क्या है श्राद्ध का असली रहस्य ।Shradh kyu kiya jata hai

श्राद्ध का मतलब

श्रद्धा से श्राद्ध शब्द बना है। श्रद्धापूर्वक किए हुए कार्य को श्राद्ध कहते हैं। सत्कार्यों के लिए, सत्पुरुषों के लिए आदर की, कृतज्ञता की भावना रखना श्रद्धा कहलाता है। उपकारी तत्त्वों के प्रति आदर प्रकट करना, जिन्होंने अपने को किसी प्रकार लाभ पहुँचाया है, उनके लिए कृतज्ञ होना श्रद्धालु का आवश्यक कर्तव्य है। ऐसी श्रद्धा हिंदू धर्म का मेरुदंड है। इस श्रद्धा को हटा दिया जाय तो हिंदू धर्म की सारी महत्ता नष्ट हो जाएगी और वह एक निःस्वत्व ढूँछ मात्र रह जाएगा। श्रद्धा हिंदू धर्म का एक अनिवार्य अंग है इसलिए श्राद्ध उसका धार्मिक कृत्य है।

श्राद्ध का महत्व

माता, पिता और गुरु के प्रयत्न से बालक का विकास होता है। इन तीनों का उपकार मनुष्य के ऊपर बहुत अधिक होता है। उस उपकार के बदले में बालक को इन तीनों के प्रति अटूट श्रद्धा मन में धारण किए रहने का शास्त्रकारों ने आदेश किया है। “मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव’ इन श्रुतियों में इन्हें देव-नर तनधारी देव मानने और श्रद्धा रखने का विधान किया है। स्मृतिकारों ने माता को ब्रह्मा, पिता को विष्णु और आचार्य को शिव का स्थान दिया है। यह कृतज्ञता की भावना सदैव बनी रहे, इसलिए गुरुजनों का चरण स्पर्श, अभिवंदन करना नित्य के धर्मकृत्यों में सम्मिलित किया गया है। यह कृतज्ञता की भावना जीवन भर धारण किए रहना आवश्यक है। यदि इन गुरुजनों का स्वर्गवास हो जाय तो भी मनुष्य को वह श्रद्धा कायम रखनी चाहिए। इस दृष्टि से मृत्यु के पश्चात पितृपक्षों में, मृत्यु की वर्षतिथि के दिन, पर्व समारोहों पर श्राद्ध करने का श्रुति-स्मृतियों में विधान पाया जाता है।नित्य की संध्या के साथ तर्पण जुड़ा हुआ है। जल की एक अंजली भरकर हम स्वर्गीय पितृदेवों के चरणों में उसे अर्पित कर देते हैं। उनके नित्य चरण स्पर्श, अभिवंदन की क्रिया दूसरे रूप में इस प्रकार पूरी होती है। जीवित और मृत पितरों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का यह धर्मकृत्य किसी न किसी रूप में मनुष्य पूरा करता है और एक आत्मसंतोष का अनुभव करता है।

इन्हीं विशेष अवसरों पर, श्राद्ध पर्वो में हम अपने पूर्वजों के लिए ब्राह्मणों को अन्न, वस्त्र, पात्र आदि का दान करते हैं और यह आशा करते हैं कि ये वस्तुएँ हमारे पितृदेवों को प्राप्त होंगी। इस संबंध में आज एक तर्क उपस्थित किया जाता है कि दान की हुई वस्तुएँ पितरों को न पहुँचेंगी। स्थूल दृष्टि से, भौतिकवादी दृष्टिकोण से यह विचार ठीक भी है। जो पदार्थ श्राद्ध में दान दिए जाते हैं, वे सब उसी के पास रहते हैं, जिसे दिए जाते हैं। खिलाया हुआ भोजन निमंत्रित व्यक्ति के पेट में जाता है तथा अन्न, वस्त्र आदि उसके घर जाते हैं। यह बात इतनी स्पष्ट है कि जिसके लिए कोई तर्क उपस्थित करने की आवश्यकता नहीं। जो व्यक्ति श्राद्ध करता है, वह भी इस बात को भली प्रकार जानता है कि जो वस्तुएँ दान दी गई थीं, वे कहीं उड़ नहीं गईं वरन जिसने दान लिया था, उसी के प्रयोग में आई हैं। इस प्रत्यक्ष बात में किसी तर्क की गुंजाइश नहीं है।

दान धर्म के फल

अब प्रश्न दान के फल के संबंध में रह जाता है। यदि यह भी कहा जाए कि दान का पुण्य फलदाता को ही मिलता है तो इससे श्राद्ध की अनुपयोगिता सिद्ध नहीं होती। मनुष्य को लोभवश दान आदि सत्कर्मों में प्रायः अरुचि रहती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए आचार्यों ने कुछ पर्व, उत्सव, स्थान, काल ऐसे नियत किए हैं, जिन पर दान करने के लिए विशेष रूप से प्रेरित किया गया है। उन विशिष्ट पर्वो, अवसरों पर दान करने के विविध भेद- प्रभेद और माहात्म्यों का वर्णन किया गया है। मनुष्य में विवेक से रूढ़ि का अंश अधिक होता है। जैसे स्वास्थ्य ठीक न होते हुए भी दानादि सत्कर्म करने पड़ते हैं। उत्तम कर्म का फल उत्तम ही होता है, चाहे वह इच्छा से, अनिच्छा से या किसी विशेष अभिप्राय से किया जाए। श्राद्ध के बहाने जो दान-धर्म किया जाता है, उसका फल उस स्वर्गीय व्यक्ति को अवश्य ही प्राप्त न होता हो तो भी दान करने वाले के लिए वह कल्याणकारक है ही। सत्कर्म कभी भी निरर्थक नहीं जाते। श्राद्ध की उपयोगिता इसलिए भी है कि इस रूढ़ि के कारण अनिच्छापूर्वक भी धर्म करने के लिए विवश होना पड़ता है।

श्राद्ध से श्रद्धा जीवित रहती है। श्रद्धा को प्रकट करने का जो प्रदर्शन होता है, वह श्राद्ध कहा जाता है। जीवित पितरों और गुरुजनों के लिए श्रद्धा प्रकट करने, श्राद्ध करने के लिए उनकी अनेक प्रकार से सेवा, पूजा तथा संतुष्टि की जा सकती है। परंतु स्वर्गीय पितरों के लिए श्रद्धा प्रकट करने का; अपनी कृतज्ञता को प्रकट करने का कोई निमित्त निर्माण करना पड़ता है। यह निमित्त श्राद्ध है। स्वर्गीय गुरुजनों के कार्यों, उपकारों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने से ही छुटकारा नहीं मिल जाता। हम अपने अवतारों, देवताओं, ऋषियों, महापुरुषों और पूजनीय पूर्वजों की जयंतियाँ धूम-धाम से मनाते हैं, उनके गुणों का वर्णन करते हैं, उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और उनके चरित्रों एवं विचारों से प्रेरणा ग्रहण करते हैं। यदि कहा जाए कि मृत व्यक्तियों ने तो दूसरी जगह जन्म ले लिया होगा, उनकी जयंतियाँ मनाने से क्या लाभ ? तो यह तर्क बहुत अविवेकपूर्ण होगा। मनुष्य मिट्टी का खिलौना नहीं है, जो फूट जाने पर कूड़े के ढेर में तिरस्कारपूर्वक फेंक दिया जाए। उसका कीर्तिशरीर युग-युगांतों तक बना रहता है और वह उतना ही काम करता रहता है, जितना कि जीवित शरीर करता है। आज मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगेश्वर कृष्ण, दानी कर्ण, त्यागी दधीचि, सत्यवादी हरिश्चंद्र, ध्रुव, प्रह्लाद, वीर हकीकतराय, बंदा वैरागी, शिवाजी, महावीर, नानक, कबीर आदि जीवित नहीं हैं, पर उनका कीर्तिशरीर उतना ही काम करता है जितना कि उनके जीवित शरीर ने किया था। करोड़ों व्यक्तियों को उनसे प्रेरणा और प्रकाश प्राप्त होता है।

मनुष्य भावनाप्रधान प्राणी है। व्यापारिक दृष्टिकोण से ही वह हर पहलू को नहीं सोचता वरन अधिकांश कार्य अपनी अंतः वृत्तियों को तृप्त करने के लिए करता है। वृद्ध पुरुषों की सेवा, बालकों के भरण-पोषण का कठिनाई भरा दायित्व निर्वाह, पीड़ितों की सहायता, पुण्य-परोपकार आदि में व्यापारिक दृष्टि से कोई फायदा नहीं। यदि केवल व्यापार बुद्धि ही प्रधान हो तो बूढ़े माता- पिता को कोई रोटी क्यों दे? बच्चों को पालने-पोषने, पढ़ाने, विवाह आदि करने का झंझट उठाने के लिए कोई तैयार क्यों हो? ऐसी प्रवृत्ति हो जाने पर तो मानव जाति पिशाचों की सेना बन जाएगी। पर सौभाग्य से ऐसा नहीं है। मनुष्य भावनाशील प्राणी है, वह प्रत्यक्ष लाभ की अपेक्षा अप्रत्यक्ष लाभ, हृदयगत भावनाओं को प्रधानता देता है। कृतज्ञता उसकी श्रेष्ठ वृत्ति है। इसे वह जीवितों के प्रति ही प्रकट करके संतुष्ट नहीं रह सकता। मृतकों के उपकारों के लिए भी उसे श्राद्ध करना पड़ता है।

संसार के सभी देशों में, सभी धर्मों में, सभी जातियों में, किसी न किसी रूप में मृतकों का श्राद्ध होता है। मृतकों के स्मारक, कब्र, मकबरे संसारभर में देखे जाते हैं। पूर्वजों के नाम पर नगर, मुहल्ले, संस्थाएँ, मकान, कुएँ, तालाब, मंदिर, मीनार आदि बनाकर उनके नाम तथा यश को चिरस्थायी रखने का प्रयत्न किया जाता है। उनकी स्मृति में पर्वों एवं जयंतियों का आयोजन किया जाता है। यह अपने-अपने ढंग के श्राद्ध ही हैं। ‘क्या फायदा?’ वाला तर्क केवल हिंदू श्राद्ध पर ही नहीं, समस्त संसार की मानव प्रवृत्ति पर लागू होता है। असल बात यह है कि प्रेम, उपकार, आत्मीयता एवं महानता के लिए मनुष्य स्वभावतः कृतज्ञ होता है और जब तक उस कृतज्ञता के प्रकट करने का प्रत्युपकार स्वरूप कुछ प्रदर्शन न कर ले, तब तक उसे आंतरिक बेचैनी रहती है। इस बेचैनी को यह श्राद्ध द्वारा ही पूरी करता है। ताजमहल क्या है? एक पत्नी का उसके पति द्वारा किया हुआ श्राद्ध है। इस श्राद्ध से उस पति को क्या फायदा हुआ यह नहीं कहा जा सकता पर इतना निश्चित है कि पति की अंतरात्मा को इससे बड़ी शांति मिली होगी।

शाहजहाँ को उसके पुत्र औरंगजेब ने कैद करके जेल में पटक दिया और स्वयं राजा बन गया। जेल में सड़ते-सड़ते शाहजहाँ जब मृत्यु के निकट पहुँचा तो उसने आँसू भरकर कहा- “मेरे इस्लाम परस्त बेटे से तो वे काफिर (हिंदू) अच्छे जो मृतक पितरों तक को पानी पिलाते हैं।” श्राद्ध और तर्पण का मूल आधार अपनी कृतज्ञता और आत्मीयता की सात्विक वृत्तियों को जाग्रत रखना है। इन प्रवृत्तियों का जीवित रहना संसार की सुख-शांति के लिए नितांत आवश्यक है। उस आवश्यक वृत्ति का पोषण करने वाले श्राद्ध जैसे अनुष्ठान भी आवश्यक हैं।

हिंदू धर्म के कर्मकांडों में आधे से अधिक श्राद्ध तत्त्व से भरा हुआ है। सूरज, चाँद, ग्रह, नक्षत्र, पृथ्वी, अग्नि, जल, कुआँ, तालाब, मरघट, खेत, खलिहान, भोजन, चक्की, चूल्हा, तलवार, कलम, जेवर रुपया, घड़ा, पुस्तक आदि निर्जीव पदार्थों की विवाह या अन्य संस्कारों में अथवा किन्हीं विशेष अवसरों पर पूजा होती है। यहाँ तक कि नाली या घूरे तक की पूजा होती है। तुलसी, पीपल, वट, आँवला आदि पेड़-पौधे तथा गौ, बैल, घोड़ा, हाथी आदि पशु पूजे जाते हैं। इन पूजाओं से उन जड़ पदार्थों या पशुओं को कोई लाभ नहीं होता, परंतु पूजा करने वाले के मन में श्रद्धा एवं कृतज्ञता का भाव जरूर उदय होता है। जिन जड़-चेतन पदार्थों से हमें लाभ मिलता है, उनके प्रति हमारी बुद्धि में उपकृत भाव होना चाहिए और उसे किसी न किसी रूप में प्रकट करना ही चाहिए। यह श्राद्ध ही तो है। मृतकों का ही नहीं, जीवित, जानदारों और बेजुबानों का भी हम श्राद्ध करते हैं। ऐसे श्राद्ध के लिए हमारे शास्त्रों में पग-पग पर आदेश हैं।

मरे हुए व्यक्तियों को श्राद्ध कर्म से कुछ लाभ होता है किनहीं ? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि होता है, अवश्यहोता है। संसार एक समुद्र के समान है, जिसमें जलकणों की भाँतिहर एक जीव है। विश्व एक शिला है तो व्यक्ति उसका एकपरमाणु। हर एक आत्मा जो जीवित या मृतरूप में इस विश्व में मौजूद है अन्य समस्त आत्माओं से संबंद्ध है। संसार में कहीं भी अनीति, युद्ध, कष्ट, अनाचार, अत्याचार हो रहे हैं, तो सुदूर देशों के निवासियों के मन में भी उद्वेग उत्पन्न होता है। जब जाड़े का प्रवाह आता है तो हर चीज ठंढी होने लगती है और गरमी की ऋतु में हर चीज की ऊष्णता बढ़ जाती है। छोटा सा यज्ञ करने से उसकी दिव्य गंध तथा दिव्य भावना समस्त संसार के प्राणियों को लाभ पहुँचाती है। इसी प्रकार कृतज्ञता की भावना प्रकट करने के लिए किया हुआ श्राद्ध समस्त प्राणियों में शांतिमयी सद्भावना की लहरें पहुँचाता है। यह सूक्ष्म भाव-तरंगें सुगंधित पुष्पों की सुगंध की तरह तृप्तिकारक, आनंद और उल्लासवर्द्धक होती है, सद्भावना की सुगंध जीवित और मृतक सभी को तृप्त करती है। इन सभी में अपने स्वर्गीय पितर भी आ जाते हैं। उन्हें भी श्राद्ध-यज्ञ की दिव्य तरंगें आत्मशांति प्रदान करती हैं।

मर जाने के उपरांत जीव का अस्तित्व मिट नहीं जाता, वह किसी न किसी रूप में इस संसार में ही रहता है। स्वर्गस्थ, नरकस्थ, गर्भस्थ, निर्देह, सदेह आदि किसी न किसी अवस्था में इस लोक में ही बना रहता है। इसके प्रति दूसरों की सद्भावनाएँ तथा दुर्भावनाएँ आसानी से पहुँचती रहती हैं। स्थूल वस्तुएँ एक स्थान से दूसरे स्थान तक देर में कठिनाई से पहुँचती हैं परंतु सूक्ष्म तत्त्वों के संबंध में यह कठिनाई नहीं है, उनका यहाँ से वहाँ आवागमन आसानी से हो जाता है। हवा, गरमी, प्रकाश, शब्द आदि को बहुत बड़ी दूरी पार करते हुए कुछ विलंब नहीं लगता। विचार और भाव इससे भी सूक्ष्म हैं, वे उस व्यक्ति के पास जा पहुँचते हैं, जिसके लिए वे फेंके जाएँ। सताये हुए व्यक्तियों की आत्मा को जो क्लेश पहुँचाता है, उसका शाप शब्दभेदी तीर या राकेट-बम की तरह निश्चित स्थान पर जा पहुँचता है। सेवा, संतुष्टि, उपकृत, एहसानमंद, कष्ट उद्धरित व्यक्ति की सद्भावना, दुआ, वरदान, आशीर्वाद भी इसी प्रकार उस उपकारी व्यक्ति के पास पहुँचते हैं, जिसने कोई परोपकार किया है। कोई व्यक्ति जीवित हो या मृतक उसके पास जहाँ कहीं भी रह रहे लोगों के शाप-वरदान पहुँचते हैं, उसे मालूम हो पावे या न हो पावे, वे शाप-वरदान उसे दुःख या सुख देने बाले परिणाम उसके सामने उपस्थित करते रहते हैं। इसी प्रकार कृतज्ञता की, श्रद्धा की भावना भी उस व्यक्ति के पास पहुँचती है, जिसके लिए वह भेजी जाती है, फिर चाहे वह स्वर्गीय व्यक्ति किसी भी योनि या किसी भी अवस्था में क्यों न हो ! श्राद्ध करने वाले का प्रेम, आत्मीयता, कृतज्ञता की पुण्ययुक्त सद्भावना उस पितर आत्मा के पास पहुँचती हैं और उसे आकस्मिक, अनायास, अप्रत्याशित, सुख, शांति, प्रसन्नता, स्वस्थता एवं बलिष्ठता प्रदान करती हैं। कई बार कई व्यक्तियों को आकस्मिक, अकारण आनंद एवं संतोष का अनुभव होता है। संभव है कि यह उनके पूर्व संबंधियों के श्राद्ध का ही फल हो।

श्रद्धा-कृतज्ञता हमारे धार्मिक जीवन का मेरुदंड है। यह भाव निकल जाए तो धार्मिक समस्त क्रियाएँ व्यर्थ, नीरस एवं निष्प्रयोजन हो जाएँगी। श्रद्धा के अभाव में यज्ञ करना और भट्ठी जलाना एक समान है। देवमूर्तियों और बालकों के खिलौनों में, शास्त्र-श्रवण और कहानी सुनने में, प्रवचनों और ग्रामोफोन के रिकार्डों में कोई अंतर नहीं रह जाएगा। अश्रद्धा एक दावानल है; जिसमें ईश्वर, परलोक, कर्मफल, धर्म, सदाचार, दान-पुण्य, परोपकार, प्रेम एवं सेवा-सहायता पर से विश्वास उठता है और अंत में अश्रद्धाल व्यक्ति अपनी छाया पर, अपने आप पर भी अविश्वास करने लगता है। भौतिकवादी नास्तिक दृष्टिकोण और धार्मिक आस्तिक दृष्टिकोण में प्रधान अंतर यही है। नीरस, शुष्क, कठोर दृष्टिकोण बोलले भौतिकवादी व्यक्ति स्थूल व्यापार बुद्धि से सोचता है। वह कहता है कि पिता मर गया अब उससे हमारा क्या रिश्ता ? जहाँ होगा अपनी करनी भुगत रहा होगा, उसके लिए परेशान होने से हमें क्या मतलब? इसके विपरीत धार्मिक दृष्टि वाला व्यक्ति स्वर्गीय पिता के अपरिमित उपकारों का स्मरण करके कृतज्ञता के बोझ से नतमस्तक हो जाता है; उस उपकारमयी, स्नेहमयी, देवोपम स्वर्गीय मूर्ति के निस्स्वार्थ प्रेम और त्याग का स्मरण करके उसका हृदय भर आता है। उसका हृदय पुकारता है- ‘स्वर्गीय पितृदेव! तुम सशरीर यहाँ नहीं हो, पर कहीं न कहीं इस लोक में आपकी आत्मा मौजूद है। आपके ऋणभार से दबा हुआ मैं बालक आपके चरणों में श्रद्धा की अंजलि चढ़ाता हूँ।” इस भावना से प्रेरित होकर वह बालक जल की एक अंजलि भरकर तर्पण करता है।

तर्पण का वह जल उस पितर के पास नहीं पहुँचा, वहीं धरती में गिरकर विलीन हो गया, यह सत्य है। यज्ञ में आहुति दी गई सामग्री जलकर वहीं खाक हो गई, यह भी सत्य है। पर यह असत्य है कि ‘इस यज्ञ या तर्पण से किसी का कुछ लाभ नहीं नही धार्मिक कर्मकांड स्वयं अपने आप में कोई बड़ा महत्त्व काम करे। महत्त्वपूर्ण तो वे भावनाएँ हैं, जो उन अनुष्ठानों के पीछे भावनाती हैं। मनुष्य भावनाशील प्राणी है। दूषित, तमोगुणी, नीच भावनाओं को ग्रहण करने से वह असुर, पिशाच, राक्षस एवं शैतान बनता है और ऊँची सात्विक, पवित्र, धर्ममयी भावनाएँ धारण करके वह महापुरुष, ऋषि, देवता, अवतार बन जाता है। ये भावनाएँ ही मनुष्य को सुखी, समृद्ध, स्वस्थ, संपन्न, वैभवशाली, यशस्वी, पराक्रमी तथा महान बनाती हैं और इन भावनाओं के कारण ही दुखी, रोगी, दीन, दास, तिरस्कृत तथा तुच्छ हो जाता है। शारीरिक दृष्टि से लगभग सभी एक समान से ही होते हैं, पर उनके बीच जो जमीन-आसमान का अंतर दिखाई पड़ता है, यह भावनाओं का ही अंतर है। धार्मिक दृष्टिकोण सद्भावनाओं, सात्विक-पारमार्थिक वृत्तियों को ऊँचा उठाता है। धार्मिक कर्मकांडों का आयोजन इसी आधार पर होता है। धर्म हृदय का ज्ञान है। अंतरात्मा में सतोगुणी तरलता उत्पन्न करना धर्म का, धार्मिक कर्मकांडों का मूल प्रयोजन है। समस्त कर्मकांडों की रचना का यही आधार है। स्थूल व्यापार बुद्धि से धार्मिक कृत्यों और भावों की उपयोगिता किसी की समझ में आवे चाहे न आवे पर इस दृष्टि से उनका असाधारण महत्त्व है। इन कर्मकांडों में कुछ समय और धन अवश्य खरच होता है, पर उसके फलस्वरूप वे तत्त्व प्राप्त होते हैं, जो मनुष्य के प्रेरणा-केंद्र का निर्माण करते हैं। उसके अंतरंग तथा बहिरंग जीवन को सुख- शांति से पूरित करते हैं।

ब्राह्मणत्वरहित, विद्या-विवेक-आचरण-त्याग-तपस्या से रहित वे व्यक्ति जो शूद्रोपम होते हुए भी वंश परंपरा के कारण ब्राह्मण कहलाते हैं, उन्हें श्राद्ध का या अन्य किसी प्रकार के दान प्राप्त करने का अधिकार नहीं है। श्राद्ध के निमित्त किया हुआ दान या भोजन उन्हीं सच्चे ब्राह्मणों को दिया जाना चाहिए जो वस्तुतः उसके अधिकारी हैं। श्रुतियों में कहा गया है कि ब्राह्मण अग्निमुख है, उसमें डाला हुआ अन्न देवता एवं पितरों को प्राप्त होता है, उससे विश्व का कल्याण होता है। परंतु वे ब्राह्मण ही होने चाहिए- अग्निमुख। त्याग, तपस्या, विद्या और विवेक की यज्ञाग्नि जिनके अंतःकरण में प्रज्वलित है, वही अग्निमुख हैं। अग्नि में न डालकर कीचड़ में यदि हवन-सामग्री डाली जाए तो कुछ पुण्य न होगा। इसी प्रकार अग्निमुख ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्यों को दिया हुआ दान भी निरर्थक होता है। शास्त्र मत है कि कुपात्रों को दिया हुआ दान, दाता को नरक में ले जाता है।

श्राद्ध करना चाहिए जीवितों का भी, मृतकों का भी। जिन्होंने अपने साथ में किसी भी प्रकार की कोई भलाई की है, उसे बार- बार प्रकट करना चाहिए क्योंकि इससे उपकार करने वालों को संतोष तथा प्रोत्साहन प्राप्त होता है। वे अपने ऊपर अधिक प्रेम करते हैं और अधिक घनिष्ठ बनते हैं, साथ-साथ एहसान स्वीकार करने से अपनी नम्रता एवं मधुरता बढ़ती है। उपकारों का बदला चुकाने के लिए किसी न किसी रूप में सदा ही प्रयत्न करते रहना चाहिए, जिससे अपने ऊपर रखा हुआ ऋणभार हलका हो। जो उपकारी, पूजनीय एवं आत्मीय पुरुष स्वर्ग सिधार गए हैं, उनके प्रति भी हमें कृतज्ञता रखनी चाहिए और समय-समय पर उस कृतज्ञता को प्रकट भी करना चाहिए। जल की एक अंजलि, दीपक या पुष्प से श्राद्ध किया जा सकता है। श्राद्ध में भावना ही प्रधान है। श्रद्धा भावना का हमें कभी परित्याग नहीं करना चाहिए। श्रद्धा की परंपरा समाप्त हो जाने पर तो पिता को कैद कर लेने वाले औरंगजेब ही चारों ओर दृष्टिगोचर होने लगेंगे।

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