मनुष्य के भोजन के लिए अब तक जितने पदार्थों की खोज की गई है दूध का स्थान उनमें बहुत ऊँचा है। यद्यपि जन्म लेने के बाद शैशवावस्था में हम सबको कुछ समय तक दूध पर ही निर्भर रहना पड़ता है और उसके बाद भी कई वर्षों तक शरीर को उचित पोषण मिलने के लिए अन्य खाद्य पदार्थों के साथ दूध का प्रयोग अनिवार्य माना जाता है, पर दूध की उपयोगिता इतने पर ही समाप्त नहीं हो जाती। जो लोग स्वास्थ्य रक्षा के प्रति जागरूक होते हैं, आजीवन दूध का प्रयोग न्यूनाधिक मात्रा में करते ही रहते हैं और इसके फलस्वरूप निस्संदेह वे अनेक रोगों और निर्बलता से बचे रहकर शक्ति-संपन्न जीवन व्यतीत करते हैं।
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि भारतवर्ष में दूध का यह महत्त्व आज से नहीं हजारों वर्षों से ज्ञात है और एक समय ऐसा था जबकि वास्तव में इस देश में ‘दूध की नदियाँ’ बहती थीं। वेदों के अध्ययन से पता चलता है कि उस अति प्राचीन युग के भारतवासियों का मुख्य आहार दूध ही था। उस समय जंगलों और चरागाहों की अधिकता से प्रत्येक गृहस्थ सैकड़ों-हजारों गायें पाला करता था और उनसे आवश्यकतानुसार पर्याप्त दूध सहज में मिल जाता था। उस समय खेती का प्रचार भी आरंभिक अवस्था में था और मनुष्य थोड़ा-बहुत जौ, मोटा चावल आदि पैदा करके ही काम चला लेते थे। सच बात तो यह है कि दूध जैसा पौष्टिक और शरीर की सब आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला पदार्थ मनमानी मात्रा में मौजूद होने से अन्य प्रकार के यत्नसाध्य खाद्यों को उत्पन्न करने की उन्हें आवश्यकता भी प्रतीत न होती थी। फल भी पर्याप्त श्रेष्ठ आहार है पर उपयुक्त फलों की प्राप्ति प्राचीनकाल में भी सर्व-सुलभ नहीं थी और इस समय तो अत्यंत व्ययसाध्य हो गई है। इसलिए फलों पर पूर्ण रूप से निर्वाह करने वालों की संख्या सदा अल्प ही रही है।
भारतीय शास्त्रों तथा धर्म-ग्रंथों में गौ की जो अपार महिमा लिखी है, उसका मुख्य कारण उसका अमृतोपम दूध ही है। दूध को प्राचीन विद्वानों ने भूलोक का अमृत बतलाया है और उसके प्रयोग से महान फलों की प्राप्ति के उदाहरण लिखे हैं। जब सूर्यवंश के प्रतापी महाराज दिलीप ने अपनी संतानहीनता के निवारण का उपाय महर्षि वसिष्ठ से पूछा तो उन्होंने उन दोनों पति-पत्नी को कुछ समय तक सब कार्य छोड़कर एकाग्र भाव से गौ-सेवा और दुग्ध-कल्प का निर्देश किया। महाराज दिलीप और उनकी पत्नी तन-मन से गौ-सेवा करने लगे और उसी के दूध का सेवन करने लगे। इसके फल से कुछ ही समय में उनका शरीर ऐसा निर्मल हो गया कि उनका मनोरथ पूर्ण हुआ और श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति हुई। महाराज दशरथ ने भी संतान के लिए जो यज्ञ आयोजन किया, उसमें उनकी रानियों को मुख्यतः दूध से बनी खीर का ही सेवन कराया गया था। वैद्यक ग्रंथों में सैकड़ों कठिन रोगों में गौ-दुग्ध सेवन का ही विधान है। वास्तव में स्वास्थ्य को उत्तम बनाए रखने और जीवन का सुख पाने के लिए दूध का प्रयोग अनुपम ही है।
भारतीय वैद्य ही नहीं, यूनानी चिकित्सा के अनुयायी हकीम और यूरोपियन डॉक्टर भी सदा से दूध के महान गुणों को जानते और मानते आए हैं। हकीमों के मतानुसार ज्वर को दूर करने के लिए दूध से बढ़कर और कोई साधन नहीं। यूरोप के डॉक्टर हाफमैन ने एक जगह लिखा है- ” पुराने जमाने से रोगियों के लिए दूध का प्रयोग ऐसा अनिवार्य साधन रहा है जैसा जहाज के लिए लंगर।” अन्य विद्वानों तथा अनुभवी पुरुषों ने भी दूध की ऐसी ही प्रशंसा की है और उसे सब तरह के रोगों तथा शारीरिक त्रुटियों के लिए लाभजनक बताया है।
दीर्घ जीवन का साधन
दूध के भोजन से स्वभावतः ही मनुष्य का स्वास्थ्य रोग- दोषों से इतना बचा रहता है कि उसकी शक्ति शीघ्र ही क्षीण नहीं होती और वह प्रायः दीर्घजीवी होता है। स्वास्थ्य विज्ञान के ज्ञाताओं के मतानुसार बुढ़ापा और निर्बलता का मुख्य कारण शरीर की नस-नाड़ियों में विजातीय द्रव्य इकट्ठा होना बतलाया गया है। इसका कारण प्रायः गरिष्ठ और तरह-तरह के अस्वाभाविक भोजन करना होता है। पर दूध का आहार आँतों से विजातीय द्रव्य को बाहर निकालकर उन्हें शुद्ध बनाता है। दीर्घायु व्यक्तियों की जाँच करने वाले डॉक्टरों ने पता लगाया है कि आजकल सबसे अधिक संख्या में दीर्घजीवी बलगेरिया में पाए जाते हैं और इसका कारण यही है कि वहाँ के निवासी काफी गायें पालते हैं और हँसी का व्यवहार करते हैं। रूसी डॉक्टर मैचनिकाफ ने बहुत वर्षों पहले घोषित किया था कि दूध से बने मठा या छाछ में आँतों में पाए जाने वाले रोग-कीटाणुओं को नष्ट करने की अद्भुत शक्ति है और जो व्यक्ति दीर्घजीवन की कामना करते हैं, उनको अवश्य ही नियमित रूप से मठा और दूध का प्रयोग करना चाहिए।
एक विद्वान का कथन है कि एक सेर दूध में जितना जीवन तत्त्व होता है, उतना तीन सेर मांस या ८ अंडे अथवा डेढ़ सेर काडलिवर से प्राप्त हो सकता है। इससे स्पष्ट है कि जो व्यक्ति प्रतिदिन सेर या आधा सेर दूध का सेवन करते रहते हैं, वे अपने शरीर को बड़ी उपयोगी और बहुमूल्य जीवन-सामग्री देते रहते हैं। प्रतिदिन कार्य करने से हमारे शरीरस्थ अणुओं (सेलों) की जो टूट-फूट होती है, उनकी सबसे अच्छी पूर्ति दूध द्वारा ही होती है, क्योंकि इसमें शरीर-निर्माण के समस्त तत्त्व उचित परिमाण में मिले रहते हैं। पर अन्य प्रकार के आहारों से, जो कठिनाई से पचते हैं अथवा जो मानव प्रकृति की दृष्टि से अस्वाभाविक होते हैं, नए सेलों का निर्माण ठीक ढंग से नहीं हो पाता और निर्बलता उत्पन्न होने लगती है।
दूध की आरोग्यवर्द्धक शक्ति
दूध की आरोग्यवर्द्धक शक्ति का मुख्य आधार यह है कि उसमें नया रक्त बनाने वाले सब तत्त्व उचित परिमाण में पाए जाते हैं और वह सरलता से पच जाता है। अन्य प्रकार के खाद्य पदार्थों के बारे में यह विचार करना पड़ता है कि उसमें कौन-से तत्त्व हैं और कौन-से तत्त्वों का अभाव है? जिनकी पूर्ति के लिए अन्य पदार्थ ढूँढ़े जाएँ। पर दूध एक ऐसा पदार्थ है, जिसमें हमारी बाहरी और भीतरी आवश्यकताओं को पूरा करने वाले लगभग सभी तत्त्व प्राप्त हो जाते हैं और जो सामान्य अवस्था में किसी प्रकार की खराबी पैदा नहीं करता। अमेरिकन प्राकृतिक चिकित्सक डॉ. मैकफेडन का कथन है- “दूध के आहार पर रहने वाले को इस बात की चिंता नहीं करनी पड़ती कि इसमें कौन-कौन विटामिन या खनिज लवण या अन्य पोषक पदार्थ हैं और कौन से नहीं हैं ? दूध में हर एक जरूरी विटामिन और पोषक तत्त्व उचित मात्रा में और सजीव अवस्था में रहता है और रोगी का शरीर शीघ्र ही इस अति सुपाच्य आहार को ग्रहण कर लेता है।” एक अन्य डॉक्टर लिंडलार का मत है- “दूध-सा संतुलित भोजन दूसरा नहीं है। यही एक भोजन है कि जिसमें प्रकृति ने शरीर के लिए सभी तत्त्व जमा कर दिए हैं। अतः दूध को भोजन का (मापदंड) मानना चाहिए।”
बालक, अधिक बूढ़े और रोगी व्यक्ति तो बरसों तक दूध पर रहते ही हैं, बड़ी उम्र के व्यक्ति भी यदि चाहें तो बहुत समय तक केवल दूध पर निर्वाह कर सकते हैं और इससे कोई खराबी पैदा नहीं हो सकती। ऐसे लोगों के उदाहरण मौजूद हैं जिनको विशेष कारणवश तीस-चालीस वर्ष तक केवल दूध पर ही रहना पड़ा और वे अपना जीवन अन्य साधारण लोगों की तरह बिना किसीकठिनाई के व्यतीत करते रहे।
तो भी हमारे कहने का आशय यह नहीं है कि अधिकांश वयस्क और स्वस्थ लोगों को केवल दूध पर निर्वाह करना चाहिए। प्रथम तो वर्तमान समय में जबकि दूध का अभाव होता जाता है और उसका मूल्य भी दिन पर दिन बढ़ता जाता है, यह अधिकतर लोगों के लिए संभव नहीं है, फिर इस समय हमारा रहन-सहन जैसा बन गया है और सैकड़ों पीढ़ियों से अन्न का व्यवहार करते रहने से हमारे संस्कार जैसे बन गए हैं, उसमें लगातार दूध पर रहने से हमको संतोष भी नहीं हो सकता। इसलिए जब हम दूध-सेवन की सलाह देते हैं कि स्वास्थ्य को उत्तम रखने के लिए हमको दूध को अपनी आहार-सामग्री का एक अंग बनाना चाहिए, तो इसका आशय यही है कि अपनी परिस्थिति और साधनों के अनुसार हम कम या अधिक परिमाण में दूध का नियमित सेवन अवश्य करें। यह स्त्री-पुरुष, युवा-वृद्ध, रोगी-निरोगी सबके लिए हितकर खाद्य है। ऐसे व्यक्ति शायद उँगलियों पर गिनने लायक ही मिलेंगे जो कह सकें कि दूध का प्रयोग उनको हानि पहुँचाता है। पर उनकी भी अगर जाँच की जाए तो मालूम होगा कि वे दूध के व्यवहार का ठीक तरीका नहीं जानते या उन्होंने किसी प्रकार के अस्वाभाविक रहन-सहन से अपनी आँतों को ऐसा बिगाड़ लिया है कि उनको दूध से विरक्ति हो गई है और इसलिए वे उसमें दोषों का अनुभव करने लगते हैं।
दूध के गुणकारी तत्त्व
दूध का अधिकांश (लगभग ८७ प्रतिशत) जल होता है। शेष १३(13) प्रतिशत में चिकनाई, चीनी, चूना, प्रोटीन आदि पदार्थ होते हैं। गंधक, फास्फोरस(phosphorus), लोहा(iron), सोडियम(sodium), पोटाशियम(potassium), मैग्नेशियम(magnesium), आयोडीन, खनिज-पदार्थ भी अल्प मात्रा में पाए जाते हैं।
दूध की चिकनाई को वैज्ञानिकों ने सर्वोत्तम बतलाया है। पर इसका आशय घी या मक्खन से नहीं है। जब तक यह चिकनाई दूध में मिली रहती है तभी तक वह सुपाच्य मानी जाती है और सहज में शरीर में मिल जाती है। इसका कारण यही है कि यह चिकनाई बहुत ही सूक्ष्म कणों के रूप में समस्त दूध में फैलती रहती है और इसके लिए घंटे भर में ही रस और रक्त में मिल जाती है। इसके प्रभाव से हमारे शरीर में हड्डियों के जोड़ और संधि-बंधन लचीले बने रहते हैं, पर जैसे-जैसे यह मलाई, मक्खन और घी के रूप में परिवर्तित होती जाती है, वैसे-वैसे ही अधिकाधिक गरिष्ठ और दुष्पाच्य बन जाती है। इसलिए मलाई आदि से कितने ही लोगों को अपच, दस्त, उलटी आदि की शिकायतें पैदा हो जाती हैं।
दूध में लोहे की मात्रा भी बहुत कम होती है, पर यह लोहा भी अत्यंत सूक्ष्म अवस्था में होने से सहज ही रक्त में मिल जाता है। लोहे से ही रक्त का रंग लाल बनता है। इसलिए जो लोग नियमित रूप से दूध का व्यवहार करते रहते हैं, उनका रक्त प्रायः शक्तिशाली रहता है और रोगों का मुकाबला अच्छी तरह कर सकता है। अन्य अनेक पदार्थों में भी लौह पाया जाता है और शक्तिवर्द्धन के उद्देश्य से खाई जाने वाली ‘टानिकों’ में भी उसका सम्मिश्रण होता है, पर वह रक्त में शीघ्र नहीं मिल पाता और इससे उतना लाभजनक नहीं होता, जितना दूध में मिला हुआ लौह होता है।
लैक्टोस या दूध की चीनी में कई विशेषताएँ पाई जाती हैं। हमारी बड़ी आँत (मलाधार) उसे बहुत जल्दी सोख लेती है और उसके प्रभाव से उसकी बहुत-सी खराबियाँ सहज में दूर हो जाती हैं। बच्चों के लिए यह चीनी बड़ी गुणकारी होती है। इसलिए जिन शिशुओं को आवश्यकता पड़ने पर ऊपरी दूध पिलाया जाए, तो उसमें ऊपर से बहुत ही कम चीनी मिलानी चाहिए। इसका ध्यान न रखने से दूध दुष्पाच्य हो जाता है और दूध की नैसर्गिक चीनी का प्रभाव नगण्य रह जाता है।
कैल्शियम तथा फास्फोरस भी दूध में पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं और ये हड्डियों के निर्माण और सुदृढ़ता के लिए आवश्यक माने गए हैं। इसलिए जिन बालकों को आरंभ से शुद्ध दूध मिलता रहता है, उनकी वृद्धि अपेक्षाकृत शीघ्र होती है और उनका शरीर पुष्ट तथा शक्ति-संपन्न हो जाता है। दूध में पाया जाने वाला प्रोटीन बहुत उच्च-कोटि का होता है और उससे शारीरिक अंगों के निर्माण में बड़ी सहायता मिलती है। मांस-भोजन के पक्षपाती प्रोटीन की अधिकता के कारण ही उसे उपादेय बतलाते हैं, पर मांस की प्रोटीन दूध की प्रोटीन की तुलना में बहुत घटिया होती है और सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह दूध की प्रोटीन की अपेक्षा बहुत देर में पचती है।
दूध में पाए जाने वाले विटामिन
सन् १८८५ (1885) ई. में जापानी सेना के बहुसंख्यक सिपाहियों में बेरी-बेरी का रोग फैल गया। उसके कारणों की जाँच करते हुए डॉक्टरों को यह शंका हुई कि इसका कारण कदाचित मशीन के द्वारा साफ किए हुए चावलों का प्रयोग करना है। तब उन्होंने सिपाहियों को साधारण रीति से चावल साफ करने का आदेश दिया और उससे वह रोग मिट गया। इस घटना से वैज्ञानिक इस निर्णय पर पहुँचे कि खाद्य पदार्थों में कोई ऐसी प्रभावशाली शक्ति होती है, कि जिसके पृथक हो जाने पर वह पदार्थ जैसा का तैसा दिखाई पड़ने पर भी प्रभावहीन हो जाता है। तबसे खाद्य-वैज्ञानिक निरंतर इस बात की खोज करते रहे और सन् १९१२ में डॉ० फंक ने यह सिद्ध किया कि सब खाद्य पदार्थों में ‘विटामिन’ नाम का एक रासायनिक तत्त्व रहता है। यही तत्त्व प्राणियों के शरीर में जीवनीशक्ति की वृद्धि करता है और स्वास्थ्य को स्थिर रखता है। उसके पश्चात यह खोज जारी रही और पाँच प्रकार के मुख्य तथा अन्य कई प्रकार के गौण विटामिन के नाम तथा लक्षण निर्धारित कर दिए गए।
वैज्ञानिकों ने इस बात का भी अन्वेषण किया है कि कौन-सा विटामिन किस पदार्थ में कितने परिमाण में है? अंत में बहुत अधिक परिश्रम तथा जाँच-पड़ताल के बाद उन्होंने समस्त मुख्य खाद्य-पदार्थों में पाए जाने वाले विटामिनों की एक तालिका (नक्शा) बनाकर तैयार कर दी है, जिससे एक सामान्य व्यक्ति भी यह निर्णय कर सके कि उसके शरीर को जिस विटामिन की आवश्यकता है, वह उसे पर्याप्त परिमाण में सुविधापूर्वक किस पदार्थ का प्रयोग करने से प्राप्त हो सकेगा।
इस नक्शे पर दृष्टि डालने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि ‘विटामिन’ अथवा ‘खाद्य-प्राण’ की दृष्टि से दूध का स्थान बहुत ऊँचा है। यों पालक, सलाद (लेटिस) आदि २-४ हरे पत्तेदार शाकों को यदि कच्चा खाया जाए तो उनमें सबसे अधिक विटामिन प्राप्त हो सकते हैं। पर जिन ऊँचे दर्जे की भोज्य वस्तुओं का प्रयोग हम अधिक परिमाण में नियमित रूप से किया करते हैं, उनमें दूध का ही स्थान सर्वोपरि है। लोग मांस, मछली, अंडे आदि को बहुत ताकतवर बतलाया करते हैं, पर ये तमाम पदार्थ विटामिन की निगाह से दूध से घटकर हैं। यही कारण है कि दूध का ठीक ढंग से व्यवहार करने वालों का शरीर और स्वास्थ्य निर्दोष तथा स्थायी रहता है। दूध-दही का सेवन करने वाले दीर्घजीवी होते हैं, यह हम पहले ही बतला चुके हैं।
ताजा दूध में ए, बी, सी, डी, ई,(A,B,C,D,E) पाँचों मुख्य विटामिन तथा बी १ और बी २ दोनों उप-विटामिन पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। मांस-मछली आदि किसी आमिष जातीय पदार्थ में ये सातों विटामिन एक साथ नहीं मिलते। इन विटामिनों में सबसे प्रथम स्थान विटामिन ‘ए’ का है, जिससे शरीर को उचित पोषण प्राप्त होता है और वृद्धि की गति संतोषजनक रहती है। जिन बच्चों को यह विटामिन ठीक नहीं मिलता, उनकी हड्डियाँ निर्बल हो जाती हैं और सूखा रोग हो जाता है। इसकी कमी से बड़ी आयु वालों को भी कई तरह के नेत्र-रोग, क्षय, खांसी, संग्रहणी आदि हो जाती है। दूध से यह विटामिन बहुत अच्छे रूप में मिलता है और यदि पकाने में उसे नष्ट कर न दिया जाए तो उपयुक्त सब शिकायतें दूर हो सकती हैं।
विटामिन ‘बी‘ भी दूध में पाया जाता है। यह ज्ञान-तंतुओं के पोषण के लिए अनिवार्य माना गया है। हड्डियों के जोड़ों को भी यह ठीक दशा में रखता है। इस देश में जो लूले, लँगड़े, कुबड़े अधिक संख्या में पाए जाते हैं, इसका एक कारण यह भी है कि दुग्धाभाव से उनको विटामिन ‘बी’ नहीं मिलता और इससे उनमें अस्थि-संबंधी दोष पैदा हो जाते हैं।
विटामिन ‘सी’ के अभाव से दाँतों और मुँह के रोग विशेष रूप से उत्पन्न होते और बढ़ते हैं। पायरिया नामक जिस भयंकर मुख-रोग ने आज लाखों नए फैशन वालों का स्वास्थ्य नष्ट कर रखा है, वह विटामिन ‘सी’ की कमी की ही देन है, संधियों का कड़ापन और दरद, गठिया और रुधिर की न्यूनता और आलस बना रहना आदि शिकायतें विटामिन ‘सी’ द्वारा सहज में दूर की जा सकती हैं। दूध में यह विटामिन पाया जाता है, पर यह दूध को बरतन में उबालने से शीघ्र नष्ट हो जाता है। इसलिए जिन लोगों को दूध के इस विटामिन का लाभ उठाना हो, उनको दूध बंद बरतन में भाप पर उबालना चाहिए।
विटामिन ‘डी‘ और ‘ई‘ भी दूध में पाए जाते हैं और इनसे शरीर रक्षणशक्ति तथा संतानोत्पादक शक्ति की वृद्धि होती है। विटामिन ‘डी’ के अभाव से संधिवात तथा मधुमेह की बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और विटामिन ‘ई’ की कमी से पुरुषों में नपुंसकता और स्त्रियों में वंध्यत्व का दोष बढ़ जाता है।
विटामिन को सुरक्षित रखना
यद्यपि दूध में विटामिन काफी परिमाण में पाए जाते हैं और वे आसानी से रस और रक्त में मिलकर शरीर को लाभ भी बहुत पहुँचाते हैं, पर इसके लिए उनको सुरक्षित रखना आवश्यक है। खेद है कि आजकल जिस प्रकार दूध को प्रयोग में लाया जाता है, उससे यह उद्देश्य सिद्ध नहीं होता। बाजार के हलवाइयों के यहाँ जो दूध बिकता है, वह तो प्रायः कई घंटे तक भट्ठी पर पका करता है और उसकी चिकनाई मोटी मलाई के रूप में पृथक हो जाती है। इससे उसके अधिकांश विटामिन जल जाते हैं और वह दुष्पाच्य हो जाता है। घरों में भी दूध में अधिक पानी मिलाकर उसे देर तक औटाते रहते हैं। लोग समझते हैं कि ऐसा करने से दूध अधिक स्वादिष्ट हो जाता है। पर ये सब भ्रम हैं। इस प्रकार खुले बरतन में दूध को देर तक पकाने से उसका जीवन-तत्त्व निश्चित रूप से नष्ट हो जाता है और एक प्रकार के फोक या जले हुए पदार्थ की तरह ही परिणाम उत्पन्न करता है।
दूध को किस प्रकार प्रयोग में लाया जाए, इस पर विचार करते हुए एक अनुभवी चिकित्सक ने लिखा है कि सामान्यतः दूध को चार प्रकार से काम में लाया जाता है-
(१) कच्चा दूध,
(२) सीधी आँच पर एक उफान आने तक गरम किया हुआ दूध,
(३) कुकर में या भाप के द्वारा गरम किया हुआ दूध,
(४) मंदी आग पर देर तक गरम किया हुआ दूध।
(१) प्राकृतिक चिकित्सा के मतानुसार कच्चा दूध सबसे अच्छा और लाभदायक है क्योंकि उसके सब विटामिन और क्षार यथावत रहते हैं। पर इसके लिए प्रथम तो दूध दुहने के पश्चात तुरंत ही अर्थात धारोष्ण पी लिया जाए और दूसरे वह नीरोग पशु का होना चाहिए। यदि उसे कुछ देर बाद भी काम में लाना हो तो गीली बालू पर या पानी भरे किसी कूँडे में रखना चाहिए। एक गीला कपड़ा अच्छी तरह दूध के बरतन पर लपेट देना चाहिए जिससे वह ठंढा और ताजा बना रहे। ऐसा दूध पके दूध की अपेक्षा अधिक ‘सारक’ (अर्थात पेट को साफ करने वाला) होता है और उसका विटामिन ‘सी’ पूर्णतया सुरक्षित रहता है।
इस मत का समर्थन वैद्यक के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘भाव प्रकाश’ में भी किया गया है-
धारोष्णं गोपयो बल्यं कघुशीतं सुधासमम् ।
दीपकं च त्रिदोषघ्नं तद्धारा शिशिरं त्यचेत् ॥
गाय का धारोष्ण दूध हलका, बलवर्द्धक, शीतल, दीपक, त्रिदोषनाशक और अमृत के समान होता है। पर जब वह ठंढा हो जाए तो उसे कच्चा न पीना चाहिए।
(२) मामूली आँच पर एक उफान तक पकाया दूध भी काम में लाया जा सकता है। उस पर जो पतली मलाई की झिल्ली पड़ जाती है वह उसे बाहरी हवा के स्पर्श से बचाती है जिससे दूध का विटामिन ‘ए’ सुरक्षित रहता है। अगर दूध को ढककर पकाया जाए तो भी यह लाभ मिल सकता है।
(३) जो दूध देर का दुहा हो या जो अनजान तथा अविश्वस्त व्यक्तियों से खरीदकर लिया गया हो, उसे हमेशा पकाकर पीना ही ठीक रहता है, क्योंकि देर तक बिना किसी व्यवस्था के रखे रहने से उसमें कीटाणु बढ़ जाते हैं और बाजारू बेचने वाले उसमें हर तरह का पानी या घटिया दूध मिला देते हैं। पर इस दूध को आग पर पकाने के बजाय अगर आग पर खौलते हुए पानी के बरतन में रखकर गर्म कर लिया जाए या भाप के चूल्हे (कुकर) में पका लिया जाए तो वह अधिक लाभदायक बना रहता है। उसका विटामिन ‘सी’ अधिकांश में सुरक्षित रहता है और अन्य पोषक तत्त्व भी नष्ट नहीं होने पाते। पर इस प्रकार भी दूध को तीस-चालीस मिनट से ज्यादा नहीं पकाना चाहिए, नहीं तो वह गाढ़ा होकर कब्ज पैदा कर सकता है।
(४) मंदी आँच पर कई घंटे तक पकाया दूध प्रायः बादामी रंग का हो जाता है और उस पर मोटी मलाई भी जम जाती है। यह दूध स्वास्थ्य की दृष्टि से पीने लायक नहीं होता। वह आसानी से हजम नहीं होता और कब्ज पैदा करता है। वह साधारणतः दही जमाने या घी निकालने के उपयुक्त ही होता है।
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