प्राण का स्वरूप और शरीर में उसका स्थान
अध्यात्म विज्ञान के अनुसार मनुष्य का अन्नमय शरीर दो प्रकार के जीवाणुओं से मिलकर बनता है, इसलिए उसमें प्राण भी दो प्रकार का रहता है- एक स्त्री प्राण और दूसरा पुरुष प्राण। स्त्री प्राण को बाएँ अंग में और पुरुष प्राण को दाएँ अंग में अवस्थित बताया जाता है। धर्मग्रंथों में भगवान के दो भाग होकर नर और नारी की उत्पत्ति की कल्पना का आधार यह दो प्रकार के प्राणों का एक देह में पाया जाना ही है। पश्चिमी धर्मों में भी ‘आदम’ के दो हिस्से करके नारी के आविर्भाव की कथा प्रसिद्ध है। इसका सारांश यही है कि मानव जीवन का संचालक प्राणतत्त्व दो विभिन्न धाराओं में, जिनको ‘योगशास्त्र’ में इड़ा और पिंगला की मात अथा ‘स्वरशास्त्र’ में चंद्र स्वर और सूर्य स्वर कहा गया कृतिविभक्त है। जिस तरह बिजली की ‘पोजीटिव’ और ‘नेगेटिव’ धाराओं के संयोग से क्रियाशीलता उत्पन्न होती है, उसी प्रकार मानव देह में स्थित इन दो प्रकार की प्राणधाराओं का सम्मिलन ही मनुष्य की कार्यक्षमता को विकसित करता और बढ़ाता है।
बाएँ और दाएँ अंग में अवस्थित ये दोनों प्रकार के प्राणसदैव सम्मिलित होकर कार्य करते हुए भी श्वास अभ्यासियों द्वारा पृथक-पृथक पहचाने जा सकते हैं और इसी के आधार पर बाएँ और दाएँ नथुने से ली जाने वाली श्वास का पृथक-पृथक प्रभाव वर्णित किया गया है। जब तक शरीर में इन दोनों का विधिपूर्वक सम्मिलन स्थिर रहता है, तभी तक जीवन भी प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। इसका संतुलन बिगड़ जाने से प्राणतत्त्व जड़ रूप हो जाता है। उस अवस्था में शरीर को ‘मृत’ घोषित कर दिया जाता है, क्योंकि जैसा ऊपर कहा जा चुका है, वैसे तो प्राणतत्त्व सर्वव्यापी है, विश्व का बड़े से बड़ा पिंड और छोटे से छोटा अणु भी उससे खाली नहीं है, पर उसमें चैतन्यतायुक्त क्रियाशीलता विशेष अवस्थाओं में ही दृष्टिगोचर होती है। मानव देह और मस्तिष्क के निर्माण में प्रकृति ने अपनी पूर्ण योग्यता खरच कर दी है, इसलिए उसे ऐसी क्षमता प्राप्त हो सकी है, जिससे वह प्राणशक्ति का बहुत अधिक उपयोग करके महान तत्त्वों का अन्वेषण और अत्यंत जटिल कार्यों कासंपादन कर सकने में समर्थ हो गया है।
वर्तमान समय में ‘प्राणशक्ति’ की प्रेरणा से मनुष्य ने जो रेल, तार, वायुयान, रेडियो, टेलीविजन आदि आविष्कार किए हैं, वे ही मानव मस्तिष्क की उत्कृष्टता के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। फिर हमारे ‘योगशास्त्र’ के अनुसार तो प्राणमय शरीर में ऐसी-ऐसी शक्तियाँ निहित हैं, जिनको जाग्रत करके उपयोग में लाया जाए, तो मनुष्य उन कामों को भी करके दिखा सकता है, जो अभी तक असंभव माने जाते हैं। चाहे योगशास्त्र में वर्णित आठों सिद्धियों की बातें सामान्यतः अतिरंजित मानी जाएँ, पर इसमें संदेह नहीं कि अभी तक जो अद्भुत समझे जाने वाले कार्य वैज्ञानिक आविष्कारकों ने किए हैं, प्राणशक्ति के पूर्ण ज्ञाता और अभ्यासी उससे कहीं बढ़कर चमत्कार दिखा सकते हैं। यद्यपि इस समय इस विद्या का प्रायः लोप हो चुका है और भौतिकता की लहर के कारण सुयोग्य व्यक्तियों ने इस तरफ ध्यान देना बंद कर दिया है, तो भी उसके जो कुछ बचे-खुचे अवशेष पाए जाते हैं, उनके अद्भुत कार्यों को देखकर भी भौतिक विज्ञान वालों को निरुत्तर हो जाना पड़ता है।
‘योगशास्त्र’ के अनुसार मानव देह के पृष्ठवंश के भीतर ‘सुषुम्ना’ नामक एक अत्यंत सूक्ष्म नाड़ी का अवस्थान है, जिसका मुख्य कार्य प्राण को प्रवाहित करना और उसकी गति को शारीरिक आवश्यकताओं के अनुसार नियमित करना है। पृष्ठवंश की दोनों बगलों में बहुत से सूक्ष्म छिद्र है, जिनमें होकर सुषुम्ना की शाखाएँ बाहर निकली हैं और फिर उनकी प्रशाखाएँ समस्त देह में फैली हुई हैं। पृष्ठवंश के ऊपरी भाग में सुषुम्ना विस्तृत रूप में फैली हुई है, जिसको ‘सहस्रार’ अथवा ‘ब्रह्मांड’ कहते हैं। भौतिक विज्ञान के अनुसार यही मस्तिष्क या दिमाग कहा जाता है। इस ‘सहस्रार’ से अनगिनत तंतु निकलकर समस्त इंद्रियों तथा शारीरिक अंगों तक फैले हुए हैं। ये समस्त अंगों को विविध प्रकार की क्रियाओं के आदेश देते रहते हैं। साथ ही बाहर से प्राणतत्त्व को आकर्षित करके प्राणमय शरीर को पुष्ट भी करते हैं।
इस प्रकार मानव देह में सर्वत्र फैली हुई सुषुम्ना की उपमा ‘योगशास्त्र’ में एक ऐसे अश्वत्थ वृक्ष से दी गई है, जिसकी जड़ ऊपर की तरफ मस्तिष्क में है और जिसकी शाखा प्रशाखाएँ, पत्ते नीचे की ओर पैरों के अँगूठों तक विस्तृत हैं। इसी सुषुम्ना से दाएँ और बाएँ जो प्रधान जड़ें निकली हैं, उन्हीं को इड़ा और पिंगला कहा जाता है। वे ही दोनों ओर के अंगों में प्राण-प्रवाह को स्थिर रखने में सहायक होती हैं। सुषुम्ना की मूल नाड़ियों से ही अन्य नाड़ियाँ निकलकर हृदय, आमाशय, यकृत, फेफड़ा आदि प्रधान अंगों तक फैली हैं और उनको कार्यक्षम बनाए रखती हैं। ‘सुषुम्ना’ की कार्य प्रणाली किस प्रकार प्राणमय शरीर को पुष्ट और क्रियाशील बनाती है, इसके लिए निम्न उद्धरण इस जटिल विषय को स्पष्टतापूर्वक समझने में सहायक होगा।
पृथ्वी के ऊपर स्थित जलराशि या वर्षा का पानी जिस प्रकार जमीन के भीतर जाकर फिर स्रोतों के रूप में प्रकट होता है अथवा जैसे वृक्ष की जड़ द्वारा सोखा हुआ रस वृक्ष के ऊपरी भाग में खींचा जाता है और वह पत्र, पुष्प और फल के रूप में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञानेंद्रियों तक फैली हुई शाखाओं द्वारा ‘सुषुम्ना’ जो प्राणत्तत्त्व को आकर्षित करती है, वह पहले तो प्राणमय शरीर में पहुँचकर उसे पुष्ट बनाता है और फिर वहाँ को लौटकर कर्मेंद्रियों द्वारा प्रकट होकर बाहर निकल जाता है। बाड़ा प्राण का प्राणमय शरीर द्वारा आकर्षण और फिर कर्मेंद्रियों के मार्ग से उसका बाहर चला जाना ही प्राण की अंतर्मुखी और बहिर्मुखी गति अथवा ‘प्राणप्रवाह’ कहा जाता है।
यद्यपि मुखमंडल में ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों के आस-पास रहने से प्राण की अंतर्मुखी और बहिर्मुखी गति एक ही जान पड़ती है, पर वास्तव में ऐसा नहीं होता। अंतर्मुखी प्रवाह पहले सुषुम्ना में जाता है और वहाँ से अपनी निर्दिष्ट नाड़ी द्वारा उसका बाहर निकल सकना संभव होता है। शरीर में एक भी ऐसी नाड़ी नहीं है, जो अकेली प्राणों को दोनों प्रकार का प्रवाह कर सकती हो। प्रत्येक नाड़ी दोनों में से एक विशेष प्रवाह के लिए निर्दिष्ट होती है। इन नाड़ियों में से अधिकांश बाल से भी सूक्ष्म होती हैं और इस कारण एक ही स्थान पर परस्पर मिली हुई अभिन्न जान पड़ती हैं, तो भी प्रत्येक अपना काम स्वतंत्र रूप से करती रहती है।
हमारी सभी महत्त्वपूर्ण शारीरिक क्रियाएँ इसी ‘बहिर्गत प्राण’ द्वारा संपन्न होती हैं। बाहर से जो प्राण ग्रहण किया जाता है, उसका सार भाग तो ‘प्राणमय शरीर’ में रक्षित रहता है और शेष भाग बाहर निकाल दिया जाता है। इस निकाले हुए प्राण को इड़ा और पिंगला नाड़ियाँ उपयोगी बनाकर अन्नमय शरीर की विविध क्रियाओं को संपन्न कराती हैं। इस प्रकार जिस-जिस क्रिया में जो प्राण काम में लाया जाता है, उसका वैसा ही नाम रख दिया गया है। ‘योगशास्त्र’ में प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कृकर, धनंजय, कुर्म और देवदत्त के नाम से जिन दस प्रकार की ‘प्राणवायु’ का वर्णन किया गया है, वे इसी बहिर्गत प्राण के विविध रूप होते हैं। इन्हीं के द्वारा मलाशय से मलत्याग, गुरदों से मूत्र निकालना, मुख, आमाशय, चर्म आदि से लार, पित्त, पसीना निकलना, हाथ-पाँव, कटि, जिह्वा, नेत्र आदि अंगों का प्रसारण और आकर्षण, राग-द्वेष व्यंजक शब्दों का मुख से उच्चारण आदि सभी क्रियाएँ साधित होती रहती हैं।
श्वास व्यायाम जीवनोपयोगी
इतना ही नहीं, यही ‘प्राण’ हमारी मानसिक वृत्तियों पर भी प्रभाव डालता है और हमारे स्वभाव को भली या बुरी दिशा में मोड़ता है। कितने ही लोगों को संदेह होता है कि कोई शारीरिक क्रिया मानसिक और आध्यात्मिक विषयों को कैसे प्रवाहित कर सकती है? हमारे यहाँ तो स्पष्ट कहा गया है- ‘जैसा खाए अन्न, वैसा बने मन।’ भौतिक पदार्थों और क्रियाओं का मानसिक क्षेत्र पर पर्याप्त प्रभाव उसके है फिर प्राकृत्य होने की प्रभाव मन, बुद्धि और आत्मा पर न पड़े, यह असंभव है।
‘प्राणायाम’ या श्वास अभ्यास का प्रभाव मानसिक स्थिति पर कैसे पड़ता है? इसका वैज्ञानिक दृष्टि से भी विचार किया गया है। योगशास्त्र के अनुसार शरीर के अंदर कितनी ही ग्रंथियाँ और चक्र हैं, जो मानसिक और आध्यात्मिक विकास में निमित्त होते हैं। हठयोग के आचार्यों ने तो केवल चक्रों की साधना करके कुंडलिनी की शक्ति को मस्तक तक पहुँचा देने से मुक्ति का होना निश्चित बताया है। अब वैज्ञानिकों ने भी शरीर में महत्त्वपूर्ण ग्रंथियों का होना और शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों के पोषण करने वाले रसों का निकलना मान लिया है। इन ग्रंथियों को अँगरेजी में ‘एंडोक्राइन ग्लैंड्स’ कहते हैं। इन दिनों यूरोप, अमेरिका में ऐसे वैज्ञानिकों का दल पैदा हुआ है, जो इन ‘ग्लैंड्स’ का विशेष रूप से अध्ययन किया करते हैं और उन्होंने ‘एंडोक्राइनोलॉजी’ नाम से विज्ञान की नवीन शाखा का उद्भव किया है। इन लोगों की मान्यता है कि ‘एंडोक्राइन ग्लैंड्स’ केवल शरीर पर ही असर नहीं डालतीं, वरन मनुष्य की मानसिक वृत्तियों को भी बहुत अधिक प्रभावित करती हैं। उनका कहना है कि भविष्य में हम इन ‘एंडोक्राइन ग्लैंड्स’ का इलाज करके दुष्ट लोगों को पूर्ण सज्जन बना देंगे। अन्य वैज्ञानिक अभी इस मान्यता से पूरी तरह सहमत नहीं हुए हैं, तो भी वे इससे इनकार नहीं करते कि इन ग्रंथियों का प्रभाव वास्तविक रूप में मानसिक स्थिति पर पड़ता है।
भारतीय योग विज्ञान के प्रचारक कुवलयानंद की सम्मति है कि शरीर में स्थित कुछ खास ग्रंथियाँ (ज्ञान-तंतुओं के केंद्र) मनुष्य की मनःस्थिति पर काफी प्रभाव डालती हैं। इन ज्ञान-तंतु केंद्रों को अभ्यास द्वारा बहुत अधिक कार्यक्षम बनाया जा सकता है और उनमें असाधारण शक्ति का अनुभव किया जा सकता है। ‘प्राणायाम’ अथवा श्वास व्यायाम के अभ्यास द्वारा भी इन केंद्रों को बहुत अंशों में प्रभावित किया जा सकता है और पर्याप्त आध्यात्मिक उन्नति की जा सकती है।
श्वास व्यायाम करते समय मेरुदंड पर काफी दबाव पड़ता है, जिससे वह नीचे से लेकर सबसे ऊपर के अंश तक खूब तन जाता है। इसमें समस्त स्नायविक प्रणाली को बल मिलता है और वह विकसित होती है। इससे छाती और पेट में स्थित रसग्रंथियों पर भी बड़ा हितकर प्रभाव पड़ता है और समस्त शरीर की स्नायविक प्रणाली की उन्नति होती है।
हमको यह भी अनुभव होता है कि प्राणायाम के अभ्यास से मेरुदंड में स्थित ज्ञानप्रवाहिनी दाव पड़ता है, जिससे रिक कोशों पर भी ऐसा हितकर से सशक्त और विकसित समस्त साविकांतरिक और बाह्य शक्तिवर्द्धन से मनुष्य की चेतना अंतर्मुखी होने लगती है और उसकी प्रज्ञा अज्ञात प्रदेशों में प्रवेश करने लगती है। इस प्रकार एक से बढ़कर एक सूक्ष्मजगतों को उससे ज्ञान प्राप्त होने लगता है। यहाँ एक साध्हमारी व्यक्तिगत चेतना विश्वव्यापी समष्टि चेतना से ऐक्य भाव का अनुभव करने लगती है।
श्वास-प्रणाली के सुधार से लाभ
जब हम नियमित श्वास व्यायाम द्वारा फेफड़ों की उन्नतिकर लेते हैं और नाक द्वारा खींची हुई ऑक्सीजनमिश्रित शुद्ध हवा समस्त फेफड़े में भरकर मलांश को दग्ध करके बाहर निकाल देते हैं, तो स्वास्थ्य पर उसका सुप्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ने लगता है। इस प्रकार अभ्यास करने वाला व्यक्ति सरदी, जुकाम, खाँसी जैसे फेफड़े के रोगों की तरह से तो आरंभ में ही निर्भय हो जाता है। धीरे-धीरे फेफड़ों की शक्ति इतनी बढ़ जाती है कि क्षय अथवा तपेदिक जैसे घातक रोगों की आशंका भी पूर्णतः निर्मूल हो जाती है। जापान के डॉ० शेराबुज का अनुभव इस संबंध में बड़ा प्रेरणाप्रद है। वे बचपन में ही फेफड़ों की कमजोरी तथा क्षयरोग से आक्रांत हो गए थे और बड़े-बड़े डॉक्टरों ने उनके दो-तीन साल में मृत्युमुख में चले जाने की घोषणा कर दी थी। पर उसी समय उन्होंने किसी भाषण में श्वास व्यायाम के संबंध में सुना और तदनुसार वे उसका अभ्यास करने लग गए। इस तरह सही श्वास लेने के प्रभाव से उनके फेफड़ों का सुधार होने लग गया और दो-तीन वर्ष में तो वे इतने स्वस्थ हो गए कि उनकी मृत्यु की ‘भविष्यवाणी’ करने वाले डॉक्टर आश्चर्यचकित रह गए। इसके पश्चात डॉ० शेराबुज बहुत समय तक जीवित रहे और उन्होंने जापान में ‘प्राणायाम’ का बहुत प्रचार किया।
इस परिवर्तन का कारण यही है कि अधूरी श्वास लेने से वह फेफड़ों के सब भागों में नहीं पहुँचती। इससे उनके बहुसंख्यक वायुकोष्ठ खाली अथवा दबे दबे रह जाते हैं। ऐसे निष्क्रिय भाग अवसर मिलते ही शरीर में उत्पन्न होने वाले रोगाणुओं के अड्डे बन जाते हैं। यदि हम पूरी और गहरी श्वास लेने का अभ्यास करें, तो प्राणप्रद वायु उन सभी कोष्ठों में पहुँचकर रोगाणुओं को नष्ट करके फिर से स्वस्थ स्थिति उत्पन्न कर सकती है। इसकी व्याख्या करते हुए एक स्वास्थ्य विज्ञान के ज्ञाता ने लिखा है-
“क्षयरोग वाले मनुष्य प्रायः सब संकीर्ण छाती के होतेहैं। इसका क्या अर्थ है उसने की आदत या है कि मनुष्य अनुचित रीति से श्वास लेने की सादा में पड़ गए थे और इसलिए इनकी छाती न तो विकसित हो सकी और न फैल सकी। जो मनुष्य पूरी श्वास का अभ्यास रखता है। उसकी पूरी चौड़ी छाती होती है। संकीर्ण छाती वाला मनुष्य भी यदि इस रीति से श्वास लेने का अभ्यास करेगा, तो उसकी छाती भी विकसित होकर स्वाभाविक विस्तार को पहुँच जाएगी। ऐसे मनुष्य यदि अपने जीवन का आदर करते हैं, तो उनको अपने छाती के खोखले (पंजर) को विकसित करना चाहिए। जब कभी आपको मालूम हो कि आप सरदी खा गए हैं, जुकाम होने की संभावना है, तो खूब जोर से पूरी तरह श्वास का अभ्यास करके जुकाम को रोक सकते हैं। यदि बहुत सरदी खाए हुए हों, तो कुछ मिनट तक खूब अच्छी तरह पूरी श्वास लीजिए, जिससे आपका शरीर तमतमा जाएगा। बहुत से जुकाम पूरी श्वास और ‘अधूरे भोजन’ (अर्द्ध उपवास) द्वारा अच्छे किए जा सकते हैं।”
मनुष्य के जीवन का आधार रक्त बतलाया गया है। वह जितना ही शुद्ध और सशक्त होगा, उतना ही बाह्य कुप्रभावों का मुकाबला करके स्वास्थ्य को स्थिर रख सकेगा। पर रक्त की शुद्धता ‘ऑक्सीजन’ पर निर्भर है। वायु में मिश्रित ऑक्सीजन ही वह तत्त्व है, जो रक्त में मिली गंदगी को जलाकर उसे जीवनदायक बनाता है। यदि ठीक श्वास न लेने के कारण रक्त अस्वच्छ ही रह गया, तो वह उस गंदगी को समस्त शरीर में और विशेषतः संधि और मर्मस्थानों में इकट्ठी कर देगा, जिससे तरह-तरह के रोगों के उत्पन होने और सामान्य दबे हुए दोषों के उभरने की पूरी संभावना हो जाएगी। इससे पाचनक्रिया पर भी बहुत बुरा असर पड़ता है, क्योंकि भोजन के पचने में भी ऑक्सीजन की आवश्यकता पड़ती है। जब रक्त में स्वयं ही इस तत्त्व की कमी होगी, तो पाचनतंत्र भी निर्बल पड़ जाएँगे और भोजन को कम पचाकर शरीर को जीवनीशक्ति प्रदान करने में अक्षम सिद्ध होंगे।
अधूरी श्वास का हानिकारक प्रभाव शरीर के नाड़ीजाल पर भी पड़ता है, जिसके द्वारा समस्त शारीरिक क्रियाएँ और मानसिक शक्तियाँ काम किया करती हैं। इस संबंध में उपर्युत लेखक का कथन है, “मस्तिष्क, मेरुदंड, नाड़ी केंद्र और स्वयं नाड़ियाँ भी जब रुधिर द्वारा अपूर्ण पोषण पाती हैं, तब वे शक्ति की धाराओं को उत्पन्न करने और प्रवाहित करने का अयोग्य औजार बन जाती है। यदि प्रबल ऑक्सीजन फेफड़ों द्वारा ग्रहण न की जाएगी, तो वे अवश्य अपुष्ट रह जाएँगे। इस विषय का एक और भी पहलू है कि यदि उचित श्वास न ली जाएगी, तो नाड़ियों की शक्तिधाराएँ, बल्कि यों कहिए कि स्वयं वह शक्तियाँ, जिनसे कि धाराएँ उत्पन्न होती हैं, क्षीण हो जाती हैं और वे अपनी-अपनी क्रियाओं को ठीक ढंग से कर सकने में असमर्थ होने लग जाती हैं।
“इसके विपरीत जब हम पूरी श्वास लेते हैं, तो हमारा ‘डायाफ्राम’ (छाती और पेट को अलग करने वाली चद्दरनुमा झिल्ली) तनता और सिकुड़ता है। इस क्रिया से आमाशय और आस-पास के अन्य भीतरी अंगों पर हलका दबाव पड़ता है, जिससे उनकी मालिश की सी क्रिया संपन्न होती है और वे सतेज और अधिक क्रियाशील हो उठते हैं। प्रत्येक गहरी श्वास भीतरी अंगों की इस कसरत में सहायता पहुँचाती है और इससे वे अपने पाचन तथा मलत्याग के कार्यों में अधिक सक्षम बनते हैं। यह क्रियाएँ ही शरीर को उत्तम पोषण पहुँचाने तथा स्वच्छ और दोषरहित बनाने का मूल आधार हैं। जिस व्यक्ति को खाया हुआ भोजन ठीक तरह हजम होगा और जिसका मलाशय शुद्ध दशा में रहेगा, उसे किसी प्रकार का रोग होने की बहुत ही कम संभावना रहेगी। इसके विपरीत जो लोग अधूरी श्वास लेंगे, उनका ‘डायाफ्राम’ तनने तथा सिकुड़ने की क्रिया न कर सकेगा और परिणामस्वरूप ये भीतरी अंग और जीवनरस उत्पन्न करने वाली बड़ी ग्रंथियाँ आदि निस्तेज और ढीलेपन से कार्य करने वाली बनी रहेंगी।”
अधिकांश व्यक्ति व्यायाम का तात्पर्य दंड-बैठक, डंबल, मुगदर या ‘ड्रिल’ जैसी बाहरी शारीरिक अंगों पर जोर डालने वाली कसरतों को ही समझते हैं। इससे मांसपेशियाँ सुदृढ़ और सुडौल बनती हैं और अधिक श्रम का काम करने में समर्थ होती हैं। यह अभ्यास अवश्य ही स्वास्थ्यवर्द्धक और लाभदायक है, पर प्रत्येक सामान्य स्थिति का व्यक्ति नित्य प्रति इतना अधिक व्यायाम करने का अवसर नहीं पाता, जिससे बाहरी के साथ भीतरी अंगों का भी उचित व्यायाम हो जाए। इसलिए सामान्य जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्तियों के लिए, जिनका अधिकांश समय अपने जीवन निर्वाह के बौद्धिक या हलके श्रम का कार्य करने में व्यतीत होता है, भीतरी अंगों को स्वाभाविक स्थिति में रखने के निमित्त श्वास व्यायाम या प्राणायाम जैसी क्रिया दस-बीस मिनट कर लेना हितकारी है। यह निश्चित है कि शरीर के जिस किसी अंग का नियमित व्यायाम नहीं होगा, वह धीरे धीरे निर्बल और बेकार होता जाएगा और इसका हानिकारक प्रभाव संपूर्ण शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ेगा। इस दृष्टि से पूरी और गहरी श्वास लेने का अभ्यास करना और ऐसी आदत डालना कि वह हमारे रहन-सहन का एक स्वाभाविक अंग (अभ्यास) बन जाए, स्वास्थ्य-वृद्धि की दृष्टि से अनिवार्य है।