर्ति होती है। इससे चमड़ी, दिमाग तथा आँखों को तरावट मिलती है। गरम जल से स्नान करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। इससे शरीर में प्रतिकूल प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है और शरीरबल, नेत्रज्योति तथा मानसिक शक्ति घटती है।
स्नान करने का वैज्ञानिक तरीका यह है कि पहले खूब रगड़कर शुद्ध सरसों के तेल की मालिश करें, फिर थोड़ी देर विश्राम कर लें, ताकि मालिश से उत्पन्न खून की गरमी कम हो जाए। अब आप अपने पैरों से ऊपर हृदय की ओर के अंगों को खूब रगड़कर धोना प्रारंभ करें। शरीर को खूब मल-मलकर धोना चाहिए और पानी की कमी का संकोच न करना चाहिए। साबुन का उपयोग स्वास्थ्य की दृष्टि से उतना उपयोगी नहीं माना जाता। यह आवश्यकता मुलतानी मिट्टी से पूरी कर सकते हैं। मिट्टी में विष खींचने की अपूर्व शक्ति होती है, पर साबुन में कुछ रासायनिक तत्त्व ऐसे होते हैं, जो शरीर पर बुरा प्रभाव डालते हैं। कास्टिक की अधिकता वाले साबुनों का प्रयोग तो बिलकुल भी नहीं करना चाहिए।
स्नान करने के उपरांत किसी खद्दर या रोएँदार मोटे तौलिये से शरीर के अंग-प्रत्यंग को इतना रगड़कर सुखाना चाहिए कि रक्त का उभार स्पष्ट दिखाई देने लगे। इससे शरीर में गरमी दौड़ जाती है और थकावट दूर होकर शरीर में हलकापन आ जाता है।
तैरकर स्नान करने से स्वास्थ्य को दोहरा लाभ होता है। तैरना एक प्रकार का रोचक व्यायाम है, इससे शरीर के सभी अंग-प्रत्यंगों का संचालन होता है और श्वास-प्रश्वासकी क्रिया में गति उत्पन्न होती है। तैरने से छाती चौड़ी होती है और फेफड़े मजबूत होते हैं। तैरने से मनुष्य को दीर्घ जीवन प्राप्त होता है। मारकर्ड (दक्षिणी अफ्रीका) की दो जुड़वाँ बहनों ने, जिनकी उम्र ६० से अधिक हो चुकी थी, अपने जन्मदिवस पर उपस्थित अतिथियों को अपने दीर्घ जीवन के रहस्य पर प्रकाश डालते हुए बताया कि उन्होंने अपनी दिनचर्या में नियमित रूप से तैरने को भी प्रमुख स्थान दिया है। बावेरिया (बोन) के श्रममंत्री श्री वाल्टर स्टाय ने अपने स्टाफ के लोगों को स्वास्थ्य सुधारने के लिए यह आदेश दिया कि वे काम के घंटों के बीच ही सप्ताह में एक दिन अनिवार्य रूप से तैरकर मनोरंजन प्राप्त किया करें।
जल के नीचे फुहारों में बैठकर स्नान करना भी स्वास्थ्य के लिए अच्छा होता है। वर्षा में दो-तीन जलवृष्टि के बाद रिसते पानी से स्नान करना भी अच्छा होता है। छोटे बालकों को छोटे टब में स्वच्छ जल भरकर उछल-कूद करते हुए स्नान करने देना चाहिए। इससे मानसिक प्रसन्नता भी साथ- साथ बढ़ती है।
जल का स्वास्थ्य से बड़ा गहरा संबंध है। यों भी कह सकते हैं कि जल ही जीवन है। इसकी प्रामाणिकता कुछ दिन स्नान न करने या कम जल पीने से ही सिद्ध हो जाती है। अतः हमें अपने आहार के साथ जल भी पर्याप्त मात्रा में लेने का स्वभाव बनाना चाहिए। स्नान के द्वारा बाह्य और भीतरी अंगों की सफाई, शक्ति और सजीवता भी बनाए रखना चाहिए।
रोगनाशक जल
वेदों में जल की रोगनाशक शक्तियों का अत्यंत विशद वर्णन है। कुछ ऋचाएँ देखिए-
आपः इद वा उ भेषजीरापो अमीवचातनीः ।
आपो विश्वस्य भेषजीस्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम् ।
जल ही परमौषधि है, जल रोगों का दुश्मन है, यह सभी रोगों का नाश करता है – इसलिए यह तुम्हारे भी सब रोग दूर करे।
अथर्ववेद में लिखा है, “जल ही दवा है, जल रोग को दूर करता है, जल सब रोगों का संहार करता है। इसलिए जल तुम्हें भी कठिन रोग के पंजे से छुड़ाए।”
भगवान ने आदेश किया है, “जल से अभिसिंचन करो,जल सर्वप्रधान औषधि है। इसके सेवन से जीवन सुखमय बनता है और शरीर की अग्नि भी आरोग्यवर्द्धक होती है।”
– ऋग्वेद मं० ६ अ० ५७ मं० २
वेदों में एक स्थान पर प्रार्थना की गई है-
“जल हमको सुख दे, सुखोपभोग के लिए हमें पुष्ट करे, बड़ा और दृढ़ करे। जिस प्रकार माताएँ अपने दुधमुँहे बच्चों को दूध पिलाती हैं, हे जल ! उसी प्रकार तुम हमें अपना मंगलकारी रसपान कराओ। तुम हमारे मलों का नाश करो और योग्य संतान प्राप्त करने में सहायक हो। हे परमेश्वर ! हम तुमसे अन्नादिक पदार्थों के स्वामी मनुष्यमात्र का रक्षक तथा रोगमात्र की औषधि जल माँगते हैं।”
“जल में अमृत है, जल में औषधियाँ हैं। हे ईश्वर ! दिव्य गुणों वाला जल हमारे लिए सुखकारी हो, अभीष्ट पदार्थों की प्राप्ति कराए, हमारे पीने के लिए हो, संपूर्ण रोगों का नाश करे तथा रोगों से उत्पन्न होने वाले भय को न पैदा होने दे और हमारे सामने बहे।”
“हे परमात्मा ! मुझमें जो पाप (भीतर और बाहर) हैं, मैंने जो द्रोह, विश्वासघात किया है या मैंने जो अपशब्द कहे हैं या मैं जो झूठ बोलता हूँ, उन सबको जल बहा ले जाए।”
जल के अमृतोपम गुण
जल में जो गुण होते हैं, उन्हें भली भाँति स्मरण रखना चाहिए। शीतलता, तरलता, हलकापन एवं स्वच्छता इसके प्राकृतिक गुण हैं। भ्रम, क्रांति, मूर्च्छा, पिपासा, तंद्रा, वमन, निद्रा को दूर करना, शरीर को बल देना, उसे तृप्त करना, हृदय को प्रफुल्लित रखना, शरीर के दोषों को दूर करना, छह प्रकार के रसों का प्रधान कारण बनना तथा प्राणियों के लिए अमृततुल्य सिद्ध होना, कब्ज इत्यादि आंतरिक मल पदार्थों को निकाल देना, स्नान के द्वारा शरीर को स्वच्छ करना, शरीर के विजातीय तत्त्वों को निकाल फेंकना, आमाशय, गुरदा और त्वचा को क्रियाशील बनाना, शरीर में खाद्य पदार्थ का कामदेना-जल के कुछ गुण हैं।
मनुष्य के शरीर में ७० प्रतिशत जल तत्त्व ही है। केवल जल पीकर हम एक मास तक जीवित रह सकते हैं। हमारे ही शरीरों का नहीं, वनस्पतियों का तो यह जीवनदाता है। जल में रहने वाले जीवों का तो यही जीवनाधार है। पृथ्वी जल तत्त्व से उत्पन्न हुई है।
गीता में भगवान ने निर्देश किया है- “रसोऽहमप्सु कौन्तेय” (७/८) । “हे अर्जुन ! मैं जल में रस रूप से रहता हूँ अर्थात जल में जीवन बसाने वाला जो रस रूप (प्राण) है, वह मैं हूँ।”
जलोपचार की प्रमुख विधियाँ
जल में कई और गुण हैं, जैसे-अनेकरूपता, गरमी सोख लेने की शक्ति, बीजों को अपने में मिला लेने और रूप परिवर्तन की शक्ति। शरीर के विकारों को धो डालने के लिए तरल रूप में इसका उपयोग किया जाता है। शरीर की गरमी निकालने एवं गरमी पहुँचाने में जल का प्रमुख हाथ है। इसमें घोने की शक्ति के कारण अन्य विजातीय पदार्थों के साथ जल मानव शरीर में से यूरिक एसिड और ऑक्जेलिक एसिड जैसे हानिकारक पदार्थों को बाहर निकाल देता है।
दैनिक जीवन में जल का उपयोग
वायु और धूप की भाँति जल हमारे लिए प्रधान तत्त्व है।यह ऑक्सीजन की ७५ प्रतिशत खपत बढ़ा देता है और ८५प्रतिशत हाइड्रोजन की मात्रा को शरीर से निकाल देता है।प्रत्येक रोग में जल का उपयोग अधिक से अधिक मात्रा मेंहोना चाहिए। कम जल पीने वाले प्रायः आमाशय औरअंतड़ियों को सुखा डालते हैं, कब्ज हो जाता है, पेट में दरदबना रहता है। पानी का ठीक उपयोग अनेक रोगों को उत्पन्ननहीं होने देता। ठंढा पानी शरीर के ताप को कम कर देता है,रक्तचाप घटाता तथा त्वचा के रंध्रों को क्रियाशील बनाता है,स्नायु तथा नाड़ियों को हलके तौर पर प्रभावित करता है।जल कम पीने से हाजमा बिगड़ता है। अत: हमें चाहिए किजल के प्रयोग में आलस्य न करें।
रोग-निवारण में जल का प्रयोग
प्रधान विधियाँ तीन हैं- (१) पानी पीकर रोग- निवारण, (२) स्नान द्वारा शरीर-शुद्धि, (३) पानी की गीली पट्टी के प्रयोग।
सर्वप्रथम हम पानी पीने के नियम को लेंगे। पानी कब्जनाश की सरल औषधि है। कम पानी पीने से पेट का दूषित पदार्थ जमकर सड़ता है, अंतड़ियों में से गुजरते हुए तकलीफ होती है। उसे निकालने में पानी ही प्रधान कार्यकरता है।
प्रातःकाल उठते ही थोड़ा-सा जल पी लेने से सारे दिन शरीर में तरावट रहती है। उठते ही उष:पान कीजिए, फिर थोड़ा सा टहलिए और शौचादि से निवृत्त होइए। कब्ज जड़ से चला जाएगा। अपच में भोजन के डेढ़ घंटे पश्चात गरम पानी पीने से अग्नि प्रदीप्त होती है और उदरशूल दूर हो जाता है। लोग सरदी में गरम चाय पीते हैं। वास्तव में उन्हें कुछ लाभ होता है, तो वह गरम जल के ही कारण। शरीर की गंदगी और विष को निकालने में गरम पानी का भी उपयोग होता है। पेशाब आने से अवयव धुल जाते हैं और तरावर रहती है। गले की जलन तथा अति भोजन के कारण पेट में जो जलन हो, उसे दूर करने के लिए कुछ-कुछ समय पश्चात एक-एक चम्मच ठंढा जल पीना चाहिए। प्रात:काल एक गिलास जल में कुछ नीबू की बूंदें डालकर पीने से पेट ठीक रहता है। चेहरे का रंग लाल रखने के लिए स्फूर्तिदायक एवं तरोताजा दीखने के लिए कम-से-कम तीन सेर जल दिन में अवश्य पीना चाहिए। रुधिर की तरलता जल से ही कायम रह सकती है।
प्रमेह, वीर्यपात, मूत्रनली की जलन, गंदगी इत्यादि यथेष्ट जल के प्रयोग से दूर हो जाते हैं। अत्यधिक परिश्रम के कारण गहरे लाल रंग का जो बदबूदार पेशाब उतरता है, वह जल की कमी के कारण ही होता है। थोड़ी मात्रा में पिया हुआ जल पसीने आदि के रूप में बाहर हो जाता है। उसका बचा हुआ थोड़ा सा भाग ही गुरदों को धो पाता है। अतः परिश्रम करते समय थोड़ा-थोड़ा जल घंटे-डेढ़ घंटे के बाद पीने का क्रम रखें, तो तरोताजगी बनी रह सकती है। बहुत से व्यक्तियों को अजीर्ण अथवा नजला प्रायः आवश्यकता से कम मात्रा में जल पीने के कारण ही होता है।
अमेरिका के सुप्रसिद्ध लेखक मैकफैडल ने लिखा है कि यदि प्यास लगी हो, तो गुनगुना अर्थात थोड़ा गरम पानी उत्तम है। यदि संभव हो और आदत पड़ सके, तो जल भोजन के आध घंटे पश्चात ही पिएँ। यदि पाचनशक्ति क्षीण हो या अग्निमांद्य हो, तो उस समय भी गरम जल का प्रयोग करना उत्तम रहेगा। इससे पाचन शक्ति प्रदीप्त होगी।
फादरनी के जलविषयक विचार
प्राकृतिक चिकित्सा में फादरनी के विचार बड़े बहुमूल्य हैं। उन्होंने जल चिकित्सा द्वारा स्वयं नवजीवन प्राप्त किया और दूसरों को मरने से बचाया। फादरनी जल के अपने प्रत्येक प्रयोग के साथ शरीर के अंग-प्रत्यंग और त्वचा को कठोर बनाने के लिए कुछ बहुत सीधे निरापद उपाय बताते थे। उनमें कुछ उपाय निम्नलिखित हैं। पाठकों को चाहिएकि दैनिक जीवन में इनका उपयोग करने लगें-
(१) नंगे पाँव टहलना-इससे टाँगें और पाँव की उँगलियाँ कठोर तथा सहनशील बनती हैं।
(२) भीगी घास पर नंगे पाँव चलना-गीली घास के स्पर्श से आप प्राणशक्ति खींच सकेंगे। ओस की भीगी घास श्रेष्ठतम है।
(३) गीले पत्थरों पर टहलना-जल तथा पत्थर के स्पर्श से शरीर कठोर तथा सहनशील बनेगा। पैरों में रक्त गति बढ़ जाएगी, ताजी हवा, प्रकाश और जल से नई जान आएगी।
(४) तुरंत की गिरी हुई बरफ पर टहलना- ऐसी बरफ पर चलने से सारा रक्त पाँवों में खिंच आएगा। पैर में बिवाई और दाँत में दरद होने पर यह अच्छा इलाज है।
(५) ठंढे पानी में टहलना-थोड़े-थोड़े पानी में टहलना शरीर को दृढ़ और श्रेष्ठ बनाता है। मसाने और गुरदे पर इसका विशेष प्रभाव होता है। रुके हुए पेशाब को लाने में यह क्रिया विशेष लाभदायक है। पाचनशक्ति ठीक होती है, अधोवायु शांत हो जाती है, छाती का भारीपन ठीक होता है और श्वास की गति भी ठीक हो जाती है। निर्बल रोगियों को पहले साधारण ठंढे पानी में यह क्रिया करनी चाहिए। घुटनों तक पाँवों को जल में डाले रहना शरीर को दृढ़ करने की एक उत्तम विधि है। इससे रिक्त धमनियों में रक्त भर जाता है और व्यर्थ जमा हुआ रक्त ऊर्ध्व भाग की ओर खिंचता है। जाड़ोंके दिनों में इसे कम कर देना चाहिए।
( ६ ) हाथ-पाँवों को ठंढे जल में धोना-लाल बुखार और मोतीझिरा सरीखे रोगों के लिए लाभप्रद है।
(७) संपूर्ण शरीर पर या केवल पैरों पर पानी डालना।
उपर्युक्तक्रियाएँ प्रत्येक पाठक अपने दैनिक जीवन में अधिक से अधिक अपनाकर रोगमुक्त और शरीर को कठोर एवं सहनशील बना सकता है।
जल के विविध स्नान
लुई कूने साहब ने जल को इतना अधिक महत्त्व केवल स्नानों के कारण ही प्रदान किया है। लुई कूने की सर्वप्रसिद्धि संपूर्ण चिकित्सा प्रणाली केवल शास्त्रीय स्नानों पर ही अवलंबित है।
आपके अनुसार रोगों का मूल सिद्धांत एकरूप है। लुईकूने के अनुसार सब रोग एक ही मूल जड़ से उत्पन्न होकर नाना रूपों में प्रस्फुटित होते हैं। शरीर के विभिन्न अवयवों में पेट मुख्य है। अतः सबसे अधिक अत्याचार उसी बेचारे पर होता है। आवश्यकता से अधिक भोजन, अप्राकृतिक भोजन ढूँस-दूँसकर खाने से उसमें विजातीय तत्त्व एकत्र होने लगते हैं।
इन विजातीय तत्त्वों को बाहर निकालने के लिए लुई कूने साहब ने दो स्नानों का आविष्कार किया है-
(१) उदर स्नान या कटि स्नान ।
(२) मेहन स्नान।
इन स्नानों से अस्वाभाविक गरमी दूर होती है। बहुधा ये चिरसंचित विजातीय द्रव्य देर तक जमे रहते हैं। वस्तुतः शीघ्र आरोग्य के लिए उस मल को स्नानों द्वारा ढीला करते हैं। ढीला करने के लिए लुई कूने साहब ने वाष्प स्नान तथा सूर्य स्नान की भी व्यवस्था की है।
कटि स्नान-इस स्नान से सैकड़ों रोगियों को लाभ हुआ है। जिन रोगियों का रक्तचाप बढ़ा हुआ हो, फालिज या ब्रोंकाइटिस, दमा, प्लूरेसी, निमोनिया, प्रदाह, अंडकोश का बढ़ा हुआ होना, जाँघों की रगों की पीड़ा, सूजाक या गरमी हो, पीलिया अथवा पांडुरोग हो, स्त्रियों को मासिकधर्म संबंधी गड़बड़ी हो, बाँझपन हो, उनके लिए कटि स्नान बड़ा लाभदायक है।
कटि स्नान की विधि यह है कि एक टब या नाँद में पानी इस प्रकार भरिए कि जब रोगी उसमें लेटे तो दोनों पाँव बाहर रख सके और जल उसकी नाभि और जाँघों तक पहुँचे। जाँघों का ऊपरी भाग और नाभि तक का सब हिस्सा जल में डूबा रहे। पेडू को जल से भीगे वस्त्र से एक ओर से दूसरी ओर तक रगड़ता रहे। यह अत्यंत आवश्यक है कि टाँगें, पाँव अ ओर शरीर का ऊपरी भाग पेड़ के साथ ही ठंढा न किया जाए।
रक्तचाप के लिए जल की गरमी ५० डिगरी फारेनहाइट से ८५ डिगरी फारेनहाइट तक और दबे हुए जुकाम की जीर्णावस्था में जल का तापक्रम ८८ डिगरी फारेनहाइट से १०० डिगरी फारेनहाइट तक रखना चाहिए। पुरुष की जननेंद्रिय संबंधी रोगों या स्वप्नदोष में जल ८८ से ९४ डिगरी फारेनहाइट तक रखना चाहिए। पाखाना या मुँह के रास्ते रक्त गिरने की दशा में ६५ से ७५ डिगरी फारेनहाइट तक दस दिन का कटि स्नान करना चाहिए। पुराने सूजाक और गरमी (आतशक) में या तत्संबंधी अन्य बीमारियों में ८८ से ९४ डिगरी फारेनहाइट तक गरमी रखनी चाहिए। डॉ० दिलकश इत्यादि प्राकृतिक चिकित्सकों ने कटि स्नानों के तापक्रमों में कुछ परिवर्तन किए हैं। उनके अनुसार, “कटि स्नान लेते समय वे पाँवों को गरम पानी (तापमान १०२ से १०४ डिगरी फारेनहाइट तक) में रखने की सलाह देते हैं। पेट को मलने के साथ-साथ कमर के ऊपरी भाग को भी मलवाते हैं। इस स्नान को उन्होंने तीन भागों में बाँट दिया है- (१) ठंढे पानी का कटि स्नान (तापमान ५० से ८५ डिगरी फारेनहाइट तक) । (२) सामान्य जल का कटि स्नान (तापमान ८८ से ९४ डिगरी फारेनहाइट तक)। (३) गरम जल का कटि स्नान (तापमान १०२ से १०८ डिगरी फारेनहाइट तक)। ठंढे या सामान्य जल के कटि स्नान के गुण वही हैं, जो लुई कूने के बताए हुए हैं। सिर की पीड़ा जैसी बीमारियों में, या जिनका चेहरा सुर्ख हो जाता हो, कटि स्नान के साथ पाँवों को गरम पानी के टब में रखने से लाभ होता है। पानी का तापमान प्रारंभ में १०२ डिगरी फारेनहाइट होना चाहिए, फिर बढ़ाकर १०८ डिगरी फारेनहाइट तक ले जाना चाहिए।
मेहन स्नान-टब में शीतल जल भरकर रोगी एक स्टूल या पटरे पर इस प्रकार बैठता है कि पानी स्टूल के धरातल तक रहे। इसके लिए ५५ से ६५ डिगरी फारेनहाइट तक के गरम पानी की आवश्यकता होती है। रोगी अपने पैरों को टब के बाहर रखकर स्टूल पर बैठता है। जननेंद्रिय ही जल में केबी रहती है। रोगी को चाहिए कि वह बाएँ हाथ की दो उँगलियों से इंद्रिय को इस प्रकार पकडे रहे कि उसके आगे का कोमल अंश बाह्य झिल्ली से ढक जाए। अब इस चमड़े को पानी के अंदर मुलायम भीगे कपडे से धीरे-धीरे मलना को हए। घृणित रोगों, जननेंद्रिय संबंधी रोगों में यह स्नान रामबाण का कार्य करता है। यह स्नान दिन में दो या तीन बार अधिक से अधिक १० से ३० या ४५ मिनट तक दिया जा सकता है। हिस्टीरिया और मिरगी में भी यह लाभदायक है। प्राकृतिक चिकित्सा संबंधी अन्य उपचारों के साथ यह साम क्षय में भी लाभदायक है। बाँझपन, गर्भपात, डिफ्थीरिया जैसे भयानक रोगों में भी उत्तम है। नासूर, भगंदर, कारबंकल आदि में भाप स्नान के बाद इसे देना चाहिए।
वाष्प स्नान-लुई कूने ने भाप के स्नान पर जोर दिया है। इसके लिए साधारण बेंत की एक कुरसी से कार्य हो सकता है। कुरसी के नीचे सँभालकर खौलते हुए जल का पात्र रखना चाहिए। रोगी का संपूर्ण शरीर कंबल से इस प्रकार ढक देना चाहिए कि भाप बाहर न निकलने पाए। इससे धुआँ न जाने पाए, अतः स्टोव या कोयले की आग का उपयोग अच्छा है।
एडोल्फ जुस्ट का प्राकृतिक टब स्नान-इसका प्रयोग स्नायु दौर्बल्य, वायु विकार, दूषित जिगर, चक्कर आना, नेत्रों की बीमारियाँ, पुरुषों के जननेंद्रिय संबंधी रोगों में किया जाता है।
टब की लंबाई ४ फीट, चौड़ाई १८ इंच और गहराई ९ इंच होनी चाहिए। ४ से ६ इंच गहरा पानी ७० से ७२ डिगरी फारेनहाइट के तापमान का टब में डाला जाता है। रोगी टब में टाँग फैलाए हुए घुटनों को पानी के ऊपर एकदूसरे से पृथक करके बैठ जाता है। अपने हाथों से जल में डूबे हुए सींवन और अंडकोशों को ५ मिनट तक धोता और मलता है। फिर पानी को हथेलियों से पेड़ पर जोर से फेंकता है और साथ ही मलना शुरू कर देती है। ५ मिनट पश्चात जल से निकलकर पानी को उठाकर अपने शरीर पर रोगी डाल लेता है। शरीर को हाथों से मलकर सुखाता है। प्राणशक्ति की वृद्धि के लिए इसका उपयोग उत्तम माना गया है।
जल की पट्टी का प्रयोग-जल की पट्टी नाना प्रकार की हो सकती है। आवश्यकतानुसार संपूर्ण शरीर पर पानी की पट्टी बाँधी जा सकती है तथा किसी अंग विशेष पर इसका उपयोग हो सकता है। पट्टी में गरम तथा ठंढे दोनों ही प्रकार के जल का उपयोग हो सकता है। यदि चाकू या अन्य नुकीली वस्तु से शरीर का अंग कट जाए, तो ठंडे पानी की पट्टी ही सर्वोत्तम है। उदर के विकारों के लिए गरम पट्टी पेड़ पर बाँधनी चाहिए। गले के दरद में गरदन पर गरम पट्टी से सेंक करते हैं। पेट के दरद में गरम जल बोतल में भरकर सेंकना बहुत उत्तम है। स्नायविक रोग मिटाने के लिए गरम पानी की पट्टी का प्रयोग ही सर्वोत्तम है।
स्वर्गीय डॉ० बड़थ्वाल ने इस विषय में लिखा है, “स्नायविक दरद मिटाने के लिए कई परत वाली फलालेन की पट्टी लेनी चाहिए। उसको खूब गरम जल से भिगो- निचोड़कर उसकी पट्टी बाँधनी चाहिए। फिर उसके ऊपर उसी प्रकार ऊनी वस्त्र से बाँध लेना चाहिए। गरम पट्टी के बाद हमेशा फिर ठंढी पट्टी बाँधनी चाहिए, अन्यथा लाभ के बदले हानि होगी। निमोनिया में इस प्रकार एकांतर से कई बार गरम और ठंढी पट्टी का प्रयोग करना चाहिए। गरम पट्टी का प्रयोग सब प्रकार की वेदना मिटाने के लिए किया जा सकता है, किंतु जलोदर में भूलकर भी गरम पट्टी का प्रयोग न करना चाहिए।”
तरेरा-जब ज्वर अधिक हो, तो ठंढी पट्टी के प्रयोग से ज्वर कम हो जाता है। दूर तक टहलने के पश्चात दुखते हुए पाँवों को जल में धो डालने से थकावट दूर हो जाती है। ठंढे स्नान बड़े बलवर्द्धक एवं दीर्घ जीवन देने वाले होते हैं। स्नान में जब जल कुछ दूरी से डाला जाता है, तो उसे तरेरा कहते हैं। तरेरा केवल शीतल जल का ही उत्तम है। यदि ऊपरी भागों में रोग हो, तो कमर से ऊपर तरेरा लेना चाहिए। निचले भागों के लिए कमर से नीचे तरेरा लीजिए। नेत्र, कान इत्यादि के शूल से मुक्ति के लिए सिर पर ठंढे पानी का तरेरा उत्तम है। शरीर के भिन्न-भिन्न अवयवों पर भी आवश्यकतानुसार किसी जल चिकित्सा विशेषज्ञ से पूछकर तरेरा का प्रयोग किया जा सकता है।
जल के इन असंख्य उपयोगों को देखकर ऋग्वेद मेंउचित ही निर्देश किया गया है-
“हे जल ! तुम्हीं स्वास्थ्य के कारण हो, अतः हमें ऐसा बल दो कि सत्य को जान पाएँ।”
स्नान कैसे किया जाए ?
ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के लिए मन और वाणी की शुद्धि के बाद यह भी अनिवार्य है कि शारीरिक अशुद्धि न रहने पाए। शारीरिक अशुद्धि बीमारी का घर है, जो रोगी है, उसका ब्रह्मचारी होना भी संभव नहीं। डॉक्टरों एवं मनोविज्ञानवेत्ताओं का तो कहना है कि रोगी और निर्बल ही अधिक विषयी होते हैं, फलतः क्षीण होते चले जाते हैं।
शरीर में इतने छिद्र और रोमकूप इसलिए बने हैं कि शरीर की भीतरी गंदगी दूर होती रहे, साथ ही शुद्ध वायु का प्रवेश भी जारी रहे। नाक और मुँह के अतिरिक्त रोमकूपादि भी श्वास लिया करते हैं और स्वस्थ रहने के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें साफ रखा जाए और यह ध्यान एवं कोशिश बनी रहे कि वे बंद न होने पाएँ।
स्नान मात्र ही पर्याप्त शुद्धि नहीं दे सकता। केवल १०-२० लोटा पानी डाल लेने या नदी तथा तालाब में १-२ डुबकी लगा लेना ही पर्याप्त स्नान नहीं। साथ ही शरीर को मल-मलकर धोना भी पर्याप्त या आवश्यक स्नान कदापि नहीं है। स्वस्थ रहने, वीर्य की रक्षा करने तथा रोगविमुक्त रहने के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति शरीर को स्वच्छ करने में कदापि आलस्य न करे और विधिवत् स्नान को सुख, सौंदर्य और स्वास्थ्य का सर्वोच्च साधन माने ।
इसके लिए यह आवश्यक है कि रगड़कर स्नान किया जाए। इस विधि से स्नान करने से मनुष्य तेजस्वी, निर्विकारी, नीरोग, ब्रह्मचारी तथा दीर्घजीवी बन सकता है। जो अपने शरीर को गंदा बनाए रहते हैं, वे अल्पायु को प्राप्त होते हैं और अल्पायु में भी सदैव रोग एवं मनोविकार के शिकार बने रहते हैं। शरीर को किसी खुरदरे गमछे या तौलिये से रगड़ना ही रोमकूपों को साफ रखने का मुख्य साधन है। रोमकूप साफ रहेंगे, तो शरीर की गंदगी और विष आसानी से बाहर निकल आएगा। डॉक्टरों का कथन है कि बहुधा मंदाग्नि, कब्जियत, चर्मरोग आदि रोमकूपों की गंदगी से हो जाते हैं और क्रमशः रक्त अत्यंत अशुद्ध हो जाता है। रगड़कर स्नान करने से रोमकूप साफ रहते हैं, छिद्रों के मुँह खुल जाते हैं और साथ ही त्वचा बड़ी मुलायम और सुंदर हो जाती है।
स्नान का सर्वोत्तम समय प्रातःकाल है। प्रातःकाल स्नान कर लेने से दिन भर चित्त प्रसन्न रहता है और जठराग्नि दीप्ति होने से भोजन भी ठीक से पचता है। फिर जब पेट ठीक रहता है, तो मन की विमलता भी बनी रहती है और आलस्य पास फटकने नहीं पाता। सूर्योदय के पूर्व स्नान करना अत्यंत लाभकर है। फिर भी यदि किसी कारणवश देर हो जाए, तो सूर्योदय के पश्चात स्नान कर लेना चाहिए।
स्नान सदैव शीतल जल से ही करना चाहिए। हाँ, किसी रोग या अन्य कारणवश यदि डॉक्टर कहें, तो गरम जल से स्नान कर लेना हानिकर नहीं है। तथापि यह ध्यान तो रखना ही पड़ेगा कि सिर पर गरम जल न पड़े। यह स्मरण रहे कि स्नान से जो लाभ हैं, वे तभी प्राप्त हो सकते हैं, जब शीतल जल का उपयोग किया जाए। शीतल जल से स्नान करने से नस-नस में स्फूर्ति की बिजली-सी दौड़ पड़ती है और जठराग्नि प्रदीप्त होती है। अतएव प्रातःकाल शीतल स्नान स्वास्थ्य का परम साधन है। यह साधन इतना सुलभ है कि गरीब से गरीब प्राप्त कर सकता है, भले ही बहुत बड़ा अमीर अपनी जान के भय से गरम जल से स्नान कर अपना समय और धन का दुरुपयोग करे। आजकल के नवयुवक गरम जल से स्नान करना अपना भाग्य और स्वास्थ्य का चिह्न समझते हैं, लेकिन यह बात ध्यान में नहीं आती कि फिर भी क्यों उनका स्वास्थ्य क्षीण होता जा रहा है?
शीतल जल स्नान
इसको अँगरेजी में The cold plunge bath (कोल्ड प्लंज बाथ) कहते हैं। कोमल और शीतल जल का स्नान मानव देह के लिए ईश्वर की एक बड़ी देन है। हृष्ट-पुष्ट व्यक्तियों के लिए यह स्नान सब स्नानों में उत्तम है। यह स्नान स्वास्थ्यवर्द्धक तो है ही, साथ ही साथ सौंदर्यवर्द्धक भी है। शीतकाल में, बंद कमरों में, गरम पानी से नहाने वाले स्त्री- पुरुष, अधिक नहीं, केवल एक पखवारा ही किसी खुले जलाशय के शीतल जल में स्नान कर देखें। उनको यह अनुभव कर महान आश्चर्य होगा कि उनके स्वास्थ्य और सौंदर्य में पहले से कहीं अधिक वृद्धि हो गई है। हमारे शास्त्रों में जो शीतकाल में, समय-समय पर गंगा जी आदि पवित्र सरिताओं के शीतल जल में स्नान करने की व्यवस्था है, वह इस प्रयोजन से दी गई है, ताकि इस स्नान के असाधारण गुणों से एक भी व्यक्ति वंचित न रह जाए और सभी इसे अपने धर्म का एक आवश्यक अंग समझकर करें।
शीतल जल में नियमित रूप से स्नान करने वाले मनुष्य काफी बड़ी आयु पाते हैं और मरते दम तक शक्तिशाली, तेजस्वी एवं स्वस्थ बने रहते हैं। ठंढे जल के स्नान से शरीर की त्वचा को शक्ति मिलती है और उसके काम में सहूलियत पैदा हो जाती है, जिससे बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य भी आसानी से सुधर जाता है। इस स्नान से शरीर की जीवनीशक्ति बढ़ती है। मोटी बात यह समझ लेनी चाहिए कि स्नान के लिए जल जितना ही ठंढा होगा, शरीर को वह उतना ही अधिक लाभ पहुँचाएगा।
शीतल जल से स्नान करने का ढंग वही है, जो साधारण स्नान करने का, अर्थात स्नान से पहले सारे शरीर की हलकी मालिश कर लेनी चाहिए या थोड़ा हलका व्यायाम ही कर लेना चाहिए, जिससे रक्त की गति थोड़ी तीव्र हो जाए। उसके बाद स्नान सिर की ओर से शुरू कर देना चाहिए। साधारण तौर पर इस स्नान में ५ से १५ मिनट का समय लगाना चाहिए। यदि इस स्नान के करने का कहीं बाहर जलाशय आदि में सुभीता न हो, तो घर में ही किसी जगह स्नानकुंड बनवा लेना चाहिए। यह भी न हो सके, तो मामूली नहाने के टब में ही ठंढा जल भरवाकर स्नान कर लेना चाहिए।
उष्ण जल स्नान
यह स्नान जाडों में और कभी-कभी करना चाहिए। इस स्नान को नियमित रूप से रोज-रोज करना ठीक नहीं। दिन भर की थकावट के बाद शाम को सोने से पहले गरम पानी से स्नान कर लेना अधिक लाभप्रद होता है। जिन लोगों की खाल सूखी-सूखी सी रहती हो, पसीना ठीक से न निकलता हो तथा उस पर मैल अधिक जम गई हो, ऐसे लोगों के लिए गरम जल का स्नान विशेष रूप से लाभदायक है।
स्नान का तरीका
स्नान-कुंड या टब गरम पानी से भर लें। पानी अधिक गरम न होना चाहिए। उसकी गरमी ९८ से १०० डिगरी फारेनहाइट के अंदर-अंदर होनी चाहिए। अब सिर पर ठंढे पानी से भीगा तौलिया लपेट लें और कुंड या टब में प्रवेश कर अंग-प्रत्यंग को खुरदरे तौलियों या स्पंजादि से रगड़- रगड़कर धोएँ और स्नानोपरांत बाहर निकलकर समूचे शरीर को तुरंत ठंढे जल से धो डालें और बगलें पोंछकर स्वच्छ कपड़े पहन लें। इस स्नान में यही एक बात ध्यान रखने की है कि स्नान करते समय गरम जल गले के ऊपर के अंगों को न छूने पाए, अन्यथा मस्तिष्क में रक्त अधिक तेजी से दौड़ जाने के कारण हानि हो सकती है। सिर से गरम पानी से स्नान करने से दृष्टि मंद हो जाती है तथा बाल गिरने और सफेद होने लगते हैं। स्वस्थावस्था में गरम जल का स्नान न करना ही उत्तम है। त्वचा पर गरम जल का बार-बार प्रयोग त्वचा के लिए हानिप्रद है। गरम जल से त्वचा की शक्ति क्षीण हो जाती है। इससे शरीर की जीवनीशक्ति भी मंद पड़ जाती है।
उष्ण जल स्नान जब कभी भी किया जाए, तो ५-७ मिनट से अधिक समय उसमें न लगाया जाए, नहीं तो स्नान से लाभ के बदले हानि ही अधिक होगी।
घर्षण स्नान
घर्षण का अर्थ है रगड़ना। प्रातः विधिपूर्वक घर्षण स्नान का अर्थ हुआ वह स्नान जिसमें किसी उचित विधि के अनुसार रगड़ने की क्रिया हो।
जिस तरह से एक बरतन रगड़े बगैर अच्छी तरह से साफ नहीं होता और उसमें चमक नहीं आती, उसी प्रकार हमारा शरीर भी, केवल दो-चार लोटा पानी डालने से धूल-मिट्टी के छोटे-छोटे कणों को, जो त्वचा के छिद्रों के अंदर भर जाते हैं, परिमार्जित नहीं कर सकता। अतः स्नान से प्रथम हमें चाहिए कि हम समस्त शरीर को ऊपर से नीचे की ओर अपने दोनों हाथों की हथेलियों से शरीर के प्रत्येक अवयव को उचित शक्ति के साथ घर्षण करें। सिर के बालों को धीरे-धीरे हाथ की उँगलियों से रगड़ें। ऐसा करने से सिर की मांसपेशियों में रक्त की गति में वृद्धि हो जाती है, अत: बाल पुष्ट होते हैं और कुसमय में हुए श्वेत बाल भी काले हो सकते हैं।
शरीर को रगड़ने की क्रिया किसी छोटे से खुरदुरे वस्त्र से भी की जा सकती है, परंतु हथेलियों से रगड़ने की क्रिया अधिक उत्तम है, क्योंकि उसके द्वारा त्वचा के छिद्र तो साफ होते हैं, इसके साथ-साथ हथेलियों की रगड़ से एक प्रकार की विद्युत उत्पन्न होती है, जो हमारे शरीर में स्फूर्ति एवं नवीन शक्ति का संचार करती है। तदुपरांत हमें स्वच्छ एवं शीतल जल से स्नान उस समय तक लेना चाहिए, जब तक कि त्वचा अच्छी तरह से साफ न हो जाए। इसका समय १०-१५ मिनट से लेकर आधे घंटे तक ऋतु एवं शरीर की सहनशक्ति के अनुसार हो सकता है। स्नान में जल सबसे प्रथम सिर पर डालना चाहिए। हमें चाहिए कि पेड़ को ऊपर से नीचे, बाएँ से दाएँ और दाएँ से बाएँ एक हाथ से रगड़ें और दूसरे हाथ से लोटे से जल पेड़ पर डालते जाएँ। सीने को रगड़ना भी न भूलें। इससे सीना विस्तृत होता है और जमा हुआ कफ आसानी से निकल जाता है।
स्नानोपरांत हम शरीर के प्रत्येक अवयव को अच्छी तरह से किसी वस्त्र से पोंछ डालें, ताकि सारा बदन शीघ्र ही सूख जाए, क्योंकि शरीर के बिना सूखे ही वस्त्र पहनने से कभी-कभी दाद जैसे दुःखदायी रोग से पीड़ित होनापड़ता है।
इस प्रकार के घर्षण स्नान से त्वचा के छिद्र खुल जाते हैं, जिसके कारण शरीर का बहुत सा विष पसीना द्वारा निकल जाता है और त्वचा स्वच्छ वायु का श्वास द्वारा सेवन कर सकती है।
जो मनुष्य इस प्रकार का स्नान प्रतिदिन लेते हैं, उन्हें चर्मरोग तो कभी हो ही नहीं सकते। पेट और पेड़ को रगड़ने के कारण उनकी नसों को एक अच्छी कसरत मिल जाती है। बहुत समय का संचित हुआ विजातीय द्रव्य ढीला पड़ जाता है, अतः गुदा-मार्ग द्वारा निकलने में सुविधा हो जाती है। इस प्रकार से हम कोष्ठबद्धता अथवा कब्ज से, जो प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार प्राय: समस्त रोगों की जड़ है, छुटकारा पा जाते हैं। इससे सिर की पीड़ा और आलस्य कोसों दूर भाग जाता है। शरीर में चैतन्यता आ जाती है और यह शीशे की भाँति चमकने लगता है। मुख भी सतेज हो जाता है। स्नानोपरांत दिन भर चित्त प्रसन्न रहता है। नवीन शक्ति आई हुई-सी प्रतीत होती है, अत: कार्यक्षमता में वृद्धि हो जाती है।