श्वास व्यायाम के दो अभ्यास
योगशास्त्र में वर्णित ‘प्राणायाम’ यद्यपि बहुत प्रभावशाली और लाभदायक क्रिया है, पर साधारण व्यक्ति उसके करने में प्रायः ऐसी भूलें या असावधानी कर जाते हैं, जिससे उसका वास्तविक उद्देश्य पूरा नहीं होता। ऐसे लोगों को प्रायः किसी सुयोग्य शिक्षक से प्राणायाम की शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा तो मिलती नहीं, वे प्रायः इधर-उधर से सुनकर और पुस्तकों में पढ़कर ही इसमें संलग्न हो जाते हैं। आरंभिक उत्साह में वे प्रायः श्वास को अधिक से अधिक भीतर रोकने पर जोर देते हैं और इतना अधिक अभ्यास करने की कोशिश करते हैं, जिससे थकावट या क्लांति आ जाती है। यह अवस्था ‘स्वास्थ्य सुधार’ के विपरीत है। बाहरी या भीतरी कसरत सदैव उतनी ही हितकारी होती है, जिससे शरीर में स्फूर्ति और मन में प्रसन्नता बनी रहे। इस दृष्टि से श्वास अभ्यास की ये दो विधियाँ सर्वोपयोगी सिद्ध होंगी-
(१) सीधे खड़े होकर पूरी श्वास खींचो और उसे रोके रखकर दोनों हाथों को उठाकर सामने की तरफ फैलाओ। तब दोनों मुट्ठियों को बाँधकर तथा मांसपेशियों को कड़ा करते हुए हाथों को कंधों की तरफ खींचो। कंधों के पास आते-आते मुट्ठियाँ इतनी कड़ी बँध जाएँ कि उनमें कँपकँपी की गति आ जाए। तब मांसपेशियों को वैसा खड़े रखते हुए ही मुट्ठियों को धीरे से आगे ले जाओ और फिर तेजी से कंधों के पास लाओ। इस प्रकार कई बार किया जाए। यह क्रिया एक मिनट से भी कम समय में सात-आठ बार की जा सकती है। इसके पश्चात मुँह की राह से जोर से हवा निकाल दीजिए। ऐसा ही चार-पाँच बार कीजिए।
(२) पूरी श्वास खींचकर हवा को कुछ सेकंड तक भीतर रोको। इसके बाद ओंठों को सीटी बजाने की सी दशा में करो और ओंठों के छेद में होकर थोड़ी हवा जोर से बाहर फेंको। क्षण भर हवा को रोके रहो और फिर थोड़ी हवा उसी प्रकार निकालो। इसी तरह कई बार करके सब हवा बाहर निकाल दो। यह ध्यान रखना चाहिए कि ओंठों को सीटी से बजाने के से रूप में करते समय गाल न फूलें और हवा को जोर लगाकर निकाला जाए।
इन दोनों अभ्यासों में से प्रथम क्रिया शरीर के नाड़ी समूह को उत्तेजित करने और शक्ति देने वाली है। नाड़ियों की शक्ति और कार्यशीलता से ही समस्त शरीर में रक्त का उचित संचालन होता है और सब अंगों को पोषण मिलता कृवित कर किया स्वास-तंत्र को साफ करने वाली कही जाता है। यह किसी भी श्वास व्यायाम के बाद करनी जातो, जिससे ताजगी आ जाए। इस प्रथम क्रिया के बाद दूसरी क्रिया अवश्य करनी चाहिए। इस प्रकार ये दोनों क्रियाएँ अभ्यास और सुविधानुसार चार-पाँच से आठ-दस बार तक करने से एक समय का पूरा व्यायाम हो गया समझ लेना चाहिए।
यौगिक प्राणायाम की विधि
यहाँ तक हमने श्वास-प्रश्वास के उन नियमों पर विचार किया है, जिससे उसे वायुमंडल से सही और स्वाभाविक तरीके से ग्रहण करके शरीर तथा मन को पूर्ण स्वस्थ रखा जा सके। पर भारतीय योगियों ने प्राणायाम की जो विधि बतलाई है, उसमें श्वास को एक विशेष नियम के अनुसार भीतर खींचने, रोकने और बाहर निकालने का हिसाब रखा गया है। हमारे देश के अधिकांश शिक्षित और अशिक्षित व्यक्ति उसी को ‘प्राणायाम’ के नाम से पुकारते हैं और उसके तीन मुख्य अंगों- (१) पूरक, (२) कुंभक, और (३) रेचक का नाम भी जानते हैं। पर इन विधियों का ठीक अर्थ और स्वरूप थोड़े ही लोग समझते हैं, अन्यथा लोग छोटी-मोटी पुस्तकों या मूँड़ मुँड़ाए बाबा लोगों की उलटी-सीधी बातें सुनकर ही इस विषय में कुछ स्पष्ट धारणा बना लेते हैं। उसका थोड़ा सा अभ्यास करके जब कोई लाभ नहीं देखते, तो निराश होकर उसे त्याग देते हैं। कुछ नासमझ और जल्दबाज लोग उलटा-सीधा अभ्यास करके अपनी कुछ हानि भी कर लेते हैं।
पातंजल योगसूत्र’ में चार प्रकार के प्राणायाम बतलाए गए हैं, जिनमें श्वास को रोकने की विधि में कुछ-कुछ अंतर रहता है। उदाहरणार्थ, श्वास को बाहर निकालने के पश्चात कुछ देर तक वायु को भीतर जाने से जो रोका जाता है, उसे ‘बाह्य कुंभक’ कहते हैं। जब श्वास को भीतर खींचकर रोका जाता है, तो उसे ‘अभ्यंतर कुंभक’ कहते हैं। तीसरे और चौथे प्रकार के प्राणायामों को ‘केवल कुंभक’ कहते हैं। इसका अर्थ है कि श्वास के आवागमन को कुछ समय तक बिना किसी चेष्टा के स्वयमेव रुकी अवस्था में रहने दिया जाए। तीसरी और चौथी विधि में यह अंतर है कि तीसरी में श्वास-प्रश्वास का रोकना एकाएक किया जाता है और चौथी में कई बार श्वास को लेने और निकालने के पश्चात ‘केवल कुंभक’ किया जाता है।
प्राणायाम की प्रत्येक विधि एक मिली-जुली क्रिया है, जिसके तीन अंग पूरक (श्वास भीतर खींचना), कुंभक(भीतर रोके रहना) और रेचक (बाहर निकालना) होते हैं। इनको नापने की जो विधियाँ प्राचीन योग संबंधी ग्रंथों में मिलती हैं, उनसे प्रतीत होता है कि उनके रचयिताओं को दृष्टि में उपर्युक्त तीनों क्रियाओं को नियत समय का पालन करना बहुत महत्त्वपूर्ण था। यह तो सभी जानते हैं कि उस समय किसी के पास घड़ी नहीं होती थी और न घंटा-मिनट को जानने का अन्य कोई साधन था। इसलिए किसी शारीरिक क्रिया के करने में जितना समय लगता है, उसी का आधार लेकर वे समय का विभाजन करते थे। इस प्रकार के विभागों का नाम ‘मात्रा’ रखा गया था। इसकी कुछ विधियाँ इसप्रकार बताई जाती थीं-
(१) आँख का पलक झपकने में जितना समय लगता है।
(२) एक छोटे स्वर के उच्चारण में जितना समय लगता है।
(३) अपने घुटने को छूने और साथ ही एक ताली बजाने में जितना समय लगता है।
(४) एक स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास में जितना समयलगता है।
(५) ॐ का उच्चारण करने में जितना समय लगता है।
इनमें से जो विधि जिसकी समझ में आ सके, वह उसी से काम ले सकता है अथवा आजकल घड़ी का भी उपयोग किया जा सकता है, जिससे मिनट और सेकंडों का हिसाब भी ठीक-ठाक मालूम पड़ता रहता है। इन समयसूचक मात्राओं के अनुसार प्रत्येक क्रिया का क्या अनुपात रहना चाहिए? इस विषय में भी कई सम्मतियाँ सुनने में आती हैं। कुछ लोग १ : ४ : २ का अनुपात बताते हैं अर्थात यदि श्वास को १५ सेकंड तक खाँचा जाए तो ६० सेकंड तक रोका जाना और ३० सेकंड तक निकाला जाना चाहिए। अन्य लोग १ २ २ का अनुपात ठीक समझते हैं और कुछ की सम्मति में पूरक, कुंभक और रेचक तीनों बराबर समय तक किए जाने चाहिए। हमारे विचार से आरंभ में ही वायु को भीतर अधिक रोकने की चेष्टा करना ठीक नहीं। इसलिए आरंभिक अभ्यास वालों के लिए १५ सेकंड श्वास को भीतर खींचना, ३० सेकंड या आधी मिनट रोके रहना और ३० सेकंड तक बाहर निकालना पर्याप्त है। फिर जैसे अभ्यास और अनुभव होता जाए, उसी के अनुसार समय को धीरे-धीरे बढ़ाया जा सकता है। पर इस बात का सदा ध्यान रखा जाए कि श्वास को बलपूर्वक भीतर रोकने की चेष्टा कभी न की जाए।
श्वास व्यायाम के प्रचार की आवश्यकता
अब श्वास व्यायाम की आवश्यकता और उपयोगितासंसार के समस्त देशों में मान ली गई है और स्कूल के विद्यार्थियों को शारीरिक व्यायाम कराते समय सही श्वास लेने के नियमों का भी ध्यान रखने को कहा जाता है। स्कूलों में इसे शारीरिक क्रिया में किया जाता है, पर मानसिक शक्ति को वृद्धि का लाभ भी इससे विद्यार्थियों को मिलता ही है। इसलिए यूरोप के अनेक देशों में श्वास व्यायाम शिक्षा को अनिवार्य बना दिया गया है और उस पर बहुत जोर दिया जाता है। अमेरिका के प्राकृतिक चिकित्सकों ने भी प्रचार में बहुत सहयोग दिया है और अब वहाँ कितनी ही संस्थाएँ निजी तौर पर सर्वसाधारण को उसकी शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा प्रदान करती हैं। अब भारतवर्ष के अनेक स्कूलों में भी योग और विज्ञान की विधियों के अनुकूल श्वास व्यायाम का प्रचार करने की चेष्टा की जा रही है। कुछ शिक्षक उसकी शिक्षा प्राप्त करके उसका प्रचार बढ़ाने का उद्योग कर रहे हैं। वास्तव में श्वास लेने के सही तरीके का अभ्यास बाल्यावस्था से ही कराया जाना चाहिए, जिससे उसकी आदत पड़ जाए और बिना किसी कठिनाई के उसे स्वभावतः किया जा सके। बड़ी आयु में जब अन्य प्रकार का अभ्यास जमकर बैठ जाता है, तो उसे बदलकर नए ढंग को आदत में ला सकना कठिन होता है। सही श्वास लेने का नियम यद्यपि बहुत सरल है। जो लोग प्राकृतिक वातावरण में रहते हैं, वे उसका पालन भी करते हैं। पर जो लोग परिस्थितिवश उससे हट गए हैं और गलत तरीके से श्वास लेकर अपने स्वास्थ्य की हानि करते रहते हैं, उनको इस संबंध में अवश्य सावधान और सचेत हो जाना चाहिए। उनको अवश्य ही ‘प्राणायाम’ की किसी सरल विधि का अभ्यास नियमित रूप से करके ‘श्वास संस्थान’ को सशक्त बनाना चाहिए। उत्तम स्वास्थ्य ही सुखी जीवन का मूल है और उसे प्राप्त करने के लिए सही तरीके से श्वास लेना भी आवश्यक है।
आरोग्यवर्द्धक स्वर विज्ञान
भगवान ने मानव जन्म के समय से ही देह के साथ एक ऐसा आश्चर्यजनक अपूर्व उपाय रच दिया है, जिसे जान लेने पर प्रायः किसी भी सांसारिक विषय में असफलता का दुःख नहीं हो सकता। चूँकि अधिकांश मनुष्य इस उपाय को नहीं जानते और न उससे लाभ उठाने का प्रयत्न करते हैं, इसी कारण अनेक कार्यों में उनको सफलता प्राप्त नहीं होती। इस विषय का विवेचन जिस शास्त्र में किया गया है,उसे स्वरोदयशास्त्र कहते हैं। यह प्रत्यक्ष फल देने वाला है। मुझे पग-पग पर इसका आश्चर्यजनक फल देखकर आश्चर्यचकित होना पड़ा है।
जीव के जन्म से मृत्यु के अंतिम क्षण तक निरंतरश्वास-प्रश्वास क्रिया चलती रहती है और यह श्वास नासिका के दोनों छेदों से एक ही समय एक साथ समान रूप से नहीं चला करती, कभी बाएँ और कभी दाएँ, पुट से चलती है। कभी-कभी एकाध घड़ी तक दोनों छेदों से समान भाव से भी श्वास प्रवाहित होती है। बाएँ नासापुट के श्वास को ‘इड़ा’ में चलना, दाहिनी ओर से चलने वाले श्वास को ‘पिंगला’ में चलना और दोनों पुट से समान भाव से चलने पर उसे ‘सुषुम्ना’ में चलना कहते हैं। एक नासापुट को दबाकर दूसरे के द्वारा श्वास को बाहर निकालने में साफ मालूम हो जाता है कि एक नासिका से सरलतापूर्वक श्वास- प्रवाह चल रहा है और दूसरा नासापुट प्रायः बंद है, अर्थात अन्य नासापुट से समान सरलता से श्वास बाहर नहीं निकलता। जिस नासिका से सरलतापूर्वक श्वास बाहर निकलती हो, उस समय उसी नासिका का श्वास कहना चाहिए। क्रमशः अभ्यास होने पर बहुत आसानी से मालूम हो जाता है कि किस नासिका से श्वास प्रवाहित हो रही है? यदि मनुष्य का स्वास्थ्य स्वाभाविक दशा में हो और रहन-सहन प्रकृति के अनुकूल हो, तो प्रतिदिन प्रातःकाल सूर्योदय के समय से ढाई-ढाई घड़ी के हिसाब से एक-एक नासापुट के क्रमानुसार श्वास चलती है। इस प्रकार रात-दिन में बारह बार बाई और बारह बार दाईं नासिका से श्वास चलती है। इस श्वास-प्रश्वास का क्या प्रभाव होता है? इस संबंध में शास्त्र में कहा गया है-
वहेत्तावद् घटी मध्ये पञ्चतत्त्वानि निर्दिशेत् ।
प्रतिदिन रात-दिन साठ घड़ियों में ढाई-ढाई घड़ी केहिसाब से स्वर-परिवर्तन होने से क्रमशः पंचतत्त्वों का उदय होता है। इस श्वास-प्रश्वास की गति को समझकर कार्य करने पर शरीर स्वस्थ रहता है और मनुष्य दीर्घजीवी होता है। फलस्वरूप समस्त सांसारिक कार्यों में सफलता मिलने के कारण सुखपूर्वक संसारयात्रा पूरी होती है।
वाम नासिका का श्वासफल
जिस समय इड़ा नाड़ी अर्थात बाई नासिका से श्वास चलती हो, उस समय स्थिर कर्मों को करना चाहिए। जैसे- अलंकार धारण, दूर की यात्रा, आश्रम में प्रवेश, मकान बनाना, द्रव्यादि धारण ग्रहण करना, तालाब, कुआँ, जलाशय आदि की प्रतिष्ठा करना। बाईं नाक से श्वास चलने के समय शुरू करने पर उन सब कार्यों में सिद्धि मिलती है।
दक्षिण नासिका का श्वासफल
जिस समय पिंगला नाड़ी अर्थात दाहिनी नाक से श्वास चलती हो, उस समय कठिन कर्म करने चाहिए। जैसे- कठिन क्रूर विद्या का अध्ययन और अध्यापन, नौकादि आरोहण, तंत्र-साधना, बैरी को दंड, शस्त्राभ्यास, गमन, पशु-विक्रय, ईंट, पत्थर, काठ तथा रत्नादि का घिसना और छीलना, संगीत अभ्यास, यंत्र-तंत्र बनाना, हाथी, घोड़ा तथा रथ आदि की सवारी सीखना, व्यायाम, षट्कर्म साधन, भूतादि साधन, औषधि सेवन, लिपि-लेखन, दान, क्रय-विक्रय, युद्ध, भोग, राजदर्शन आदि।
सुषुम्ना का श्वासफल
दोनों नाकों से श्वास चलने के समय किसी प्रकार शुभ या अशुभ कार्य नहीं करना चाहिए। उस समय कोई भी काम करने से वह निष्फल होगा। उस समय योगाभ्यास तथा ध्यान धारणादि द्वारा केवल भगवान को स्मरण करना उचित है। सुषम्ना नाड़ी से श्वास चलने के समय किसी को भी शाप या वर प्रदान करने पर वह सफल होता है।
इस प्रकार उचित स्वर में कार्य करने से मनुष्य अनेक प्रकार के लाभ उठा सकता है। इसका सबसे बड़ा उपयोग रोगोत्पत्ति का पहले से ही ज्ञान हो जाना और उसका सहज में निवारण कर सकना है। उदाहरण के लिए, शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को यदि सवेरे नींद टूटने पर सूर्योदय के समय पहले यदि दाई नाक से श्वास चलना प्रारंभ हो, तो उस दिन से पूर्णिमा तक के बीच में गरमी के कारण कोई पीड़ा होगी। इसी प्रकार कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन सूर्योदय के समय पहले यदि बाई नाक से श्वास चलना आरंभ हो, तो उस दिन से अमावस्या तक के अंदर कफ या सरदी के कारण कोई पीड़ा होगी।
दो पखवारों तक इसी प्रकार विपरीत ढंग से सूर्योदय के समय निश्वास चलती रहे, तो किसी आत्मीय स्वजन को भारी बीमारी होगी अथवा मृत्यु होगी और किसी प्रकार की विपत्ति आएगी। तीन पखवारों से अधिक लगातार ऐसी हो गड़बड़ी होने पर निश्चय ही अपनी मृत्यु हो जाएगी।
बिना औषध रोग-निवारण
अनियमित क्रिया के कारण जिस प्रकार हमारी देह में तरह-तरह के रोग पैदा होते हैं, उसी तरह औषधि बिना ही, भीतरी क्रियाओं द्वारा नीरोग रहने का उपाय भगवान ने बना दिया है। इन स्वर-शास्त्रोक्त उपायों को काम में लाने से न तो बहुत दिन तक रोग की यंत्रणा सहन करनी पड़ती है, न अर्थ व्यय होता है और न दवाइयों से अपना पेट भरना पड़ता है। साथ ही जब इस प्रकार योग विद्या के इस कौशल से एक बार रोग जाता रहता है, तो दोबारा उसके आक्रमण की संभावना नहीं रहती। ज्वर का आक्रमण होने पर जिस नासिका से श्वास चलती हो, उसे बंद करके दूसरी नासिका से श्वास लेना चाहिए। जब तक ज्वर न उत्तरे और शरीर स्वस्थ न रहे, तब तक लगातार दूसरे ही नासापुट से श्वास लेते रहना चाहिए। ऐसा करने से दस-पंद्रह दिन में उतरने वाला ज्वर पाँच दिन में ही उतर जाएगा और कष्ट भी कम उठाना पड़ेगा। ज्वरकाल में मन ही मन में चाँदी के समान श्वेत वर्ण का ध्यान करने से और शीघ्र लाभ होता है। इसी प्रकार और भी कई तरह के ज्वर, सिरदरद, अजीर्ण, दंतरोग, स्नायविक पीड़ा, दमा, नेत्ररोग भी योग संबंधी साधारण विधियों से ठीक हो जाते हैं।
स्वर विज्ञान का प्रयोग इसी प्रकार के अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों में किया जा सकता है। यात्रा को सफल बनाना, गर्भाधान द्वारा सौभाग्यशाली संतान प्राप्त करना, शत्रु वशीकरण, अग्नि को बुझाना, चिरयौवन प्राप्त करना आदि अनेक कार्यों में इससे उल्लेखनीय सहायता मिल सकती है। स्वर विज्ञान की जानकारी कठिन नहीं है, पर सफलता प्राप्त करने के लिए इच्छानुसार स्वर को कम या ज्यादा समय तक चलाने का अभ्यास करना पड़ता है।