आजकल के आधुनिक युग में विवाह का क्या उद्देश्य रह गया है?
इन दिनों एक ऐसी धारणा बन चुकी है कि विवाह दो अकियों का एक निजी मामला है, विवाह के द्वारा दो व्यक्ति अपनी कुछ विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था करते हैं।
जब यह धारणा बन जाए तो स्वाभाविक है कि विवाह के बाद दोनों अपनी उन आवश्यकताओं की यथाशीघ्र अधिक से अधिक पूर्ति की आकांक्षा करें तथा ऐसा न होने पर रुष्ट-क्षुब्ध रहें। इस स्थिति में पुरुषप्रधान समाज में पुरुष की अपेक्षाएँ अधिक बढ़ी-चढ़ी होती हैं। उसके मन-मस्तिष्क में आवश्यकताओं की एक लंबी सूची विद्यमान रहती है और वह उनकी पूर्ति के प्रति अत्यधिक आग्रही होता है। उदाहरणार्थ वह चाहता है कि पत्नी मेरी मित्र व संगिनी हो, बच्चों की सुयोग्य माता हो, कुशल रसोइया हो, घर को साफ-सुथरा रखने में अच्छे से अच्छे सफाई कर्मचारी से बढ़कर हो, रखवाली में चौकीदारों के कान काटे, बचत करने में दक्ष हो और सभी आवश्यक खरचों में भी कंजूसी न करें। जब उसका अपना सिर पोड़ा से फटा जा रहा हो, तब भी पति को सामने देखते ही खिल उठे, मधुर बातें करे, पति के किसी भी कार्यक्रम में व्यवधान न आने दें। मात्र वाणी में ही खीज न आने दे, इतने से काम नहीं चलेगा, उदास भी न दिखे।
विवाह का उद्देश्य
विचार करने पर स्पष्ट होगा कि इस संपूर्ण चिंतनक्रम में दोहरा दोष है। पहला दृष्टिदोष तो आधार को लेकर ही है। विवाह का उद्देश्य दो व्यक्तियों की कुछ विशेष आवश्यकताओं को पूरा करना नहीं है, अपितु यह दोनों के निरंतर विकास के लिए एक समवेत संकल्प है। यह विकास जिस समाज में और जिस कालखंड में होगा, उससे भी दोनों का जीवन प्रभावित होगा। समाज और युग-प्रवाह से वे अद्भुते नहीं रह सकते तथा उनके व्यक्तित्व का प्रभाव समाज और युगधारा पर किसी न किसी अंश में पड़े बिना नहीं रह सकता। अतः विवाह स्वाद और मौज-मजे की व्यवस्था के लिए नहीं, अपितु आत्मपरिष्कार के लिए किया जाता है। यह तथ्य ध्यान में न रहा और विवाह के समय मन उन सपनों तथा आकांक्षाओं में ही इबता-उत्तराता रहा, जो कल्पना मैं तो मोहक आकर्षक प्रतीत होती हैं, किंतु जिनके डंक बहुत जहरीले होते हैं तो विवाह के बाद उन सपनों और आकांक्षाओं के डंक जीवन में विष तथा पीड़ा की ही वृद्धि करेंगे। यह निश्चित है कि अधिकार और भोग की प्रवृत्ति से प्रारंभ किया गया दांपत्य जीवन दुर्बलता तथा अतृप्ति तक ही ले जाता है। संयुक्त विकास की स्वस्थ भावना वहाँ कभी पनप नहीं पाती और उसके अभाव में उल्लास-आनंद जीवन से बहिष्कृत ही रहे आते हैं।
दोनों के इस आधारभूत दृष्टिदोष के साथ दूसरा वैचारिक दोष पुरुष की ओर से अधिक होता है। पत्नी से अधिकाधिक अपेक्षाएँ पालने वाला पति इस बात को भुला ही देता है कि पत्नी एक चेतन जीव है, उसकी अपनी सीमाएँ और इच्छाएँ हैं। वह यह भुला देता है कि जो उसके साथ आ जुड़ी है, वह एक साधारण मनुष्य ही है। उसमें आशाएँ-आकांक्षाएँ ही नहीं, दुर्वलताएँ और अपूर्णताएँ भी होंगी। उसकी कार्यशक्ति तथा सहनशक्ति दोनों की सीमाएँ होंगी। वह कर्तव्यों की साकार मूर्तिमात्र नहीं हो सकती, साथ ही अधिकारों की मुखर इच्छुक भी हो सकती है। भ्रमण, विनोद, मनोरंजन और विश्राम की उसकी भी आवश्यकता उतनी ही है, जितनी पति की। इन तथ्यों को विस्मृत रखा गया तो फिर वैवाहिक जीवन में तनाव और हताशा ही बढ़ेगी।
विवाह क्यों किया जा रहा है?
इसीलिए विवाह की जिम्मेदारी ओढ़ने के पूर्व यह विचार कर लेना और उसे सदा स्मरण रखना आवश्यक है कि विवाह क्यों किया जा रहा है? क्या वह एक नाटक है ? राग-रंग, मजा मौज, मनोविनोद का साधनभर है? अपने निजी सुख के लिए एक व्यक्ति के शोषण का अधिकार पाने की वह एक चालाकी मात्र है? इच्छानुकूल वासनातुष्टि हेतु उसकी व्यवस्था है? यदि ऐसा है तो इस विवाह से जिस देह-सुख की कल्पना की जा रही है, वह भी मिलने वाला नहीं। मनःतुष्टि और उल्लास आनंद की तो कोई संभावना ही नहीं। कर्तव्य और उत्कर्ष के सात्त्विक संकल्प से किया गया विवाह ही संतोष तथा प्रसन्नता दे सकता है और प्रगति को ओर ले जा सकता है।
विश्व-व्यवस्था ऐसी है कि यहाँ कुछ दिए बिना कभी कुछ मिलता नहीं। पत्नी से सुख संतोष पाने वाले को उसके सुख-संतोष की भी चिंता करनी होगी, तभी आदान-प्रदान का यह क्रम जारी रह सकता है। पति की इच्छा-आकांक्षा के अनुरूप पत्नी ढले, इसके लिए पत्नी की इच्छाओं- रुचियों के प्रति भी समझदारी और सामंजस्य का भाव विकसित करना होगा। पत्नी की मधुर छवि से मुग्ध होने के पूर्व उस माधुर्य को निर्मित कर सकने वाले आधार जानने होंगे। फिर पत्नी में कोई भी दोष-दुर्बलता दिखे ही नहीं, ऐसी कल्पना भी प्रवंचना ही सिद्ध होगी। उसके साथ सहिष्णु होना होगा और दुर्बलताएँ धीरे-धीरे हो दूर हो सकती हैंः यह स्मरण रखना होगा। अपनी दुर्बलताएँ भी देखनी होंगी।
विवाह के उद्देश्य का विचार कर लेने का अर्थ उसके परिणामों कार विचार कर लेना है। यदि विवाह का उद्देश्य उच्छृंखल यौन-जीवन जीना है तो दांपत्य जीवन की उस स्थायी अतृप्ति के लिए भी तैयार रहना चाहिए, जो आज पश्चिमी नर-नारी की भाग्यरेखा ही बन गई है। बाद भावनाभिक उद्वेग विवेकरहित है तो उससे सघनता नहीं, दुराव ही बढ़ेगा। शरीरों की भिन्नता मिटा डालने की काका अर्थ यदि शारीरिक सामीप्य तक सीमित रह गया तो उससे प्राणों की घुलनशीलता संभव नहीं और तब दो व्यकिश्यों के संयोग से उस तीसरे व्यक्तित्व के निर्माण को भी संभावना नहीं, जो कि दांपत्य जीवन की वास्तविक उपलब्धि है। जब दोनों को प्रकृति में सामंजस्य होगा, तभी उनमें पूर्णता की अनुभूति होगी। अपने-अपने सुख की कामना को प्रधानता देते रहने पर दोनों को दुःख और विषाद हो मिल सकता है।
पति के कर्तव्य
पति अपनो अक्षमताओं और विफलताओं से उत्पन्न खीज को पदि पत्नी पर उतारता है तो उसकी प्रतिक्रिया भी अवश्यंभावी है। दुर्भावों को झंझा से दोनों हृदयों की ज्योति शिखा लड़खड़ाने लगती है। पति को यह सदा स्मरण रखना हो चाहिए कि वह पत्नी का अंतरंग निकटतम सहचर है। उसकी भावनाओं, संवेदनाओं को सबसे अधिक उसे ही समझना चाहिए। उसके स्वास्थ्य, शक्ति और क्षमता की उसे सदा जानकारी रखनी चाहिए और आवश्यक सहायता करनी चाहिए। पत्नी के जीवन को सदा उच्च मापदंडों पर कसना, किंतु स्वयं की त्रुटियों के प्रति मन में सदा स्पष्टीकरण तैयार रखना पति के व्यक्तित्व की भारी दुर्बलता है। सामान्यतः पति की शिक्षा पत्नी से अधिक होती है, उसकी दुनिया देखने का अनुभव भी अधिक ही होता है, अपने को वह पली से अधिक बुद्धिमान भी मानता है, ऐसी स्थिति में संयम, संतुलन और व्यवहारकुशलता की उसी से अधिक आशा की जानी चाहिए, किंतु स्थिति उलटी है। पुरुष बाहर भले ही व्यावहारिक बुद्धि का परिचय दे, पर घर में वह तुनकमिजाज ही बना रहता है। छोटी-छोटी कमियाँ उसे कुद्ध कर देने को पर्याप्त होती हैं। तिल का ताड़ बनाने की प्रतिक्रिया में सदा कटुता उत्पन्न होती है। पत्नी के भी बुद्धि होती है और साथ ही भावना भी। अंतर्दृष्टि की, भावुक संवेदना को मात्रा तो उसमें पति महोदय से भी अधिक रहती है। वह भी इस बात पर अधिक ध्यान देने लगती है कि पति महोदय मुझे तो सेवाभावना, संतुलन, स्नेह, कुशलता, दक्षता आदि का उपदेश देते रहते हैं, पर स्वयं इनमें से किसी भी गुण को अपनाने के प्रति कोई उत्साह नहीं रखते। यह क्षुद्र स्वार्थपरता उस समय अधिक कसकने लगती है, जब पति के प्रत्येक व्यवहार में यह भावना झलकती है कि मैं “बुरा होऊँ या भला, परंतु पला को तो देवी ही होना चाहिए। मुझे उसको भावतृप्ति करने को आवश्यकता नहीं, उसका ही सर्वोपरि कर्त्तव्य मेरी सेवा- पूजा करते रहना है।” आज के युग में जब चारों ओर समतापूर्ण व्यवहार की माँग बढ़ती जा रही है, पत्नी के प्रति ऐसी क्रूर सामंती धारणाएँ पालने वाले पति जीवन में आनंद की आशा व्यर्थ ही रखते हैं। संस्कारी नारी में अभी भी पति के प्रति श्रद्धा का भाव गहराई तक अंकित रहता है, किंतु इस भाव को सद्भावना तथा सद्व्यवहार से सींचना, हरा- भरा रखना और विकसित होकर जीवन में सुरभि तथा तृप्ति बिखेरने की सामर्थ्य पैदा करना पति का कर्तव्य है। पति द्वारा ऐसा व्यवहार तभी संभव है, जब वह याद रखे कि पत्नी उसकी जीवन-सहचरी है, एक चेतन प्राणी है। उसके सिर्फ शरीर नहीं है, मन व आत्मा भी है। मात्र शरीर ही होता तो वह वैसा सुख और तृप्ति भी न दे पाती, जो प्राणों को स्पंदित व पुलकित कर रसमय तथा ऊर्जस्वी बना देने में समर्थ है। भाव-संवेदनाओं को प्रभावित कर सकने और उनमें उभार ला पाने की क्षमता नारी के आंतरिक सौंदर्य का ही परिणाम होता है, देह-यंत्र का नहीं। अतः नारी के मनः क्षेत्र और आत्मिक क्षेत्र की देख-भाल, चिंता तथा सेवा- सहयोग का दायित्व भी पति का ही है। इस दायित्व का निर्वाह करने की प्रेरणा तभी उत्पन्न होती है, जब विवाह का उद्देश्य मात्र शरीरों का मिलन नहीं, वरन दो आत्माओं का सघन सहयोग और एकात्म हो जाने की प्रखर इच्छा हो।
पति और पत्नी दोनों के कर्तव्य
पति और पत्नी, दोनों के स्वभाव में मृदुलता दांपत्य जीवन के लिए अत्यधिक आवश्यक है। परिश्रम की प्रवृत्ति भी दोनों में होनी चाहिए, अन्यथा आलस्य सभी गुणों को उदरस्थ कर जाएगा। दांपत्य जीवन का वरण एक नई चुनौती है। वह अधिक परिश्रम की अपेक्षा रखता है। आलस्य तो पति-पत्नी, दोनों की शक्तियों को घटाता तथा नष्ट करता है। प्रारंभ में यह आलस्य, हो सकता है, मिलन की अधिकाधिक आकांक्षा के रूप में उभरे, किंतु इसमें सतर्कता आवश्यक है। किसी भी प्रिय से प्रिय कार्य की समय-सीमा बाँधना जीवन में आवश्यक होता है। आजीविका-अर्जन के बाद का संपूर्ण समय यदि मिलन या गपशप के नाम पर आलस्य-प्रमाद में बिताया जाता रहा तो इससे निश्चित ही कुछ दिनों बाद दोनों को ऐसा लगने लगेगा कि विवाह से उनके व्यक्तित्व का स्तर बढ़ने के बजाय घटा है और तब उनमें खोज तथा कलह का उभार संभव है। अतः परिश्रमशीलता की आवश्यकता भी विवाह के बाद भली भाँति स्मरण रखनी चाहिए। यह न भूलना चाहिए कि विवाह का उद्देश्य मात्र साथ-साथ बैठना लेटना नहीं, साथ- साथ आगे बढ़ना भी है।
परिश्रम के साथ ही दोनों में आगे बढ़ने के लिए समझौते की भावना आवश्यक है। मनुष्य की अपनी सीमाएँ हैं। सभी में कुछ न कुछ कमी होती है। छोटी-छोटी भूलों को तूल देकर जीवनभर के साथी से बिगाड़ पैदा कर लेना हानिकारक सिद्ध होगा। दोष-दर्शन से जीवन दुःख, क्लेश, कठिनाइयों और कड़आहट से भर जाएगा। उदारता और समझौते की भावना तथा गुणग्राहकता के बिना गृहस्थ जीवन का आनंद नहीं मिल सकता। पति पत्नी की कोमलता, भावुकता, संवेदनशीलता तथा समर्पण जैसे दुर्लभ गुणों का मूल्य समझकर उनके प्रति सदा कृतज्ञ रहे और पत्नी पति के गुणों के विकास संवर्द्धन का निरंतर प्रयत्न करती रहे तो दोनों का जीवन तृप्ति, उल्लास और आनंद के अक्षय कोष से भरा रहेगा। यही तो विवाह का प्रयोजन है।