यूं तो रोगों को दूर करने की एलोपैथी, होम्योपैथी, यूनानी, आयुर्वेदिक आदि अनेकानेक चिकित्सा पद्धतियाँ हैं, तथापि उनके उपचार के लिए उपवास एक जबरदस्त प्राकृतिक विधान है। प्राकृतिक चिकित्सकों ने यह सिद्ध कर दिखाया है कि उपवास, व्यायाम आदि से घातक रोग भी दूर किए जा सकते हैं। अमेरिका के डॉ० एडवर्ड ने तो अपने बच्चे की ‘डिफ्थीरिया’ जैसी विकट बीमारी भी उपवास के द्वारा ठीक की थी। वस्तुतः रुग्णावस्था में प्रकृति ही हमें उपवास की प्रेरणा
देती है। रोग की तीव्रता होने पर तनिक भी भूख नहीं लगती। परंतु हम प्रकृति से इतने दूर हो गए हैं कि उसकी आवाज सुनना ही नहीं चाहते। रोग की अवस्था में, खाने की तनिक भी इच्छा न होते हुए भी, पेट मेंकुछ न कुछ दूँसते रहते हैं, जिससे कि ‘कमजोरी’ न आए। परंतु हम यह भूल जाते हैं कि रोगकाल में शरीर में अनेक विजातीय द्रव्य एकत्र हो जाते हैं। जुकाम, बुखार, दस्त, दरद आदि के माध्यम से प्रकृति अंदर की गंदगी को शरीर के बाहर निकालती है। ऐसे समय में कुछ न कुछ खाते रहना विसर्जन की प्राकृतिक क्रिया में अवरोध पहुँचाना है।
पशु-पक्षी आहार-विहार में प्राकृतिक नियमों की अवहेलना नहीं करते, अतएव वे स्वस्थ रहते हैं। ये शारीरिक रोगों से कदाचित् ही पीड़ित होते हैं। यों पारस्परिक झगड़ों में उन्हें प्रायः चोट लगती रहती है। यदि उन्हें कोई बीमारी हो जाए तो तुरंत खाना बंद कर देते हैं। घर के पालतू पशुओं-गाय, घोड़ा, कुत्ता, बिल्ली, बकरी आदि में भी इस वृत्ति को देखा जा सकता है। चाहे हम उन्हें खिलाने का कितना ही प्रयास करें, परंतु बीमार होने पर वे भोजन की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते। पूर्णतः रोगमुक्त हो जाने पर ही खाना प्रारंभ करते हैं। परंतु आज का सभ्य कहलाने वाला मनुष्य स्वास्थ्य रक्षा में पशुओं से भी नीचे गिर गया है। सही अर्थों में स्वस्थ मनुष शायद ही कोई दिखाई पड़ता हो, अन्यथा सब किसी ना किसी छोटी-बड़ी बीमारी से आक्रांत दिखाई देते हैं।
अमेरिका के प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक डॉ० एरनाल्ड टुरहिट ने अपने प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध कर दिखाया कि उपवास काल में चोट तथा घाव अत्यंत शीघ्रता से भरते हैं। उन्होंने अपने हाथ पर चाकू से एक गहरा घाव कर लिया तथा एक सप्ताह तक क पूर्णत उपवास रखा। इस दौरान उन्होंने जल के अतिरिक्त और कुछ नहीं लिया। पाँच-छह दिन में ही उनका घाव ख़ुश्क हो गया और उस पर पपड़ी उतर गई। ना तेज दरद हुआ ना मवाद पड़ा, ना सूजन आई। फिर कुछ दिनों के बाद उन्होंने हाथ पर उतना ही गहरा घाव किया और भोजन में अन्न और फल का प्रयोग किया। इस बार घाव ठीक होने में दुगना समय लगा। उससे खून और मवाद भी निकला तथा दरद भी हुआ। कुछ समय उपरांत तीसरी बार उन्हें फिर घाव किया और भोजन में मांस और मदिरा का प्रयोग किया । परिणाम यह हुआ कि घाव से बहुत सा खुन निकला। सूजन और मवाद इतना अधिक बढ़ गया कि सेप्टिक होने की नौबत आ गई। फिर उन्होंने तीन दिन का उपवास किया, तब कहीं जख्म खुश्क हुआ। इसका कारण स्पष्ट करते हुए डॉ० एरनाल्ड ने बताया कि उपवासकाल में पाचन से अवकाश पाकर शरीर को पूरी शक्ति घाव भरने में लग जाती है, अतएव वह शीघ्र ठीक हो जाता है। साथ ही जैसा हम भोजन करते हैं, वैसे ही तत्त्व शरीर को मिलते हैं। मांस-मदिरा जैसे अभक्ष्य पदार्थ शरीर में विष उत्पन्न करते हैं, जिनका प्रभाव घाव तथा बीमारी पर भी पड़ता है। यही कारण था कि जब उन्होंने मांस का प्रयोग किया, तो उनका घाव सड़ने तक की नौबत आ गई।
साधारणतः लोगों की धारणा है कि उपवास शरीर के लिए हानिकारक है। वे सोचते हैं कि भोजन न करने से शरीर कमजोर हो जाता है। उनकी दृष्टि में उपवास करने और भूखों मरने में कोई अंतर नहीं है। अपने इस दृष्टिकोण के कारण वे समय-कुसमय भक्ष्य-अभक्ष्य पेट में भरते हैं और बीमार पड़ते हैं।
अमेरिका के डॉक्टर एडवर्ड डेनीवी ने यह सिद्ध किया है कि प्रातःकाल का नाश्ता स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। उन्होंने ‘नाश्ते के उपवास’ से ही अपने बहुत से रोगी ठीक किए। डॉ० डेवी का कथन है कि 50 प्रतिशत रोग और विशेषतः पेट के रोग प्रातःकालीन नाश्ते से होते हैं। वस्तुतः होता यह है कि रात्रि में पाचन-यंत्र अत्यंत मंद गति से कार्य करते हैं। प्रातः तक कार्य पूरा भी नहीं कर पाते कि पुनः उन पर भार लाद दिया जाता है। सुबह हमें नाश्ते के समय विशेष भूख भी नहीं रहती, हम अभ्यासवश बिना भूख के ही नाश्ता कर लेते हैं। परिणाम यह होता है कि दोपहर के भोजन के समय खुलकर भूख नहीं लग पाती। बिना पूरी तरह भूख लगे भोजन करने से कब्ज, अपच आदि अनेक बीमारियों का डर रहता है।
जब ‘नाश्ते का उपवास’ ही इतना अधिक लाभदायक है, तो ‘पूर्ण उपवास’ की महत्ता तो और भी बढ़ी चढ़ी है। इससे नए-पुराने प्रायः सभी रोगों का उपचार हो सकता है।अनेक रोग तो ऐसे होते हैं, जिन्हें डॉक्टर-वैद्य असाध्य घोषित कर देते हैं, परंतु उपवास से वे ठीक हो जाते हैं। दमा, रक्तचाप, बवासीर, एक्जिमा, मधुमेह आदि रोग-जो कि डॉक्टरों की दृष्टि में पूर्णतः दूर होने संभव नही हैं, उपवास के प्राकृतिक उपचार से समूल नष्ट होते पाए गए हैं। इसीलिये आजकल INTERMITTENT FASTING भी प्रचलन में है। चिकित्सालयों में उपवास द्वारा बुखार, टायफॉइड, चेचक, खसरा, दस्त, सरदी-जुकाम आदि का भी स्वस्थ उपचार किया जाता है। औषधियों से रोग समूल नष्ट नहीं हो पाते। उस समय तो चले जाते हैं, परंतु अंत में विविध विकारों के रूप में फूटते हैं। प्राकृतिक उपचार से ऐसा होने का भय नहीं रहता।
न केवल हिंदू धर्म में अपितु इसलाम और ईसाई धर्म में भी उपवास को अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। महात्मा गांधी का कथन है कि विशुद्ध उपवास से शरीर, मन और आत्मा की शुद्धि होती है। उससे इंद्रियों का दमन होता है।
उपवास को जो इतना अधिक महत्त्व दिया गया है, वह निराधार नहीं है। इससे अनेक प्रकार के शारीरिक तथा मानसिक रोगों पर हितकारी प्रभाव पड़ता है। प्राकृतिक चिकित्सकों का भी कथन है कि उपवास रखने से स्वास्थ्य सबल बनता है। वस्तुतः अधिक स्टार्च और चरबीयुक्त पदार्थों को खाने से शरीर में स्टार्च और चरबी जमा होती है, जिससे अनेक विजातीय द्रव्य उत्पन्न हो जाते हैं। इन विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालने में केवल उपवास ही सहायक होता है। उपवास से लाभ पहुँचता है, यह नितांत सत्य है; परंतु शरीर की प्रकृति को न समझा जाए और समझदारी से उसे न किया जाए, तो उपवास हानिप्रद भी सिद्ध होता है। उपवास या व्रत का अभिप्राय यह कदापि नहीं कि सारे दिन भूखे रहकर शाम को भारी-भरकम पदार्थ पेट में ठूंसते जाएँ। ऐसा करने से तो लाभ के स्थान पर हानि की ही संभावना रहती है। उपवासकाल में केवल जल का ही प्रयोग किया जाना चाहिए, अधिक हुआ तो फलों का रस या अन्य कोई तरल पदार्थ ले लिया जाए।
यह नियम नहीं बनाया जा सकता है कि कितने दिन का उपवास करना चाहिए। व्यक्ति की शारीरिक स्थिति तथा रोग के अनुसार ही निर्णय करना चाहिए। उपवास से प्रथम तो शरीर में एकत्रित विजातीय द्रव्य बाहर निकलते हैं, तदुपरांत शारीरिक शक्ति का ह्रास होना प्रारंभ होता है। इसका सीधा-साधा यही अर्थ है कि उतने दिन का उपवास रखना चाहिए, जितने दिन में शरीर से विजातीय द्रव्य बाहर हो जाएँ। उसके बाद उपवास चालू नहीं रखना चाहिए,अन्यथा स्वस्थ कोशाणु नष्ट होने लगेंगे।
उपवास काल में प्रायः शरीर का वजन कम होता जाता है और कुछ कमजोरी की अनुभूति होती है, परंतु मस्तिष्क या ज्ञानतंतु बिलकुल नहीं छीजते, अतएव मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है। नींद गहरी आती है। विचार भी सात्त्विक होते हैं।
उपवास प्रारंभ होने पर नियमानुसार भोजन से शरीर को शक्ति प्राप्त नहीं होती, अतएव इसके लिए अन्य उपाय काम में लाने चाहिए, यथा-शुद्ध वायु, सूरज का प्रकाश और शुद्ध जल का उपयोग। शुद्ध वायु में गहरी साँस लेने से प्राणवायु के स्पर्श से रक्त में पहले के उपस्थित विषैले तत्त्व दूर होते हैं। उपवास काल में कोई अप्राकृतिक खाद्य शरीर में नहीं जाता, अतएव अतिरिक्त विजातीय द्रव्य रक्त में नहीं मिलते जिससे रक्त की शुद्धि होती है। धूप स्नान से शरीर को अनेक विटामिन मिलते हैं तथा रोगों के कीटाणु नष्ट होते हैं। उपवासकाल में अधिक पानी पीना चाहिए, जिससे अधिक – मूत्र विसर्जन के माध्यम से शरीर से अधिक गंदगी बाहर हो। मूत्र गुरदों में रक्त से छनकर बनता है, अतएव रक्त में जल की अधिकता होने से अधिक गंदगी साफ होती है।
उपवास रोग के अनुसार २-३ दिन से लेकर निरंतर दो मास तक किया जा सकता है। एक सप्ताह से अधिक का उपवास लंबे उपवास की श्रेणी में आता है। लंबा उपवास अत्यंत सावधानीपूर्वक विधिवत् किया जाना चाहिए, अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि का भय रहता है।
लंबे उपवास तोड़ने में काफी सावधानी बरतनी चाहिए। नीबू के पानी या संतरे -मौसमी आदि के रस से उसे तोड़ना चाहिए। फिर एक दिन तक मौसम के फल लेने चाहिए। जितने दिन उपवास किया गया हो, उसके चौथाई समय तक फल लेने चाहिए, तदुपरांत अन्न खाना चाहिए। पर यह ध्यान रखना चाहिए कि उपवास के बाद पुनः गलत भोजन न लें। ऐसा करने पर उपवास-लाभ भी जाता रहेगा तथा शरीर शुद्ध हो जाने पर यदि विजातीय द्रव्य शरीर में जाएगा, तो पूरी मात्रा में वह शरीर के लिए हानिकारक होगा।