पंचचिकित्सा में उपवास का महत्व
पंचचिकित्सा में उपवास को सबसे महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। शरीर में कोई भी रोग हो, उसकी कैसी भी चिकित्सा करनी हो, सबसे पहले दो-चार दिन का उपवास कर लेना अनिवार्य है।
उपवास का उद्देश्य
प्रत्येक रोग शरीर में विजातीय द्रव्य या मल की वृद्धि का परिणाम होता है। इसलिए रोग मिटाने का उपाय यही है कि उस मल को बाहर निकालकर शरीर की शुद्धि की जाए और शुद्धि का पहला उपाय उपवास ही है।
उपवास के दौरान क्या होता है?
जब हम भोजन बंद कर देते हैं, तो दस-पाँच घंटे में हमारा आमाशय बिलकुल खाली हो जाता है और शरीर की जो प्राणशक्ति भोजन को पचाकर रस रक्त बनाने में लगी रहती है, वह इस कार्य से छुट्टी पा जाती है और शरीर की सफाई करने के काम में लग जाती है।उपवास के दौरान शरीर के सभी अंग सफाई के काम में जुट जाते हैं। उपवास के समय केवल गुदामार्ग से ही मल नहीं निकलता, वरन आँख, कान, नाक से भी मैल निकलने लगता है। जीभ और दाँतों के ऊपर भी मैल की तह जम जाती है। चर्म के रोमकूपों द्वारा मल का कुछ अंश निकलने से पसीना भी बदबूदार हो जाता है। पेशाब में पीलापन बढ़ जाता है और उसमें कड्आपन आ जाता है। और तो क्या, साँस में भी स्पष्ट रूप से बदबू जान पड़ती है। इस प्रकार जरा फुरसत पाते ही, शरीर के सभी अंग सफाई के काम में जुट जाते हैं। इस कारण इन दिनों त्वचा और इंद्रियों को जल्दी-जल्दी साफ करते रहना आवश्यक होता है।
उपवास के दौरान कष्ट
उपवास करने में दूसरे अथवा तीसरे दिन कुछ अधिक कष्ट जान पड़ता है। किसी-किसी को उबकाई (मितली) आती जान पड़ती है। पर यह कोई हानि की बात नहीं, दो-एक दिन में स्वयं ही मिट जाती है।
रसाहार
जो लोग शारीरिक या मानसिक दृष्टि से निर्बल हैं, उन्हें एक-दो दिन के उपवास के बाद ही, जब इच्छा हो, तब फलों का रस लेना आरंभ कर देना चाहिए। यह रसाहार कहलाता है और इससे भी उपवास का उद्देश्य पूरा हो जाता है, यद्यपि उसमें समय कुछ अधिक लगता है।संतरा, मौसमी, मीठा नीबू, अंगूर, अनार आदि का एक-दो छटाँक (५०-१०० मिली०) रस दिन में ४-५ बार ले सकते हैं। यदि ये फल अधिक महँगे हों अथवा मिलते न हों, तो टमाटर और अन्य तरकारियों का रस भी लिया जा सकता है। जो तरकारियाँ कच्ची खाई जा सकती हैं, उनका रस कच्ची अवस्था में निकाल लिया जाए और जो पकाकर खाई जाती हैं, उनको उबालकर रस निकाल लें। पर इस बात का ध्यान रखें कि रस में ठोस भाग जरा भी न आने पाए। खूब अच्छी तरह से छना हुआ पानी के जैसा रसमात्र ही हो। तरबूज का रस या नारियल का पानी भी लाभदायक रहता है। अगर इनमें से कुछ भी न मिल सके या कोई अन्य कठिनाई जान पड़े, तो मठा का प्रयोग कर सकते हैं। नमक, चीनी और मिर्च-मसालों का इस रसाहार के साथ प्रयोग नहीं करना चाहिए। यदि शाक का रस बहुत अस्वादिष्ट जान पड़े, तो उसमें थोड़ा नमक मिलाया जा सकता है। साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यह रसाहार भी परिमित मात्रा में किया जाए। बहुत अधिक पेट भर लेने से उपवास का उद्देश्य नष्ट हो जाता है।
उपवास के नियम
साधारण रीति से स्वास्थ्य प्राप्ति के लिए उपवास का अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना ठीक रहता है। दो-तीन दिन का पूरा उपवास करके फिर चार-पाँच दिन फलाहार पर रहना चाहिए और उसके बाद अन्नाहार शुरू करके एक सप्ताह में उसे पूर्ण मात्रा तक पहुँचाना चाहिए। जैसे चांद्रायण व्रत में एक-एक ग्रास बढ़ाकर १५(15) दिन में पूरा भोजन करने लगते हैं, वैसी ही विधि से उपवास में भी काम लेना चाहिए।उपवास के बाद भारी,स्थूल ,कब्ज करने वाली खुराक, अधिक मात्रा में ले ली जाएगी, तो उससे बड़ी हानि की संभावना है। इसलिए उपवास को धीरे-धीरे तोड़ना और खुराक को क्रमशः बढाना चाहिए। पहले दिन केवल फलों का रस लें, दूसरे दिन रस मात्रा कुछ बढ़ा दें। तीसरे दिन गूदेदार फल लें। चौथे दिन खजूर, खरबूजा, टमाटर, गाजर आदि ले सकते हैं। पाँचवें दिन उबली हुई तरकारियाँ और छठे दिन दलिया आदि खाना ठीक रहता है। इस प्रकार सप्ताह में साधारण भोजन तक पहुँचना निरापद रहता है। जिन लोगों को माफिक हो, वे इस सप्ताह में दूध भी ले सकते हैं। ताजा धारोष्ण दूध सबसे अच्छा माना गया है। यदि ज्यादा देर का दूध हो, तो उसे गरम कर लेना चाहिए। ज्यादा देर तक खौलाने से दूध के पौष्टिक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं। दूध में मीठा मिलाना ठीक नहीं। इसी प्रकार एक बार के भोजन में अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थ खाना भी हानिकारक है। कई दाल, कई शाक, मिठाई, चटनी, अचार, फल, खीर, दही, रोटी, चावल आदि बहुत- सी चीजें एक ही साथ खा लेने से न तो भोजन ठीक तरह से पचता है और न उससे अच्छा रक्त ही बनता है। इसलिए एक बार के भोजन में रोटी-साग, रोटी-दाल, चावल-दाल, दलिया-दाल आदि कोई भी दो चीजें लेना ठीक रहता है।
उपवास के लाभ
उपवास के निम्नलिखित लाभ हैं:
1.शरीर की सफाई होती है।
2.अनेक रोग जैसे दमा, रक्तचाप, बवासीर, एक्जिमा, मधुमेह आदि का उपचार होता है।
3.शारीरिक और मानसिक शक्ति बढ़ती है।
उपवास के भ्रम
उपवास के संबंध में लोगों में कितनी ही तरह ही भ्रांतियाँ देखने में आती हैं। कुछ लोग उपवास को एक प्रकार का भूखों मरना मानते हैं।दोनों अवस्थाओं में मनुष्य भोजन से वंचित हो जाता है। तो भी इन दोनों अवस्थाओं में जमीन-आसमान का अंतर है। उपवास तब किया जाता है, जब शरीर को भोजन की आवश्यकता नहीं होती, उसके भीतर पहले से हो अधपचा, सड़ा भोजन मल रूप में भरा रहता है। पर भुखमरी उस हालत को कहा जाता है, जब शरीर को भोजन की बहुत आवश्यकता हो,फिर भी मनुष्य न खाए।
उपवास का शरीर पर प्रभाव
जिह्वा-जैसे ही उपवास शुरू किया जाता है, तुरंत ही जिह्वा पर मैल जमना आरंभ हो जाता है और जैसे-जैसे उपवास बढ़ता जाता है, इस मैल का परिमाण और बदबू बढ़ती जाती है। जब तक विजातीय द्रव्य निकलता रहेगा, तब तक जबान पर मैल जमता रहेगा। पर जब मैल समाप्त हो जाएगा, तब जिह्वा का रंग साफ होकर गुलाबी हो जाएगा, जैसा कि साधारणतः कभी देखने में नहीं आता। यह जिह्वा का परिवर्तन उसी समय होता है, जब उपवास पूरा होकर ठीक भूख लगने लगती है। यह जिह्वा का मैल एक ऐसा चिह्न है, जिससे रोगी की अवस्था का ठीक पता सहज में लग जाता है।
श्वास-उपवास आरंभ के बाद ही श्वास में भी अंतर पड़ जाता है और उसमें एक प्रकार की खराब गंध आने लगती है, जो उपवास भर जारी रहती है। जिह्वा के मैल और श्वास की बदबू में सदैव संबंध रहता है। मैल की तह जितनी ही मोटी होगी, श्वास की बदबू भी उसी हिसाब से अधिक होगी। इससे यह प्रकट होता है कि हमारे फेफड़े भी भीतर से मैल को अधिकाधिक परिमाण में बाहर फेंकने का प्रयत्न कर रहे हैं। इस तरह हमारे फेफड़े दिन-रात गंदी हवा को निकालकर बहुत अधिक मैल को प्रतिदिन बाहर निकाल देते हैं। जैसे-जैसे उपवास के दिन बढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे ही श्वास की बदबू भी बढ़ती जाती है। कभी-कभी तो वह बहुत ही तीव्र और असहनीय हो जाती है। यह साँस कुछ मीठी-मीठी जान पड़ती है, पर उसमें स्वास्थ्य की ताजगी का मीठापन नहीं होता, वह क्लोरोफॉर्म की तरह मीठी-सी जान पड़ती है।
तापमान -उपवास का प्रभाव तापमान पर दो तरह से पड़ता है। अगर वह सामान्य (नॉर्मल) से अधिक होता है, तो उपवास के साथ-साथ कम होता जाता है। यदि तापमान सामान्य से कम होता है, तो वह उपवास के प्रभाव से बढ़ जाता है। जैसे उपवास के आरंभ करने के समय रोगी का तापमान ९४(94) डिगरी फारेनहाइट हो, तो वह क्रमशः बढ़कर ९८ (98)डिगरी फारेनहाइट तक पहुँच जाएगा। यह बात कुछ आश्चर्यजनक जान पड़ती है कि जब जरा भी भोजन ग्रहण नहीं किया जा रहा है और मांस घटता जाता है, फिर भी तापमान कैसे बढ़ जाता है? इसका कारण यह होता है कि तापमान का कम होना जीवनीशक्ति की कमी का चिह्न होता है यह कमी रक्तवाहिनी नाड़ियों के मल से भर जाने के कारण होती है। उपवास के फलस्वरूप जैसे-जैसे मल का शोधन होकर नाड़ियाँ खुलती जाती हैं, वैसे-वैसे ही रक्त संचरण में वृद्धि होती है और परिणामतः तापमान बढ़ जाता है।
वजन का घटना-बढ़ना -इसमें संदेह नहीं कि उपवास के फलस्वरूप मांस की क्षति होती है। आरंभ में यह कमी बहुत अधिक जान पड़ती है, पर जैसे-जैसे उपवास बढ़ता जाए, कमी का परिमाण कम होता जाता है। यह बात स्वाभाविक भी है, क्योंकि आरंभ में शरीर की चरबी तेजी से घटती है, पर उसके बाद प्रकृति अन्य दूषित तत्त्वों को धीरे-धीरे निकालती है और घटने का परिमाण कम हो जाता है। अनेक बार ऐसा देखने में आता है कि उपवास के अंतिम दिनों में वजन का घटना बिलकुल बंद हो जाता है।
उपवास एक आत्म-शुद्धि का अभ्यास है। यह न केवल शरीर को बल्कि मन को भी शुद्ध करता है। उपवास के अनुभव को जीवनशैली में बदलाव लाने के लिए प्रेरणा लेनी चाहिए और प्राकृतिक चिकित्सा के पथ पर चलकर एक स्वस्थ और सुखी जीवन का निर्माण करना चाहिए।अंत में याद रखें, स्वास्थ्य आपके हाथों में है। छोटे-छोटे बदलावों के साथ, आप एक निरोगी और संपूर्ण जीवन की ओर कदम बढ़ा सकते हैं। उपवास इस यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है, जिससे प्राप्त ज्ञान और अनुभव को जीवन में आगे भी साथ लेकर चलें।