व्यायाम का महत्त्व

कोई देश जिस आधार पर अपनी आंतरिक शांति और बाहरी सुरक्षा बनाए रह सकता है, वह उसकी समर्थता ही है। राष्ट्रों के जीवन की तरह एक व्यक्ति की शांति और सुरक्षा के लिए भी सामर्थ्य अविच्छिन्न तत्त्व है। उसके अभाव में सुख और संतोष का जीवन नहीं जिया जा सकता।

यह समर्थता अन्न, वस्त्र, उद्योग, खनिज, विज्ञान, यातायात, सेना, शस्त्र, शासन, नेतृत्व आदि भौतिक समृद्धि के राष्ट्रीय स्वरूप में और नागरिकों में धन-जन साधनसंपन्नता के रूप में तो होनी ही चाहिए। साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हमारा उद्देश्य इतने मात्र से पूरा न होगा। वास्तविक समर्थता मनोबल के रूप में होती है। उसके बिना प्रचुर साधनसंपन्न होते हुए भी कोई राष्ट्र या व्यक्ति दुर्बल ही बना रहता है। चरित्र और मनोबल को हम एक साथ ही जोड़ देते हैं, क्योंकि बिना उच्च चरित्र के मनोबल और बिना प्रखर मनोबल के उच्च चरित्र हो ही नहीं सकता। चरित्र और मनोबल की सम्मिलित शक्ति ही वह वास्तविक समर्थता उत्पन्न करती है, जिससे व्यक्ति या राष्ट्र अजेय बनते हैं।

मन समर्थ तब हो सकता है, जब शरीर में भी प्रचुर सामर्थ्य भरी पड़ी हो। उसी प्रकार शारीरिक दृष्टि से बलवान व्यक्ति ही अपने चरित्र और नैतिक तत्त्वों की रक्षा कर सकते हैं। इससे प्रकट होता है कि मनोबल और आत्मबल या चरित्रबल दोनों के लिए अन्य आवश्यकताओं से भी अधिक स्वास्थ्य अनिवार्य है। स्वस्थ विचार और स्वस्थ आचरण वही कर सकता है, जिसका शरीर भी स्वस्थ हो। दुर्बल और क्षीणकाय व्यक्ति तो अपने अस्तित्व की भी भली प्रकार रक्षा नहीं कर सकता, आदर्श और सिद्धांत की रक्षा करना तो उसके लिए अपंग का पर्वत पर चढ़ने के समान ही कठिन समझना चाहिए।

इसलिए व्यक्ति और राष्ट्र की समग्र समर्थता के लिए स्वास्थ्य एक अविच्छिन्न तत्त्व है, जिसकी किसी देश, समाज और काल में उपेक्षा नहीं की जा सकती। स्वास्थ्य न रहेगा, तो न साहस रहेगा न और कुछ। शौर्य, उत्साह, पराक्रम, पुरुषार्थ, निरालस्यता, आत्मविश्वास, दृढ़ता इत्यादि गुणों का आविर्भाव स्वस्थ व्यक्तियों में ही संभव है। कमजोर शरीर तो कायरता, कापुरुषता, आलस्य, आत्महीनता, पराजय और परवशता का ही जन्मदाता होता है।

मानव जीवन एक संघर्ष या संग्राम है। जन्म के समय से ही हमको अनेक कठिनाइयों और अवांछनीय परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है और जब हम वयस्क हो जाते हैं, तो अनेक प्रकार की सामाजिक, आर्थिक और प्राकृतिक बाधाओं का निराकरण करते हुए जीवन में अग्रसर होना पड़ता है। इसके लिए शक्ति और साहस का होना अनिवार्य है। ऐसे तो रोते-झींकते, गिरते-पड़ते अनेक लोग जीवन के दिन पूरे कर लेते हैं, पर न उसका कोई महत्त्व समझा जा सकता है और न उसे मानव जन्म की सार्थकता कहा जा सकता है। हमारे जीवन का लक्ष्य तो अपना तथा समाज का हितसाधन करते हुए धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति माना गया है, पर वह ऐसी शक्तिरहित और परावलंबी स्थिति में रहने से कहाँ चरितार्थ किया जा सकता है ?

जीवनीशक्ति का आधार है- शरीर का भली प्रकार स्वस्थ और सशक्त रहना और समस्त अंगों का अपना-अपना कार्य सही तरीके से करते रहना। ऐसा होने से ही हमारा शरीर शक्तिशाली रहकर जीवन-संग्राम की विविध आवश्यकताओं तथा कर्त्तव्यों का पालन कर सकता है। स्वास्थ्य के सुदृढ़ रहने से ही सब प्रकार के कार्यों को ठीक तरह से कर सकने की क्षमता उत्पन्न होती है। मन प्रसन्न और उत्साहयुक्त रहता है, विचारों में संतुलन और स्थिरता रहती है और बुद्धि नए-नए तथा महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों की ओर अग्रसर होती है। इस दृष्टि से विचार करने पर यह निश्चय हो जाता है कि स्वास्थ्य ही हमारे जीवन की सबसे बड़ी पूँजी है और उसी के द्वारा हम जीवन में किसी प्रकार की उल्लेखनीय सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

पर इस प्रकार का उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त कर सकना और उसे सुरक्षित रख सकना आजकल थोड़े से ही लोगों के लिए संभव जान पड़ता है। बहुत से लोग तो सुदृढ़ स्वास्थ्य के रहस्य को जानते ही नहीं। वे समझते हैं कि दूध, घी आदि पौष्टिक पदार्थों के अधिक परिमाण में खाने से, समय-समय पर शक्तिवर्द्धक औषधियों (टॉनिक) आदि का सेवन करते रहने से शारीरिक शक्ति बढ़ सकती है। पर जब हम इस मार्ग पर चलने वाले सेठों, बड़े व्यवसायियों, उच्च सरकारी अफसरों के स्वास्थ्य पर दृष्टि डालते हैं, तो उनको प्रायः किसी न किसी शारीरिक व्याधि में ग्रस्त और डॉक्टरों के यहाँ प्रायः आते-जाते देखते हैं। इसका एक कारण तो शारीरिक श्रम के सभी कार्यों से दूर रहकर केवल दिमागी काम करते रहना और दूसरा कारण स्वच्छ हवा और खुले हुए वातावरणेजनी और पंखे के सहारे दिन भर काम करते हुए वातावरण की अपेक्षा बड़े नगरों के बीच बंद कमरों में रहना है। ये दोनों ही त्रुटियाँ स्वास्थ्य को निर्बल और दूषित बनाने वाली हैं।

प्राचीनकाल में स्थिति भिन्न थी। उस समय मशीनों का जरा भी प्रचार नहीं हुआ था और लिखने-पढ़ने संबंधी कामों की आवश्यकता भी बहुत कम पड़ती थी। इसलिए छोटे बड़े सभी को अपना-अपना काम स्वयं अपने हाथों से ही करना पड़ता था। दूसरे, उस समय कल-कारखानों अभाव होने से बहुत बड़े शहरों का अस्तित्व भी न था। इसलिए अधिकांश लोगों को ज्यादातर खुले वातावरण में रहने का अवसर सहज ही मिल जाता था। बस्ती के भीतर शौचालय नाममात्र को ही होते थे, इसलिए सभी छोटे-बड़े नित्यकर्मों से निवृत्त होने नगर और कसबों के बाहर ही जाते थे। इससे उनका टहलना और स्वच्छ वायु का सेवन भी हो जाता था। इस प्रकार के रहन-सहन से उनका स्वास्थ्य स्वभावतः ही ठीक बना रहता था।

वर्तमान आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों को देखतेहुए यह तो संभव नहीं जान पड़ता कि शहरों के वातावरण को बहुत अधिक बदला जा सके अथवा लोगों के जीवननिर्वाह के पेशों में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन किया जा सके। पर हम अपने खान-पान में उचित बदलाव करके और अपनी परिस्थिति के अनुसार किसी प्रकार का व्यायाम करके अपने स्वास्थ्य की उन्नति अवश्य कर सकते हैं। यह बात हम आरंभ में ही समझा देना चाहते हैं कि व्यायाम से हमारा आशय डंड, बैठक, कुश्ती, मुगदर आदि भारी व्यायामों से नहीं है। यह तो विशेष रूप से पहलवानों और फौजी लोगों के उपयुक्त है। सामान्य लोगों को तो ऐसे ही व्यायाम करने चाहिए, जिससे रक्त शुद्ध होकर उसका शरीर में आना-जाना उत्तम प्रकार से होने लगे और पाचन संस्थान के यंत्र अपना काम ठीक प्रकार से करते हुए आहार को उपयोगी रस और रक्त के रूप में परिवर्तित कर सकें। ऐसा व्यायाम बस्ती के बाहर किसी खुले स्थान में या घर के ही किसी ऐसे स्थान मेंकरना चाहिए, जहाँ की वायु अपेक्षाकृत शुद्ध और ताजा हो।

इन दोनों बातों के साथ अपनी मानसिक अवस्था को ठीक दशा में रखना आवश्यक है। विचारों की शक्ति अकथनीय है और यदि हम अपने मनोभावों को शुद्ध, परिष्कृत तथा आदर्श बनाने की चेष्टा करें, तो स्वास्थ्य तथा सौंदर्य की बहुत कुछ उन्नति कर सकते हैं। विशेष रूप से व्यायाम करते समय यह भावना भी करते रहना चाहिए कि इन क्रियाओं को करने से हमारे भीतर शक्ति की वृद्धि हो रही है। इससे हमारी दुर्बलता और त्रुटियाँ दूर होकर स्वास्थ्य की उन्नति हो रही है। हमको यह बात अच्छी तरह समक्ष लेनी बाहरी साधनों पर ही निर्भर नहीं है, वरन हमारे रहन-सहन, आचार-विचार और सवृत्तियों पर भी आधारित है। इसलिए हमको अपनी जीवनचर्या सदैव सरल, सादा और प्रकृति के अनुकूल रखनी चाहिए और अंतःकरण से भी कलुषित विचारों को दूर रखना चाहिए। इतने पर भी किसी भूल-चूक या अनिवार्य परिस्थितियों के कारण कोई खराबी पैदा हो जाए, तो उसे सरल व्यायाम अथवा टहलना आदि जैसे स्वाभाविक उपायों से दूर कर लेना चाहिए।

बहुत से लोग रोग और निर्बलता को भाग्य का दोष बतलाया करते हैं, पर यह एक बड़ी भूल है। स्वस्थ और अस्वस्थ रहना मनुष्य के अपने ही हाथ की बात है। जन्न लेते समय अधिकांश मनुष्य एक से ही होते हैं। छोटेपन में तीन-चार साल की आयु तक बच्चे के स्वास्थ्य को देख-रेख अवश्य उसके माँ-बाप का कर्तव्य होता है, तो भी उस समय तक कुछ मामलों को छोड़कर, अधिकांश की दशा में बहुत अधिक अंतर नहीं होता। पर उसके बाद जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है, बच्चा कुछ समझने-बूझने लगकर अपनी रुचि के अनुसार कार्य करने में स्वतंत्र होने लगता है, वैसे-वैसे ही उनकी स्थिति में अंतर पड़ने लगता है। कुछ व्यक्ति, बीस-पच्चीस वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते सांसारिक कर्तव्यों को पूरा करने में असमर्थ, स्थायी मरीज और संबंधियों के लिए भारस्वरूप बन जाते हैं, जबकि अन्य नव जीवन की उमंगों को लेकर बड़े-बड़े कामों के मनसुबे बाँधने लगते हैं और कुछ न कुछ उल्लेखनीय सफलता प्राप्त करके दिखा देते हैं।

इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों की स्थिति में जो महान अंतर पड़ जाता है, उसका मुख्य कारण उनका रहन-सहन, आचार-विचार, नियमितता अनियमितता आदि बातें हो होती हैं। जो व्यक्ति संयम और नियम का जीवन व्यतीत करते हैं, आरोग्यता के नियमों का पालन करते हैं, खान-पान में सावधानी करते हैं, वे नीरोग और दीर्घजीवी होकर मानव जन्म का सच्चा सुख प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत जो आलस, प्रमाद या उच्छृंखलता के वशीभूत होकर मनमाने ढंग से रहते हैं, जिह्वा और इंद्रिय का दुरुपयोग करते हैं, स्वास्थ्य संबंधी नियमों का उल्लंघन करते रहते हैं, वे प्रायः तन-मन को भ्रष्ट करके रोग और दोष के चंगुल में फैसकर आप ही जीवन को नष्ट करने के कारण बनते हैं।

वास्तव में आजकल लोगों में स्वास्थ्य के संबंध में बहुत से भ्रम फैले हुए हैं। बहुत से व्यक्ति तो इसका संबंध गरीबी अमीरी से लगाते हैं। वे समझते हैं कि जिनके पास काफी धन होता है, जिनको खाने के लिए खूब घी, दूध, मेवा आदि मिलते हैं, वे खूब हृष्ट-पुष्ट और मजबूत होते हैं। कुछ लोगों का ख्याल है कि जिनके माँ-बाप शक्तिशाली होते हैं, वे ही अधिक स्वस्थ और हट्टे-कट्टे होते हैं। ऐसे भी लोगों की कमी नहीं है, जो इसे भगवान और भाग्य के हाथ की बात समझते हैं और रोगों को दुर्भाग्य का कारण समझकर ग्रहों और देवी-देवता की पूजा करके स्वास्थ्य लाभ की चेष्टा करते रहते हैं।

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