प्राणशक्ति और प्राणायाम
हमारा शरीर पंचतत्त्वों से मिलकर बना है। साधारण दृष्टि से देखने पर मिट्टी, जल, वायु आदि तत्त्व सर्वथा जड़ पदार्थ प्रतीत होते हैं, पर इन्हीं के विधिपूर्वक मिला दिए जाने से मानव देह जैसे अद्भुत क्रियाशील और क्षमतायुक्त यंत्र का निर्माण हो जाता है। सामान्य रीति से देखने पर हमें लाखों मन मिट्टी के ढेर चारों तरफ पड़े दिखाई देते हैं, जल की अनंत राशि भी कुएँ, तालाब, नदी, समुद्र आदि में भरी हुई है, वायु रात-दिन हमारे इर्द गिर्द छोटे से छोटे स्थान में भी व्याप्त रहती ही है। बाह्य रूप में हमको इनमें कोई ऐसी विशेषता या शक्ति नहीं दिखाई पड़ती, जिससे यह अनुमान किया जा सके कि हमारा यह महान शक्तियों से संपन्न, अस्थि, मांस, रक्त, नाड़ियाँ, स्नायु, पाचन संस्थान, श्वास-तंत्र, मस्तिष्क आदि से युक्त शरीर इन तुच्छ-से मालूम पड़ने वाले पदार्थों के संयोग से निर्मित हुआ होगा। पर वास्तविकता यही है कि मानव शरीर ही नहीं, हाथी जैसे विशाल प्राणी से लेकर चींटी तक की देह-रचना पंचतत्त्वों के संयोग से हुई है और जब तक वे जीवित रहते हैं, तब तक इन्हीं तत्त्वों से पोषण और शक्ति प्राप्त होती रहती है।
प्राणतत्त्व की विद्यमानता
इसमें कोई संदेह नहीं कि भौतिक पदार्थों के मुख्य उपादान के ये पाँचों तत्त्व जड़ माने गए हैं। धर्मशास्त्र वालों ने ही नहीं, दार्शनिक और वैज्ञानिकों ने भी विश्व-रचना के कार्य में जड़ और चेतन के विभाजन को स्वीकार किया है। पर जड़ होते हुए भी इनके अणु-अणु में एक ऐसी शक्ति समाई रहती है, जो अवसर आने पर सृष्टि रचना की रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा परिवर्तित होकर क्रियाशीलता के रूप में प्रदर्शित होने लग जाती है। इस शक्ति के प्रताप से मिट्टी के शून्य मैदानों और खेतों में वर्षा के जल का संयोग होते ही जीवनदायिनी वनस्पतियों, फूलों और फलों का आविर्भाव हो जाता है। जीवन की उत्पत्ति, वृद्धि और उसके संचालन में भी इसी शक्ति का सर्वाधिक महत्त्व माना जाता है। अगर यह शक्ति न होती, तो पंचतत्त्वों के होते हुए भी सब कुछ मुरदा, जीवनशून्य पड़ा रहता। यह शक्ति ‘प्राण’ के नाम से प्रसिद्ध है और संसार को जड़ से चेतन बनाने में मुख्य साधन रूप है।
यह ‘प्राण’ एक विश्वव्यापी तत्त्व है, जो प्रत्येक पदार्थ और प्राणी में पाया जाता है। अंतर इतना ही है कि जड़ पदार्थों में वह सुप्त अथवा निष्क्रिय रूप में उपस्थित रहता है और चैतन्य अथवा क्रियाशील प्राणियों में चलने-फिरने, खाने-पीने, सोने-जागने आदि के रूप में दिखाई देता है। बहुत-से लोग प्राण और जीवन को एक ही समझते हैं। अनपढ़ तथा अज्ञानी व्यक्ति ही ऐसी भ्रमपूर्ण मान्यता नहीं रखते, वरन भौतिकवाद के अनुयायी विज्ञानवेत्ता भी अपनी खोज और जानकारी में प्राणतत्त्व तक ही सीमित रह जाते हैं। पर भारतीय तत्त्ववेत्ताओं ने इस क्षेत्र में यहाँ तक प्रगति की है कि वे जान गए हैं कि जीव परमात्मा का अंश है, जिसका कभी नाश नहीं हो सकता। इसके विपरीत ‘प्राण’ एक संसार-संचालिका शक्ति है, जो सृष्टि के आरंभ से अंत तक रहती है।
प्राणशक्ति की प्राप्ति
यों तो संसार के प्रत्येक पदार्थ में, चाहे वह किन्हीं तत्त्वों के न्यूनाधिक परिमाण से क्यों न बना हो, प्राण का अस्तित्व अनिवार्य रूप से रहता है; पर वायु के तरल और अपेक्षाकृत सूक्ष्म तत्त्व होने के कारण उससे हम प्राण को सुगमतापूर्वक पृथक करके शरीर में ग्रहण कर सकते हैं। यही कारण है कि प्राचीन समय से हमारे ऋषि-मुनियों ने ‘प्राणायाम’ की कठिन और सरल अनेक विधियाँ प्रचलित की थीं और यह नियम बनाया था कि प्रत्येक व्यक्ति संध्यावंदन के साथ अधिक नहीं हो, तो दस-पाँच प्राणायाम अवश्य कर ले। इतना ही नहीं, उन्होंने मनुष्य से होने वाले छोटे-मोटे पापों का प्रायश्चित भी प्राणायाम के रूप में ही रखा था।
यह पूछा जा सकता है कि प्रत्येक मनुष्य स्वाभाविक रूप से श्वास लेता ही रहता है, फिर उसके लिए विशेष रूप से उपदेश देने अथवा प्रयत्न करने की क्या आवश्यकता है? इस संबंध में स्वामी विवेकानंद के अमेरिकन शिष्य योगी रामचारक ने अपनी ‘श्वास विज्ञान’ नामक पुस्तक में एक बड़ी उपयोगी और सरलता से समझने लायक बात लिखी है। उन्होंने बतलाया है कि प्राणशक्ति को शरीर के भीतर ग्रहण करने और उससे लाभ उठाने के लिए उसे तालयुक्त रूप में अथवा नियमित गति के साथ ग्रहण करना आवश्यक है। अपने कथन की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा है-
“विश्व के समस्त पदार्थ स्फुरण या कंपन (वाइब्रेशन) की स्थिति में रहते हैं। छोटे से छोटे परमाणु से लेकर बड़े से-बड़े सूर्य तक भी स्फुरण की दशा में हैं। प्रकृति में कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है। यदि एक परमाणु भी कंपनरहित हो जाए, तो सारी सृष्टि नष्ट हो सकती है। अनवरत स्फुरण से ही विश्व का कार्य-संचालन हो रहा है। द्रव्य के ऊपर शक्ति का प्रभाव पड़ता है, जिससे अगणित रूप और असंख्य भेद उत्पन्न होते हैं। यह भेद और रूप नित्य नहीं हैं, परंतु इनका मूल, जो एक महान सत्य है, वह अपरिवर्तनीय और नित्य अवश्य है।
“मानव शरीर के परमाणुओं में भी अनवरत स्फुरण होता रहता है। सदैव अनंत परिवर्तन हुआ करते हैं। जिन परमाणुओं से यह शरीर बना है, उनमें थोड़े ही दिनों में परिवर्तन हो जाता है। आज जिन परमाणुओं से हमारी देह बनी है. कुछ महीनों या वर्षों बाद उनमें से शायद एक भी शेष नहीं रहेगा। बस स्फुरण, लगातार स्फुरण, परिवर्तन, लगातार परिवर्तन-यह ब्रह्मांड और पिंड दोनों का नियम है।
“वे सब स्फुरण एक तालयुक्त गति से होते हैं। यह ताल समस्त विश्व में व्याप्त है। ग्रहों के सूर्य के गिर्द घूमने, समुद्र में ज्वार और भाटा आने, हृदय के धड़कने- सबमें तालयुक्त गति का नियम पाया जाता है। हमारा शरीर भी ताल के नियम का वशवर्ती है। श्वास विज्ञान का तत्त्व अधिकांश में प्रकृति के इसी विषय पर आधारित है। यदि हम श्वास-प्रश्वास की गति में तालयुक्त स्थिति रख सकें, तो अपेक्षाकृत अधिक प्राणतत्त्व आकर्षित कर सकते हैं और असाधारण लाभ उठा सकते हैं।”
यदि विचार किया जाए तो हम प्राण या जीवनीशक्ति के समुद्र में पड़े हुए हैं और प्राकृतिक नियमों के अनुसार चलकर इस महासमुद्र में से कितना भी प्राण ग्रहण कर सकते हैं। तालयुक्त क्रिया में बहुत अधिक शक्ति होती है। उससे बड़े-बड़े कार्य सहज में सिद्ध हो सकते हैं। वर्तमान समय में अधिकांश मनुष्यों ने अपना जीवन ऐसा व्यस्त, कृत्रिम और प्रकृति विरुद्ध बना रखा है कि वे इस तालयुक्त गति से विचलित हो जाते हैं और इसके फलस्वरूप तरह- तरह की असुविधाओं, आधि-व्याधि को भोगते रहते हैं।
इसी तालयुक्त श्वास-प्रश्वास की स्वाभाविक क्रिया के अभ्यास को ‘प्राणायाम’ कहते हैं। सच पूछा जाए तो, जैसा कि अनेक लोगों का ख्याल है, प्राणायाम के लिए श्वास को बहुत लंबा खींचना अथवा देर तक भीतर रोके रखना अति लाभदायक नहीं है। प्रभावशाली विधि यही है कि हमारी श्वास लगातार एक ही गति से तालयुक्त चलती रहे। श्वास विज्ञान के ज्ञाताओं ने निश्चय किया है कि प्रत्येक मनुष्य २४ घंटे में २१ हजार ६०० बार श्वास लेता है। इस हिसाब से हम एक घंटे में ९०० और एक मिनट में १५ बार श्वास लेते हैं और निकालते हैं, पर काम-काज की व्यस्तता और तरह-तरह के मानसिक आवेशों के कारण इसकी गति चाहे जब बढ़ जाती है। आयुर्वेद के ग्रंथों में बतलाया गया है, मैथुन (masturbation) के समय श्वास की गति सबसे अधिक बढ़ती है, अतः जो मैथुन में आसक्त रहते हैं, वे अपनी आयु को घटालेते हैं।
‘प्राणायाम’ करने की सबसे सरल विधि
इस प्रकार श्वास-प्रश्वास की गति को तालयुक्त अथवा नियमित करना ही वास्तव में ‘प्राणायाम’ का लक्ष्य है। जो लोग आधुनिक सभ्यता से दूर बहुत छोटे गाँवों या जंगलों में रहते हैं और अनावश्यक आवेशों से बचे रहकर प्राकृतिक जीवन व्यतीत करते रहते हैं, उनकी श्वास प्रायः नियमित रूप से ही चला करती है। इससे वे अधिकांश में स्वस्थ भी रहते हैं। पर बड़े शहरों के निवासियों को प्रायः भाग-दौड़ की जिंदगी बितानी पड़ती है और तरह-तरह के आवेशों के अवसर भी अक्सर आते रहते हैं, इसलिए उनकी श्वासगति में अंतर पड़ता रहता है। ऐसे लोग यदि दिन-प्रतिदिन एकाध घंटा आसन पर सीधे बैठकर माला के द्वारा अथवा गिनती गिनकर श्वास-प्रश्वास की गति को नियमित करने का अभ्यास करें, तो श्वास लेने की अनियमितता घट जाएगी और इसका सुपरिणाम उनके शरीर और स्वास्थ्य पर पड़ने लगेगा।
हठयोग के आचार्यों ने इसी श्वास-प्रश्वास को अनेक प्रकार से खींचने-रोकने तथा बाहर निकालने की विधियाँ ढूँढ़कर ६० प्रकार के ‘प्राणायामों’ का एक विशाल ढाँचा तैयार कर दिया है। इन सबकी बारीकियों का समझना और उनको पूरा कर सकना सर्वसाधारण का काम नहीं है। यह संभव है कि उन विधियों में से अनेक भिन्न-भिन्न रोगों को मिटाने वाली तथा शारीरिक त्रुटियों की पूर्ति करने वाली हों, पर हम आधुनिक समाज में रहकर सामान्य जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्तियों के लिए इनकी सलाह नहीं दे सकते। उनके लिए वे एक तमाशे की तरह ही सिद्ध होंगी और यह भी असंभव नहीं कि उनका उलटा-सीधा प्रयोग करके, विधि में किसी तरह की गलती करके छोटी या बड़ी हानि उठानी पड़े। इसीलिए यह कहावत प्रसिद्ध हो गई है-‘ देखा-देखी साथै योग, छाजै काया बाढ़े रोग।’
निस्संदेह ‘योग’ एक महान विज्ञान है और उससे असाधारण शक्तियाँ प्राप्त की जा सकती हैं, पर वह उन्हीं के लिए संभव है, जो सांसारिक व्यवहार को त्यागकर किसी एकांत स्थान में रहकर इसी कार्य के लिए जीवन को अर्पण कर दें। जो सामान्य लोगों के सामने इसकी लंबी- चौड़ी चर्चा करते हैं अथवा जो लोग इधर-उधर की बातें सुनकर ‘योगी’ बनने की कल्पना करने लगते हैं, वे गलती करते हैं और उन्हें उसका हानिकारक परिणाम भी सहन करना पड़ता है।
हम श्वास विज्ञान की शिक्षा को एक सामाजिक मनुष्य के लिए वहीं तक उपयोगी समझते हैं कि वह अपना नित्य-नैमित्तिक कार्य करते हुए थोड़ी देर के लिए एक प्रकार का श्वास व्यायाम कर ले, जिससे श्वास-तंत्र की सफाई हो जाए और नियमित श्वास लेने का अभ्यास स्थिर बना रहे। इसके लिए प्रातःकाल या सुविधा के किसी अन्य नियत समय पर सुखासन पर बैठकर एक घंटा या आधा घंटा ‘ॐ’ ‘सोऽहं’ या कोई अन्य जप माला लेकर करता रहे और उसके साथ इस बात का ध्यान रखे कि श्वास एक नियमित गति से चलती रहे। कुछ विद्वानों के मतानुसार इसके लिए ‘सोऽहं’ का जप अधिक उपयुक्त है, क्योंकि श्वास को भीतर खींचने में स्वभावतः ‘सों-सों’ का-सा शब्द होता है और बाहर निकालने में ‘हं-हं’ की-सी ध्वनि होती जान पड़ती है। इसलिए यदि श्वास खींचते समय ‘सो’ और बाहर निकालते समय ‘हं’ की भावना रखी जाए तो यह ‘सोऽहं’ के अजपा जाप का रूप ग्रहण कर लेता है। लगातार इस नियम के पालन से कुछ समय बाद जप के समय को छोड़कर अन्य समय भी यह भावना न्यूनाधिक परिमाण में बनी रहती है, जिसका सुफल शरीर और मन को प्राप्त होना स्वाभाविक ही है।
श्वास-व्यायाम के अन्य प्रयोग
भारतीय योगशास्त्र में प्राणायाम की जो विधियाँ बतलाई गई हैं, वे समय के परिवर्तन के कारण बहुत बड़ी या कठिन साधना बन गई हैं। जिस समय पातंजल योगसूत्रों की रचना हुई, उस समय से देश-काल में जमीन आसमान का अंतर पड़ गया है। उस समय देश की जनसंख्या शायद दस-पाँच करोड़ होगी, जो आज कई गुनी हो गई है। उस समय वन और जंगलों की बहुलता थी, जिससे वायु में प्राणवायु (ऑक्सीजन) अधिक मात्रा में पाई जाती थी और सामान्य व्यक्तियों को भी बिना प्रयास मिला करती थी। उस समय आहार की प्रत्येक वस्तु शुद्ध मिलती थी और खान- पान तथा रहन-सहन की विधियाँ अत्यंत सरल तथा प्रकृति के अनुकूल थीं। इसलिए लोगों में इतनी क्षमता थी कि वे प्राणायाम आदि क्रियाओं को सहज ही कर सकते थे और प्राणतत्त्व को, जो सब पदार्थों में पर्याप्त मात्रा में पाया जाता था, इच्छित मात्रा में आकर्षित कर सकते थे।वर्तमान स्थिति इससे सर्वथा विपरीत हो गई है। आबादी के बेहद बढ़ जाने से वन-जंगल प्रायः सभी कट चुके हैं और बड़े-बड़े नगरों तथा कसबों में जनसंख्या इतनी घनी बसी रहती है कि श्वास के लिए शुद्ध वायु मिल सकना भी एक समस्या बन गई है। खाने-पीने की प्रत्येक चीज कृत्रिम, मिलावटी या स्वत्वरहित मिलती है, जिसमें प्राणतत्त्व अत्यंत न्यून पाया जाता है। ऐसी दशा में प्राणायाम का अभ्यास करने पर भी वायुमंडल के समीपस्थ वातावरण से यथेष्ट ‘प्राण’ प्राप्त कर सकना संभव नहीं होता। इसलिए यहाँ पर हम प्राचीन प्राणायाम विधियों के बजाय श्वास व्यायाम के कुछ ऐसे अभ्यास देते हैं, जिनको आसानी से बिना किसी खतरे के किया जा सकता है और शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत लाभ उठाया जा सकता है।
प्राणाकर्षण के अभ्यास
जिन लोगों ने पहले कभी प्राणायाम के लिए प्रयत्न न किया हो, उनके लिए सबसे सरल विधि यह है कि प्रातःकाल शौच, स्नान आदि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर सुखासन पर ध्यान की अवस्था में नेत्र बंद करके बैठ जाएँ और सब प्रकार के विचारों को त्यागकर यह कल्पना करें कि हम प्राणों के महासमुद्र के बीच बैठे हैं। श्वेत बादलों के रूप में प्राणतत्त्व हमारे चारों ओर सर्वत्र व्याप्त है और समुद्र की लहरों की तरह उफन रहा है।
अब नाक के दोनों नथुनों से अपनी स्वाभाविक गति से श्वास भीतर खाँचिए और यह भावना करते जाइए कि जो प्राण-प्रवाह हमारे आस-पास उपस्थित है, वह श्वास के द्वारा भीतर जा रहा है और अंग प्रत्यंग में व्याप्त हो रहा है। श्वास को सुविधापूर्वक थोड़ी देर तक रोके रहिए और उसके पश्चात धीरे-धीरे बाहर निकाल दीजिए। जैसा कि हम अन्यत्र बतलाते आए हैं, श्वास को बहुत लंबी खींचने या ज्यादा देर तक रोकने की चेष्टा कभी नहीं करनी चाहिए। इस समस्त क्रिया को इस प्रकार करना चाहिए कि वह स्वाभाविक जान पड़े तथा शरीर और मन पर किसी प्रकार का भार न मालूम हो। जो लोग ज्यादा रोकने की कोशिश करते हैं, उनकी श्वास बाद में बहुत जल्दी बाहर निकल जाती है। यह स्थिति अलाभकर है। श्वास के निकलने में उतना समय अवश्य लगाना चाहिए, जितना भीतर खींचने में लगाया गया था।
यह क्रिया पाँच-सात बार उतनी ही करनी चाहिए, जिससे कोई थकावट या भार प्रतीत न हो। अभ्यास होते-होते अगर पंद्रह-बीस बार तक बढ़ जाए, तो ठीक ही है। इसमें पंद्रह मिनट से आधा घंटा तक का समय लगाना पर्याप्त होता है। इतनी देर प्रतिदिन नियमित रूप से प्राणाकर्षण क्रिया कर लेने से स्वास्थ्य पर अद्भुत प्रभाव पड़ता है और अपने भीतर एक नवीन शक्ति का अनुभव होने लगता है।
‘नाड़ी-शोधन’ का अभ्यास
इस अभ्यास को करते समय आसन पर बैठकर पहले दायाँ नथुना उँगली से बंद करके श्वास खींची जाए। श्वास इतनी हो होकि वह केवल फेफड़े तक ही ही नहीं रह जाए, वरन उससे पेट भी कुछ फूल जाए। फिर उसको बिना रोके धीरे-धीरे बाहर निकाल दिया जाए। ऐसा तीन बार करके फिर बाएँ नथुने को बंद करके दाएँ से इसी प्रकार तीन बार श्वास खींची और निकाली जाए। अंत में दोनों नथुनों से एक साथ एक बार खींचकर मुख से बाहर निकाल दी जाए। इस क्रिया में बिना किसी प्रकार का भार अनुभव किए सुविधापूर्वक जितना हो सके, अधिक श्वास भीतर ले जानी चाहिए, जिससे वह नाड़ियों को अधिक परिमाण में प्रभावित कर सके और उसके भीतर जमा मलांश पिघलकर श्वास के साथ बाहर निकल जाए। इस अभ्यास के नियमित रूप से करने से शरीर का भारीपन मिटकर भीतरी भाग के शुद्ध और हलका होने का अनुभव होने लगता है। इससे नाड़ियों की सफाई होकर रक्त का दौरा अधिक आसानी से होने लगता है और स्वास्थ्य में सुधार के चिह्न प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने लगते हैं।
यह अभ्यास आसन पर बैठकर ही नहीं, वरन टहलते अथवा लेटे हुए भी किया जा सकता है। अधिक परिमाण में श्वास को भीतर खींचकर उसी गति से बाहर निकालने से शोधनक्रिया में सहायता मिलती है। इसमें भी तालयुक्त गति का भाव रखा जाए अर्थात श्वास को भीतर खींचने और निकालने का समय प्रत्येक बार में समान रखने की चेष्टा की जाए, जिससे धीरे-धीरे एक संगीत की-सी भावना पैदा होने लगे। इस उपाय से मन के भीतर एक तन्मयता का भाव उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार साधारण श्वास लेने की अपेक्षा बहुत अधिक लाभ होने लगता है। यदि आरंभ में अपने आप श्वास खींचने और निकालने में एकरूपता न आ सके, तो गिनती गिनते हुए पाँच-छह तक श्वास खींचनी और उतनी ही देर तक निकालनी चाहिए। धीरे-धीरे यह समय आठ-दस संख्या तक बढ़ाया जा सकता है। यह गिनती सामान्य गति से ध्यान द्वारा ही गिननी चाहिए, मुँह से बोलने की आवश्यकता नहीं। इस प्रयोग से श्वास के खींचने और निकालने का समय सहज में बराबर हो सकता है।
प्राणायाम से आध्यात्मिक उन्नति
ऊपर ‘श्वास अभ्यास’ की जो विधियाँ बताई गई हैं, उनका उद्देश्य मुख्यतः शरीर को निर्मल, स्वच्छ और स्वस्थ बनाना है, जिससे हमारा अन्नमय शरीर सुदृढ़, सशक्त और कार्यक्षम बना रहे। पर शरीर और मन का अविच्छिन्न संबंध है। एक का प्रभाव दूसरे पर अवश्य पड़ता है। जिस प्रकार अनेक शारीरिक रोग मानसिक चिंता, कुंठा और दुर्भावनाओं से उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार शरीर के अस्वस्थ, पीड़ित, कष्ट से ग्रस्त बने रहने का कुप्रभाव मन पर पड़ता है। उस अवस्था में उसके द्वारा श्रेष्ठ और शुभ चिंतन हो सकना कठिन हो जाता है। इसलिए जब हम उत्तम आरोग्य की अवस्था में रहते हैं, शरीर में शक्ति का अनुभव करते हैं, तो उस समय हमारा मन भी उत्साह, उल्लासपूर्ण और सुखी रहता है। उसी दशा में हम उसके द्वारा धार्मिक, आध्यात्मिक, पारलौकिक विषयों का भली प्रकार चिंतन कर सकते हैं और इस दृष्टि से किसी प्रकार की महत्त्वपूर्ण प्रगति करने में समर्थ हो सकते हैं।
जैसा कि अनेक पाठक जानते होंगे, यह मानव शरीर जो आँखों से दिखलाई पड़ता है, ‘स्थूलशरीर’ या ‘अन्नमय शरीर’ कहा जाता है। यद्यपि सामान्य मनुष्य इसी को सब कुछ समझते हैं, जीवन और मरण का आधार भी इसी को मानते हैं। पर वास्तविक बात ऐसी नहीं है। यह शरीर जड़ पदार्थ है और जब तक इसे भीतर रहने वाले ‘सूक्ष्मशरीर’ का सहयोग नहीं मिलता, तब तक यह कुछ भी करने में समर्थ नहीं होता। इस सूक्ष्म शरीर में ही प्राणों का अवस्थान रहता है, इसलिए उसे प्राणमय शरीर भी कहते हैं। यह प्राणमय शरीर मस्तिष्क के द्वारा समस्त शारीरिक अंगों का संचालन करता है, समस्त ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों का नियंत्रण भी इसी के द्वारा होता है। जब तक यह यथास्थान और सक्रिय रहता है, तभी तक ‘अन्नमय शरीर’ भी कार्यक्षम और जीवित रहता है। इसकी स्थिति में व्यतिक्रम आ जाने से या निष्क्रिय हो जाने पर हमारी भौतिक देह भी क्रियाशून्य हो जाती है और तब उसकी गिनती मृत अथवा जड़ पदार्थों में होने लगती है। इसी दृष्टि से सामान्य बोलचाल की भाषा में मृत व्यक्ति के शव को ‘मिट्टी’ कहा जाता है।