जो लोग कब्ज को दूर करने के लिए तीव्र या सौम्य जुलाब का प्रयोग करते हैं, वे तो एक दृष्टि से अपने पैरों पर आप कुल्हाड़ी मारते हैं। जुलाब में जो औषधियाँ पड़ती हैं, वे प्रायः आमाशय में विकार उत्पन्न करने वाली होती हैं। बहुत-सी जुलाब की औषधियों में तो जमालगोटा जैसा पदार्थ डाला जाता है, जिसकी गणना प्रत्यक्ष विषों में की जाती है। ये औषधियाँ आमाशय के लिए सर्वथा विजातीय होती हैं और वह उनको जल्दी से जल्दी बाहर निकालना चाहता है। इसलिए यकृत आदि से बहुत अधिक मात्रा में पाचक रसों का स्त्राव होने लगता है। उन रसों के साथ कुछ मल भी बाहर निकल जाता है। इसी को देखकर अनजान मनुष्य समझते हैं कि जुलाब ने ठीक असर किया और अब हमारा पेट साफ हो गया।
इसका परिणाम आगे चलकर बड़ा हानिकारक निकलता है। जुलाब का असर १०-५ दिन ही रहता है। उसके बाद पाचक रसों की कमी हो जाने से कोष्ठबद्धता पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ जाती है। तब रोगी को पहले से भी तेज जुलाब देना पड़ता है। इस प्रकार दिन पर दिन पाचन शक्ति कमजोर पड़ती जाती है और अंत में ऐसी हालत हो जाती है कि आमाशय बिलकुल कमजोर हो जाता है। फिर जुलाब की चाहे कितनी भी तेज मात्रा क्यों न ली जाए, उसका कोई असर नहीं होता और कायमी कब्ज से मरने के बाद ही पीछा छूटता है।
रहन-सहन के अन्य कई दोष भी कब्ज पैदा करने और बढ़ाने में योग देते हैं। उदाहरण के लिए, जो लोग उचित शारीरिक परिश्रम या व्यायाम आदि कुछ भी नहीं करते और दिन भर कुरसी पर बैठे-बैठे कलम चलाते रहते हैं या गद्दे-तकियों पर पड़े हराम की जिंदगी बिताया करते हैं, उनको अपच का रोग होना स्वाभाविक होता है। बिना किसी प्रकार का परिश्रम किए सभी अंग निर्बल और कार्यक्षमता से रहित होते जाते हैं। वहीं दशा आमाशय की भी होती है। उसकी पाचनशक्ति घटती चली जाती है। अधिक विषयभोग करने जागने से भी पाचनक्रिया या रात्रि में सदा बहुत अधिक परिणाम भी कब्ज ही होता है।
प्रकृति से सहायता लीजिए
इस अवांछनीय स्थिति से बचने का सबसे सरल तरीका यही है कि आप कृत्रिम और अस्वाभाविक जीवन प्रणाली को त्यागकर यथासंभव प्रकृति की ओर लौटिए। हमारा कथन यह नहीं कि आप अन्न का त्याग कर दीजिए और केवल फल ही खाइए या कच्चा अन्न ही खाइए अथवा तरकारियों का छिलका मत निकालिए और उनको उबालकर बिना नमक, मसाले के खाइए। यथार्थ में ये बातें भी लाभदायक हैं और लाखों व्यक्ति इनका पालन करके अपने बिगड़े हुए स्वास्थ्य का कायाकल्प कर चुके हैं, तो भी हम हर एक सामान्य पाठक को ऐसी कठोर साधना की सलाह कदापि नहीं देते। हमारा कहना इतना ही है कि यदि आप चटोरपन की आदत को त्यागकर सादा और सुपाच्य आहार ग्रहण करें, भूख लगने पर ही खाएँ और पेट को कभी-कभी विश्राम दिया करें, तो आप बिना चूरन चटनी और जुलाब के कब्ज, मंदाग्नि, अजीर्ण जैसी पेट संबंधी शिकायतों से छुटकारा पा सकते हैं। वैद्य और डॉक्टरों के यहाँ हाजिरी देते रहने और अपना समय तथा पैसा व्यर्थ में बरबाद करने की अपेक्षा यह कहीं अच्छा है कि आप बीमारी के कारणों को ही दूर करें और स्वास्थ्य में कोई ऐसी खराबी न आने दें, जिससे निर्बलता और रोग पैदा होने का कोई खतरा हो।
अब तक जो गलतियाँ हो चुकी हैं और उनके कारण कोष्ठबद्धता, मंदाग्नि, अपच आदि खराबियाँ पैदा हो चुकी हैं, तो उनके लिए भी दवाइयों से काम न चलेगा। दवाइयाँ तो, जैसा हम ऊपर स्पष्ट कर चुके हैं, हालत को और बिगाड़ने वाली हैं। उनसे पाचन शक्ति बढ़ने की आशा करना सर्वथा भूल है। पाचन शक्ति तो संयमित आहार-विहार की आदत को पुनः दृढ़तापूर्वक ग्रहण करने से ही ठीक हो सकती है। इसमें समय अवश्य लगेगा और अपनी बिगड़ी हुई आदतों को भी छोड़ना और बदलना पड़ेगा। पर इसमें जो सुधार होगा, वह स्थायी होगा और धीरे-धीरे आप पुनः स्वस्थ और सुखी जीवन का अनुभव करने में समर्थ हो सकेंगे।
‘एनिमा’ की उपयोगिता – निस्संदेह
बहुत से अनजान व्यक्ति ‘एनिमा’ के विषय में बड़ा संदेह प्रकट किया करते हैं और उसके विषय में दूसरे लोगों को बिना सिर-पैर की बातें कहकर बहकाया करते हैं। वे कहते हैं कि ‘एनिमा’ की आदत पड़ जाने पर फिर जन्म भर उसी से काम चलाना पड़ेगा, अपने आप दस्त होना बंद हो जाएगा अथवा ‘एनिमा’ का पानी अगर भीतर ही रह गया, तो उससे बड़ी हानि होगी। ये सब बातें अज्ञान की ही गाया, लोक हैं। हम जोर देकर कह सकते हैं कि ‘एनिमा’ के प्रयोग से इस तरह का कोई खतरा तनिक भी नहीं है और बड़ी उम्र के व्यक्ति ही नहीं, छह महीने के बच्चे को भी ‘एनिमा’ बिना किसी प्रकार के भय के दिया जा सकता है। इतना अंतर अवश्य होगा कि जहाँ बड़ी आयु वाले के लिए एक बार में सेर-दो सेर पानी दिया जाएगा, वहाँ छोटे बच्चे के लिए एक छटाँक से पाव भर तक पानी ही अवस्था के अनुसार देना पड़ेगा। ‘एनिमा’ का पानी मलमार्ग में कुछ इंच तक जाने के सिवाय और कहीं नहीं जा सकता और न एक बूंद भी कहीं रुका रह सकता है। वह जहाँ तक भीतर पहुँचता है, वहाँ तक के मल को लेकर तुरंत ही बाहर निकल आता है। आरंभ में तो इस पानी को एक मिनट भी भीतर रोक सकना कठिन जान पड़ता है। पानी के भीतर पहुँचते ही शौच की हालत जान पड़ती है और वह अपने आप बाहर आ जाता है। जब कुछ दिन अभ्यास हो जाता है, तभी उसे कोशिश करके दस-पाँच मिनट तक भीतर रोकना संभव होता है, जिससे कड़ा मल उससे अच्छी तरह नरम होकर पूरी तरह बाहर निकल सके।
यह समझना कि ‘एनिमा’ कोई नई चीज है और उसका प्रयोग डॉक्टरों ने ही चलाया है, केवल एक भ्रम है। ‘ एनिमा’ को भारतीय आयुर्वेदशास्त्र में ‘वस्तिकर्म’ कहते हैं और इसका वर्णन विस्तार के साथ वैद्यक के सबसे पुराने ग्रंथ ‘चरक संहिता’ में दिया गया है। उसके दसवें अध्याय में महर्षि अत्रि शिष्य अग्निवेश को वस्तिकर्म का उपदेश देते हुए कहते हैं-
सिद्धांतं वस्तीनां शस्तानां तेषु तेषु रोगेषु ।
शृण्वग्निवेश गदतः सिद्धिं सिद्धिप्रदां भिषजाम् ।।
बल दोष काल प्रकृतीः प्रविभज्य योजितः सम्यक्।
स्वैः स्वैरौषध वर्गे स्वान् स्थान् रोगान्नियच्छति ।।
हे अग्निवेश ! अब तू विभिन्न रोगों में उपयोगी और प्रत्यक्ष फल दिखाने वाली वस्तिक्रिया की विधि को श्रवण कर। यह वस्ति समस्त रोगों को जीतकर चिकित्सक को सफलता प्रदान करने वाली है। रोगी और औषधि के बल, दोष, काल और रोगोपचार पर भली प्रकार विचार करके सर्वत्र उपयोगी औषधि द्वारा वस्तिप्रयोग करने से अब सब प्रकार के रोग नष्ट हो जाते हैं। शीघ्र लाभ पहुँचाने वाली, सुखकर और शोधक होने से वस्तिक्रिया के समान और कोई उपाय नहीं है। यह सब दोषों को मिटाने वाली और हानिरहित विधि है।
एक अन्य प्राचीन आयुर्वेद के ही ग्रंथ में लिखा है-
वस्ति वाते च पित्ते च कफे रक्ते च शस्यते।
संसर्गे सन्निपाते च वस्तीरवहितः सदा ॥
वायु, पित्त, कफ के समस्त रोगों तथा द्वंद्वज रोगों और सन्निपात आदि सब प्रकार की व्याधियों में वस्तिकर्म श्रेष्ठ है।
कहा जाता है कि प्राचीन युग में चिकित्सा के ज्ञाता किसी ऋषि ने एक दिन किसी पक्षी को नदी के किनारे अपनी लंबी चोंच द्वारा अपनी गुदा में पानी भरते और रुके मल को बाहर निकलते देखा। उन्होंने इस विधि का प्रयोग कोष्ठबद्धता से पीड़ित मनुष्यों पर भी किया और उनके पुराने रोगों को शीघ्र ही दूर कर दिया। उस समय बकरे या बैल के अंडकोश के थैलीनुमा चमड़े में जल भरकर गुदा के भीतर पहुँचाते थे। इस चमड़े का नाम ‘वस्ति’ होने से इस विधि कानाम ‘वस्तिकर्म’ ही पड़ गया।
डॉक्टरों ने अभी सौ-डेढ़ सौ वर्ष से ही ‘एनिमा’ का प्रयोग किया है। इसके बाद प्रचारकों में एक डॉ० विल्सनभी थे। उन्होंने अपने ‘न्यू हाईजीन’ नामक ग्रंथ में लिखा है, “इस समय ‘एनिमा’ के द्वारा मैं रोगियों को जितने अधिक परिमाण में आरोग्य कर रहा हूँ, उतना कुछ वर्ष पहले नहीं कर सकता था, जब मैं इस विधि से अपरिचित था।” डॉ० फारेस ने कहा था, “मैंने ‘एनिमा’ की विधि की महीनों और बरसों परीक्षा की है और मेरा अनुभव है कि उससे स्वास्थ्य-शक्ति की निरंतर वृद्धि होती है।” ‘शोधन विद्या’ नामक उर्दू पुस्तक के लेखक वैद्यराज सीताराम जी मेहता ने लिखा है, “कितनी ही बार रात के समय मुझे बीमारों का इलाज करने का अवसर आया है, जिनको जोर का बुखार था और जिससे वे बेहोश से हो रहे थे। जाँच करने से जान पड़ा कि उनकी आँत में मल भरा पड़ा है। यह निदान हो जाने पर उसी समय ‘एनिमा’ देने को कहा, तो रोगी के संबंधी तथा सेवा-शुश्रुषा करने वाले लोगों ने कहा कि रात का समय है और रोगी कमजोर है, इसलिए ‘एनिमा’ सुबह ही दी जाए तो ठीक रहेगा। मैंने कहा कि केवल उठने-बैठने की तकलीफ के कारण रोगी के पेट में हानिकारक मल को बारह घंटे तक रोके रखना हरगिज ठीक न होगा। जब वस्तिकर्म करके पेट से मल निकाल दिया गया, तो सब सगे-संबंधी नाक पर कपड़ा रखकर दूर हटने लगे। यह देखकर मैंने कहा कि यह वही मल है, जिसे तुम बीमार के पेट में १२ घंटे तक रोके रहने को कहते थे। इस बात पर विचार करो कि केवल दस-पाँच मिनट उठने-बैठने की तकलीफ के कारण क्या इस विषाक्त मल का भीतर पड़े रहना कोई अच्छी बात होगी ?”