ज्ञानेन्द्रिय
मस्तिष्क को ऊर्जातंत्र माना गया है। हृदय उसके लिए ईंधन जुटाता है। मस्तिष्कीय संरचना कैसी ही विलक्षण क्यों न हो, इसे आवश्यक जानकारियाँ प्राप्त करने और ज्ञान- संपदा बढ़ाने के लिए ज्ञानेंद्रियों(sense organs) पर निर्भर रहना पड़ता है। आम धारणा यह है कि कान और आँख की भूमिका अन्य इंद्रियों की तुलना में अधिक है।
जिनके कान ठीक काम नहीं करते, वे बहरे लोग बोलना भी नहीं सीख पाते, क्योंकि शब्दोच्चार सुनने और उनका अनुकरण करने से ही बोलने का अभ्यास प्रारंभ होता है। जो सुनेंगे ही नहीं, उनका मस्तिष्क शब्द, ध्वनि और उसके साथ जुड़े हुए तात्पर्य को समझने में समर्थ न होगा; इसलिए बोलने का आधार न बन सकेगा और बहरे को गूँगा भी रहना पड़ेगा।
आँख से दृश्य देखते हैं। वस्तुओं का स्वरूप समझ में आता है, साथ ही उसके गुण एवं प्रयोग की जानकारी भी मिलती है। पढ़ने-लिखने में कान की तरह आँख का भी योगदान रहता है। ज्ञानवृद्धि में शिक्षा का महत्त्व माना जाता है। पुस्तकें पढ़ने में आँख और अध्यापक का मार्गदर्शन समझने में कान सहायता करते हैं। पहचानने, वर्गीकरण करने में आँखों की सहायता लेनी पड़ती है। स्मृतियों को सँजोए रख सकना बहुत करके दृश्यों पर आधारित है।
नाक का क्या महत्व है?
इतना सब होते हुए भी नाक की अपनी विशेषता है। उसकी क्षमता सूक्ष्म है, तो भी इतनी अधिक है कि वह अचेतन तक को प्रभावित करने की सामर्थ्य रखती है। गंध की ज्ञानवृद्धि में कितनी बड़ी भूमिका है, इस प्रश्न के उत्तर में हमें अचेतन की महत्ता और क्षमता को समझना होगा। ज्ञानभंडार मात्र आँख और कान से ही नहीं भरता, उसमें गंध का योगदान भी रहता है। क्रमिक मानवीय प्रगति में आँख और कान का महत्त्व बढ़ गया है। प्रत्यक्ष के साथ व्यवहार अब अधिक चल पड़ा है। इसलिए प्रत्यक्ष ही सब कुछ प्रतीत होने लगा है। इससे बौद्धिक परिधि के मनःक्षेत्र को विकसित करने में सहायता मिली है। फिर भी अचेतन को जिन परोक्ष जानकारियों की आवश्यकता होती है, उनकी पूर्ति के लिए इन दो प्रमुख समझी जाने वाली इंद्रियों से काम नहीं चलता है। अचेतन पर सर्वाधिक प्रभाव गंध का पड़ता है। इस दृष्टि से नासिका की महत्ता अधिक सिद्ध होती है। नासिका को भगवान ने व्यर्थ नहीं बनाया। वह आँख और कानों के बीच इसलिए अवस्थित है कि अचेतन को आवश्यक जानकारियाँ एवं उत्तेजना प्रदान करने का काम करती रहे। गंध की महत्ता दर्शन या श्रवण से कम नहीं, अधिक ही ठहरती है; क्योंकि जीवन को समर्थ और प्रखर बनाने में मस्तिष्क के सचेतन भाग से अचेतन का महत्त्व किसी भी प्रकार कम नहीं है। इस क्षेत्र को प्रभावित करने में गंध का असामान्य योगदान होता है।
प्राणियों के विकासक्रम पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि प्रागैतिहासिक काल के जीवधारी निर्वाह- व्यवस्था जुटाने, कठिनाइयों से निपटने और सहयोग बढ़ाने में घ्राणशक्ति का ही सबसे अधिक उपयोग करते रहे हैं। आँख और कान का विकास तो बहुत बाद में हुआ है। प्रारंभ में वे गौण ही रहे। आगे चलकर उनने प्रमुखता प्राप्त कर ली, यह दूसरी बात है।
पशु-पक्षियों की जीवनचर्या में अभी भी सूँघने की क्षमता (sense of smell) का ही प्रमुख योगदान रहता है। हिंस्त्र पशु अपना शिकार ढूँढ़ने और जिन से आक्रमण की आशंका है, वह उसी आधार पर खतरा समझने में समर्थ होते हैं। सिंह, व्याघ्र आदि को भी इसी आधार पर यह पता चलता है कि उन्हें कौन सा शिकार, किस दिशा में, कितनी दूरी पर, क्या करता हुआ मिलेगा? विभिन्न पशुओं के शरीर से निकलने वाली गंधों की तुलना में उनकी प्राणशक्ति अपने काम के पशुओं की गंध अधिक अच्छी तरह पहचानती है। इसलिए आक्रमण करने और शिकार पकड़ने में जिस पूर्व जानकारी की आवश्यकता है, उसे उनकी नासिका जुटाती रहती है।
हिरन, खरगोश, सूअर आदि का घ्राण हिंस्त्र वर्ग के पेट में जान पड़ता है। उन्हें आत्मरक्षा का अवसर मिलता रहे, इस सतर्कता में उनकी भी सूँघने की क्षमता (sense of smell) ही काम करती है। इस आधार पर वे जान लेते हैं कि आक्रामक कहाँ और किस स्थिति में है? संकट से बचने के लिए वे दौड़ने, छिपने और दिशा बदलने की सुरक्षात्मक कार्यवाही करने लगते हैं। इसी आधार पर उन्हें यह भी पता चलता है कि आक्रामक भूखा है या नहीं? भूखे होने पर हो वे आक्रमण करते हैं। भूखे के शरीर से अन्य प्रकार की गंध आती है। यही कारण है कि जब खतरा देखते हैं, तभी चौकन्ने होते हैं, अन्यथा भरे पेट के सिंह के आस-पास भी शिकार हो सकने वाले प्राणी निद्वंद्व होकर विचरण करते रहते हैं।
कुत्ते, बिल्ली और भेड़िया अपने शरीर से एक विशेष प्रकार की गंध निकालते हैं। उसका प्रभाव जितने क्षेत्र में रहता है, उतने में उस बिरादरी के अन्य प्राणी प्रवेश नहीं करते। करते हैं तो यह समझकर करते हैं कि लड़कर ही उस क्षेत्र में पैर जमाए जा सकते हैं। जिसका आधिपत्य है, वह आक्रमण करेगा। इस क्षेत्रीय बँटवारे के आधार पर उन वर्गों वाले अपने लिए अन्य सुरक्षित क्षेत्र ढूँढ़ते हैं अथवा आक्रमण के लिए तैयार होकर हड़पने या मर मिटने के लिए तैयार होते हैं। आक्रामक पशुओं के अपने क्षेत्र इसी आधार पर बनते और घटते-बढ़ते रहते हैं। इस प्रयोजन में नासिका की समर्थता ही उनका मार्गदर्शन करती है। शिकार के अन्य क्षेत्र में घुस जाने पर प्रायः आक्रामक वापस लौट पड़ते हैं। दूसरे के अधिकार क्षेत्र में शिकार पकड़ने पर उन्हें क्षेत्र के अधिकारी को रुष्ट करने का खतरा उठाना पड़ेगा।कुत्ते इस संबंध में और भी आगे हैं। उनकी घ्राणशक्ति अन्य पशुओं की तुलना में अधिक होती है। मनुष्य से तो सैकड़ों गुनी अधिक है। इसलिए प्राचीनकाल से शिकारी लोग कुत्तों के झुंड साथ लेकर चलते थे। अभी भी उनका प्रयोग अपराधियों को पकड़ने के लिए पुलिस द्वारा किया जाता है।
पक्षियों के झुंड बनाकर रहने, अपने परिवारवालों को पहचानने में आँखों से नहीं, नासिका से सहायता मिलती है। उनमें से नेता कौन है, किसका अनुकरण करना है? यह निर्णय वे प्रमुख की जानी-पहचानी गंध से ही करते हैं। चिड़ियों के परिवार और दांपत्य जीवन में जिस पहचान की आवश्यकता पड़ती है, उसे वे घ्राणशक्ति के सहारे ही पूरा करते हैं। मधुमक्खियों, तितलियों और चीटियों की अति जटिल जीवनचर्या इसी आधार पर चलती है। तितलियों को नर-मादा पुष्पों के बीच निषेचन की दलाली करनी पड़ती है। वे नर वर्ग का पराग अपने पैरों और पंखों में लपेटकर मादा वर्ग तक पहुँचाती हैं। उन्हें इन दोनों वर्गों का अंतर गंध भिन्नता के आधार पर ही करना पड़ता है। मधुमक्खियाँ इसी आधार पर ताड़ लेती हैं कि उन्हें किस दिशा में खिले हुए किन पुष्पों से मधुसंचय में सुविधा रहेगी? चींटियाँ मिठास का पता लगने और वहाँ तक टेढ़े-मेढ़े रास्ते पार करके भी जा पहुँचने में अपनी नासिका से ही सहायता लेती हैं।
मछलियाँ अपने तैरते अंडे, बच्चों की स्थिति इसी आधार पर समझतीं और उनकी सहायता करती रहती हैं। इसी प्रकार अन्य जल-जंतु भी बहते प्रवाह एवं गहरे जलाशयों में रहते हुए भी अपना परिवार सँभालते, शिकार पकड़ते और आक्रामकों से जान बचाते रहते हैं। वंशवृद्धि के लिए उपयुक्त समय, स्थान और साथी ढूँढ़ निकालने का सुयोग बैठाने में भी उन्हें शरीरों से निकलने वाली गंध के सहारे ही काम चलाना पड़ता है।पशु-पक्षियों से लेकर कृमि कीटकों तक में यथासमय मादा वर्ग के शरीरों से एक विशेष प्रकार की तेज गंध निकलती है। वह जितने क्षेत्र में फैलती है, उसमें रहने वाले नर वर्ग को उत्तेजित एवं आकर्षित करती है। निमंत्रण पाते ही वे दौड़ पड़ते हैं और वंशवृद्धि के कार्य में जुट पड़ते हैं। गंध समाप्त होते ही आकर्षण भी समाप्त हो जाता है और वे अपना-अपना रास्ता पकड़ते हैं।
मौसम बदलने और कोई प्राकृतिक प्रकोप उभरने का पूर्वाभास कितने ही प्राणियों को होता है। वे संकट आने से पूर्व ही अपना स्थान बदलते और सुरक्षित स्थान पर पहुँचने का प्रयत्न करते हैं। इसे उनकी अतींद्रिय क्षमता द्वारा जाना जा सकता है। यह क्या है और कहाँ से उत्पन्न होती है ? इसका रहस्य खोजने वालों का निष्कर्ष यह है कि यह उस गंध का चमत्कार है, जो घटनाक्रम बदलने के साथ साथ अपना स्वरूप एवं स्तर बदलती रहती है। जिनकी सूँघने की क्षमता (sense of smell) पैनी है, वे उसे पहचान लेते हैं और संकट से बचने का प्रयत्न करते हैं।
कृमि-कीटकों के यौनाचार का संयोग बैठाने में मादा वर्ग के शरीर से निकलने वाली जिस गंध की प्रधान भूमिका रहती है, उसे ‘फैरोमोन’ रसायन कहा जाता है। इसे अब वैज्ञानिक विधि से उन शरीरों से पृथक भी किया जाने लगा है, उसे कृत्रिम तरीकों से भी बनाया जाने लगा है। इस गंध को जहाँ बिखेरा जाता है, वहाँ उस वर्ग का नर समुदाय दूर-दूर से आकर इकट्ठा होने लगता है। इस आधार पर उन्हें पकड़ने या मारने का उद्देश्य पूरा किया जाता है। नर वर्ग भी अपनी परिपक्वता की छाप छोड़ता है और समूह की अनेक मादाएँ उसके हरम में सम्मिलित होती हैं। कोई नया नर उभरता है, तो उस परिपक्वता के दबाव में अपना मन भर लेता है। या तो बिना दांपत्य सहयोग के ही काम चला लेता है या फिर अन्यत्र जाने या प्रमुख को खदेड़ने की बात सोचता है। नवयुवकों को क्या करना चाहिए, इसके लिए उसे प्रमुख की गंध प्रखरता को देखते हुए ही अनुमान लगाना पड़ता है। ऐसा भी देखा गया है कि किसी की प्रखरता के सामने उस समुदाय का मन ही ठंढा पड़ जाता है। रानी मधुमक्खी की प्रजनन शक्ति इतनी प्रखर होती है कि उस छत्ते की अन्य मादाओं में प्रजनन की आकांक्षाएँ ही नहीं उभरतीं, वे चुपचाप अपना श्रम करती और दिन काटती रहती हैं। नर का दबाव भी अपने झुंड के अन्य नरों को निस्पृह बनाकर रख देता है।
मनुष्य की सूँघने की क्षमता (sense of smell) आँख और कान की प्रखरता मिलने के कारण दब गई है। काम न मिलने, उपयोग न होने पर ही वस्तु निकम्मी हो जाती है। अपनी नाक का भी यही हाल है। वह श्वास लेने भर का काम करती है। सरदी, जुकाम होने पर ही उसके अस्तित्व का पता चलता है। इतने पर भी वह अचेतन अनेकानेक परोक्ष जानकारियाँ अभी भी देती रहती है। यदि वस्तुतः वह अपनी क्षमता गँवा बैठे, तो मनुष्य बुद्धिमान दीखते हुए भी अचेतन क्षेत्र की समस्वरता गँवा बैठेगा और बुद्ध या सनकी बनने लगेगा।
प्राण विद्युत की इन दिनों बहुत चर्चा है। शरीर में पाई जाने वाली बिजली के ऊपर गहरे अनुसंधान चल रहे हैं। इस संपर्क में नए तथ्य सामने आए हैं कि यह प्राण विद्युत, ताप, शब्द या प्रकाश तरंगों के रूप में पहचानी तो जाती है, पर वस्तुतः होती गंध की प्रतिक्रिया भर ही है। ऋषि-आश्रमों में सिंह और गाय के एक घाट पानी पीने में वातावरण की जिस विशिष्टता पर दृष्टिपात किया गया है, अब उसे गंध विशेष के रूप में निरूपित किया जा रहा है। व्यक्ति विशेष के शरीर से जो गंध निकलती है, उस आधार पर व्यक्तित्व के अनेक पक्षों का पता चलता है। यहाँ तक कि शारीरिक एवं मानसिक रोगों तक का स्वरूप समझा जा सकता है। चिकित्सा क्षेत्र एवं मानसिक रोगों तक का स्वरूप समझा जा सकता है। चिकित्सा क्षेत्र में अब तक मल-मूत्र-रक्त आदि की परीक्षा ही निदान के लिए प्रयुक्त होती थी। अब इसमें रोगी के शरीर से निकलने वाली गंध को भी जाँच-पड़ताल का एक माध्यम माना जाने लगा है। हर रोग के रोगी में एक विशेष प्रकार की गंध पाई जाती है, जिसे सूँघने की क्षमता (sense of smell) विकसित कर लेने वाला कोई भी चिकित्सक सहज ही पहचान सकता है और रोग के स्वरूप को समझने की गुत्थीसुलझा सकता है।
इसी प्रकार गंध चिकित्सा की एक उपचार पद्धति विनिर्मित की जा रही है। येल विश्वविद्यालय के शोधकर्ता डॉ० जुडिथ रोडन ने सिद्ध किया है कि भोजन में स्वाद ही नहीं, उसकी गंध भी खाने वालों के शरीर में उतार-चढ़ाव उत्पन्न करती है। कपड़ों में, घर-आँगन में रहने वाली गंध का भी मनुष्य के स्वास्थ्य एवं संतुलन पर प्रभाव पड़ते देखा गया है। परीक्षण में प्रसंगों का उल्लेख करते हुए रोडन ने लिखा है,”एक व्यक्ति का चाकलेट की गंध मात्र से स्वास्थ्य सुधरा और वजन बढ़ा। चरबी घटाने एवं शर्कराजन्य रोगों पर नियंत्रण पाने में गंध संपर्क से उत्साहवर्द्धक परिणाम देखने को मिला है।”
जार्जटाउन यूनिवर्सिटी मेडीकल सेंटर के अध्यक्ष जीवविज्ञानी राबर्ट हेनसिन ने अपने प्रयोगों से सिद्ध किया है कि श्रमजीवियों की थकान घटाने या बढ़ाने में कारखाने और कार्यालयों में पाई जाने वाली गंध का भी हाथ रहता है। अस्तु, श्रमिकों का तनाव घटाने के लिए कार्यालयों में उपयुक्त स्तर की गंध का छिड़काव होना चाहिए।
सुगंध उत्पादन में अरबों-खरबों की राशि खरच होती है। इनका उपयोग आमतौर से भोजन, वस्त्र, घर को नासिकाप्रिय बनाने के लिए किया जाता है। अब इस संदर्भ में एक नया अध्याय जुड़ा है कि शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य सुधार के लिए किन प्राकृतिक या कृत्रिम गंधों का उपयोग किया जाए ? यहाँ यह समझना भी उपयुक्त होगा कि मनुष्य के स्वभाव, आचरण एवं दृष्टिकोण को भी विशेष गंध प्रभावित करती है। पूजा-उपचार में इसी हेतु विभिन्न गंधों का प्रबंध किया जाता है। अगरबत्ती, धूपबत्ती, कपूर, चंदन, दीपक, हवन आदि को इसलिए भी अध्यात्म कृत्यों में सम्मिलित रखा गया है कि उनके सहारे चेतन, अचेतन और सुपरचेतन को उपयुक्त दिशा में विकसित होने का अवसर मिलता है।
दुर्गंध के साथ जुड़े रहने वाली अहितकर संभावनाओं से सभी परिचित हैं। सड़न से उठने वाली कुरुचिपूर्ण गंध यह बताती है कि यहाँ रहने में खैर नहीं। उसे हटाया जाए या स्वयं भगा जाए, अन्यथा रुग्णता का संकट सिर चढ़ेगा। कार्यक्षमता घटेगी और मानसिक संतुलन बिगड़ेगा।
इत्र, फुलेल आदि का इन दिनों बहुत प्रचलन है। यह कृत्रिम(artificial) और उत्तेजक होने से उलटी प्रक्रिया भी उत्पन्न कर सकते हैं। सात्त्विक एवं उपयोगी गंध वह है, जो वृक्ष- वनस्पतियों और खिले फूलों से निकलती है। इसे भी जीवनोपयोगी आवश्यकताओं में सम्मिलित रखा जाना चाहिए। ऐसे क्षेत्र में रहना चाहिए, जहाँ ऐसा सुव्यवस्थित वातावरण हो अथवा अपने घरों में पुष्पोद्यान लगाने का प्रबंध करना चाहिए। इस व्यवस्था को भी सुविधा एवं सुसज्जा की तरह एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता समझा जाना चाहिए। इससे वातावरण की शोभा-सुषमा भी बनी रहेगी और प्रकृति के सान्निध्य में रहने का अवसर मिलेगा एवं स्वास्थ्य संबंधी बहुमूल्य लाभ भी हस्तगत होगा।