गीता-माहात्म्य: जीवन जीने की कला (Gita-Mahatmya: Jeevan Jeene Ki Kala) – This title highlights the Gita-Mahatmya as an art of living

श्रीमद्भगवद्गीता के विषय में जो माहात्म्यपरक वंदना आती है, वहीं से इसका शुभारंभ होता है। भगवान श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास के मुख से निकला स्तुति का वाक्य है-

                गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः ।
                    या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता ।।

“जिसका गायन किया जा सके, ऐसा सुंदर काव्य है गीता। इसके गायन व मनन करने के बाद हमें अन्य शास्त्रों के विस्तार में जाने की क्या आवश्यकता है ? यह तो स्वयं पद्मनाभ भगवान विष्णु के मुखारविंद से निकली है, ऐसे में इसका माहात्म्य जितना बताया जाए, कम है।” जब हम पद को समझने का प्रयास करते हैं, तो ज्ञात होता है कि मात्र गीता का पाठ नहीं अर्थ एवं भावसहित उसे अंतःकरण में धारण कर लेना-मनन करना है। गीता एक दर्शन है, जीवन संजीवनी है। इसे जितनी बार पढ़ा जाता है, एक नया जीवन जीने का सूत्र हाथ लगता है। अतः इसे पौराणिक ढंग से मात्र श्लोकों के पाठ तक सीमित न रख इसे भगवान की वाणी समझते हुए आत्मसात करने का प्रयास किया जाना चाहिए, यह दैनंदिन जीवन में कार्य करने की शैली में अभिव्यक्त होना चाहिए, तभी गीता पाठ का महत्त्व है। इसी | श्रीमद्भगवद्‌गीता माहात्म्य प्रकरण में आगे आता है- “सर्वोपनिषदो । गावो दोग्धा गोपालनंदनः । पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।” अर्थात समस्त उपनिषद् गायों के समान हैं। उन गौमाताओं को दुहने का कार्य भगवान कृष्ण-गोपालनंदन ने किया है। पार्थ अर्जुन (पृथा के पुत्र होने के नाते) बछड़े के समान इस ज्ञानरूपी दुग्धामृत को पीने वाले के रूप में इसमें विद्यमान हैं। सारे उपनिषदों का निचोड़ गीती में है। योगिराज के रूप में स्वयं भगवान ने उस अमृत को इस काव्य के अठारह अध्यायों के सात सौ श्लोकों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। यही इस ग्रंथ के अति महत्त्वपूर्ण एवं वैशिष्ट्यपूर्ण स्थान का परिचायक है।

अदालत में शपथ ली जाती है तो गीता की। इस कारण कि गीता को हिंदू धर्म का प्रतिनिधि ग्रंथ माना गया है। मुसलिम कुरान की, ईसाई बाइबिल की शपथ लेते हैं तो उन्हीं के समकक्ष हिंदू धर्म में गीता को दिया है। सभी ज्ञानीजनों ने मिलकर गीता को ही हिंदू धर्म का प्रतिनिधि ग्रंथ मानकर कहा कि कसम गीता की ली जानी चाहिए। इसी से इस ग्रंथ के माहात्म्य का परिचय मिलता है। वेदों-उपनिषदों सबका सार- निचोड़ यदि कहीं एक स्थान पर है, तो वह गीता में है। प्रस्थान त्रयी के अंतर्गत ब्रह्मसूत्र, उपनिषदों के बाद श्रीमद्भगवद्‌गीता को लिया गया है। तीनों ही ग्रंथ भारतीय अध्यात्म के आधारभूत ग्रंथ हैं। इस पथ परआरूढ़ होने वाले के लिए विशेष स्थान रखते हैं।

भगवान कृष्ण के रूप में एवं कृष्ण द्वैपायन व्यास के रूप में चौबीस अवतारों में से दो अवतार द्वापर युग में हुए। दोनों ही गीता से जुड़े हुए हैं। श्रीकृष्ण ने गीता कही- श्री व्यास ने उसे काव्यात्मक रूप दिया उसे लिखा। दोनों ही विष्णु के अवतार हैं। श्री व्यास जी द्वारा महाभारत ग्रंथ भी लिखा गया है, जिसका एक अंग गीता को माना जाता है। महाभारत में अठारह पर्व हैं, जिनमें पूर्वार्द्ध में ६ पर्व हैं एवं उत्तरार्द्ध में बारह पर्व। कितना साम्य है- परिस्थितियों के इस वर्णन में, सात अक्षौहिणी सेना एक तरफ थी, ग्यारह अक्षौहिणी सेना दूसरी तरफ एवं दोनों के बाच महासमर का महाकाव्य है महाभारत । इसी में कही गई है गीता। ऋषि-मुनियों ने जितना कुछ तत्त्वज्ञान दिया है, आरण्यकों-गिरिगुहा-कंदराओं में दिए हैं, किंतु गीता जैसा तत्त्वज्ञान युद्ध के मैदान में दो सेनाओं के बीच खड़े होकर दिया गया है। इस ग्रंथ की विशिष्टता है। गीता में भी महाभारत के अठारह पर्वों की तरह अठारह अध्याय हैं, जिन्हें छह-छह अध्याय के तीन खंडों में बाँटा जा सकता है। पहले छह अध्याय कर्मयोग पर आधारित हैं, सातवें से बारहवें तक के अध्याय में भक्तियोग पर बड़ा मार्मिक विवेचन है तथा अंतिम छह अध्याय ज्ञानयोग की पराकाष्ठा तक ले जाकर अर्जुन को स्वधर्म की, युगधर्म की महत्ता बताते हुए उसके समर्पण पर समाप्त होते हैं। यों कर्म-भक्ति-ज्ञान की त्रिवेणी पूरी गीता में स्थान-स्थान पर गुँथी देखी जा सकती है, पर पूरे अध्याय का रुझान जिस दिशा में है, वह इसी विभाजन क्रम के अनुसार निर्वाह कर कहा गया है।

ग्रंथ में ग्रंथकार की महिमा जुड़ने में उसकी विशिष्टता स्थापित होती है। ग्रंथकार वह होता है, जो जन्म देता है ग्रंथ को। माँ आत्मसात करती है सारी शक्ति को एवं उसे अपने बालक के रूप में, एक अद्भुत कृति के रूप में जन्म के समय जगती को देती है। गीता में जो कुछ है, वह भगवान कृष्ण ने योगस्थ हो आत्मसात कर अर्जुन को कहा है। इसलिए हमें भगवान कृष्ण के साथ गीता को जोड़कर, माँ के साथ उसकी रचना को जोड़कर समझना हो, तभी हम श्रीमद्भगवद्‌गीता का मर्म आत्मसात कर सकेंगे। विनोबा गीता को गीताई कहा करते थे। महाराष्ट्र में माँ को ‘आई’ कहते हैं अर्थात गीता माँ। हर कष्ट-हर दुःख के लिए गीताई की शरण में जाओ, यह विनोबा का कथन था। गांधी जी कहते थे कि गीता मेरी माँ के समान है। जब मुझे समस्याएँ सताती हैं, मैं अपनी माँ की गोद में चला जाता हूँ, मुझे सारे हल मिल जाते हैं। इसीलिए यहाँ बार-बार गीता के साथ रचना को जन्म देने वाले उनके ग्रंथकार वक्ता योगिराज श्रीकृष्ण को समझने की बात कही जा रही है। उन्हें समझे बिना गीता नहीं समझी जा सकती।

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