कब्ज के कारण मलाशय की दुर्दशा
इस प्रकार जो लोग अप्राकृतिक और अस्वाभाविक रहन-सहन से अपनी आदतों को बिगाड़ लेते हैं, उनकी भोजन पचाने वाली छोटी और बड़ी आँतों की भीतरी दशा बहुत बुरी हो जाती है। यद्यपि ऊपर से उनका स्वास्थ्य मामूली ठीक सा जान पड़ता है। वे नित्य अच्छी तरह खाते और शौच भी जाते रहते हैं, पर वास्तव में उनका मलाशय गंदे और सड़े मल से भरा रहता है, जिसमें तरह-तरह के कीटाणु और हानिकारक गैसें उत्पन्न होकर जीवन की आधार रक्तधारा को दूषित करती रहती हैं।
यही विषाक्त तत्त्व समय-समय पर मात्रा में अधिक हो जाने पर विभिन्न शारीरिक कष्टों और बीमारियों के रूप में प्रकट होता रहता है। जी का मिचलाना, मुँह का स्वाद खराब रहना, सिर का भारीपन, किसी भी अंग में दरद पैदा हो जाना आदि पचासों छोटी-बड़ी शारीरिक शिकायतें इस मलाशय की खराबी के कारण ही पैदा होती रहती हैं। पर अधिकांश लोग उनके मूल कारण की तरफ ध्यान न देकर उनका स्थानीय उपचार करके काम चलाते रहते हैं और अपने को साधारणतः स्वस्थ ही समझा करते हैं। पर डॉक्टरों ने ऐसे लोगों की मृत्यु के उपरांत उनके मलाशय की जाँच करके देखा है कि उसमें वर्षों का पुराना मल सूखकर पत्थर जैसा कड़ा पड़ गया था और उसके भीतर कई प्रकार के कृमियों ने अपने घर बना लिए थे। कई व्यक्तियों पर इस प्रकार की जाँच से यह मालूम हुआ कि मुश्किल से आठ आदमियों में से एक का मलाशय साफ रहता है, अन्यथा अधिकांश व्यक्ति अपने पेट में सदैव चार-पाँच सेर दूषित मल का बोझा लिए ही सर्वत्र घूमा- फिरा करते हैं और जीवन के कार्यों का जैसे-तैसे निर्वाह किया करते हैं।
एक अमेरिकन डॉक्टर के कथनानुसार, “ऐसे लोगपाँच सोते फीट लंबे मल से भरे थैले को लेकर चलते-फिरते और हैं। इन लोगों को साधारण रीति से नित्य शौच हो जाता है और इससे वे समझ लेते हैं कि हमारा पेट साफ है। पर वास्तविक बात यह होती है कि मलाशय पूरा भर जाने से उसके नीचे के भाग का थोड़ा सा मल निकल जाता है और उसकी जगह ऊपर का मल नीचे खिसक आता है, पर मलाशय सदैव भरा रहता है।”
कब्ज से भयंकर रोगों की उत्पत्ति
जिन लोगों को पाचनक्रिया का ज्ञान नहीं है अथवा जो जीभ के स्वाद के वशीभूत होकर भोजन के पचने, न पचने का ध्यान छोड़कर लगातार कुछ न कुछ खाया ही करते हैं, उनकी पाचनक्रिया अवश्य ही खराब हो जाती है। उनके आमाशय की वही हालत होती है, जैसे किसी पतीली में पाव भर दाल या चावल पकने को रखा जाए और जब बीस मिनट बाद वह आधा पक जाए, तब उसमें पाव भर कच्ची दाल या चावल फिर डाल दिया जाए। इस प्रकार पकाने पर वह भोजन कभी ठीक नहीं बन सकता। उसका आधा भाग अधिक पका और आधा कुछ कच्चा रह जाएगा, जो स्वाद और रंग-रूप की निगाह से अधिक बदस्वाद और हानिकारक होगा। इसी प्रकार आमाशय में खाने से एक घंटा बाद, जबकि पहला भोजन आधा पचा हो, थोड़ा-बहुत नया खाना पहुँचा दिया जाए, तो वह अवश्य ही गड़बड़ी पैदा करेगा। ऐसे आधे कच्चे पक्के भोजन का रस कभी उत्तम नहीं निकल सकता। उसका मल भी अस्वाभाविक हो जाने से यथासमय सहज में बाहर निकल जाने के बजाय आँवयुक्त (fecal matter) बनकर आँतों में चिपकता रहेगा और सड़कर रक्त को दूषित बनाता रहेगा।
जब इस प्रकार का मल का अंश मिला हुआ रक्त हृदय में पहुँचता है, तो उसे साफ करने में आवश्यकता से अधिक परिश्रम करना पड़ता है, जिससे उसका धड़कना बढ़ जाताहै। यही धड़कन आगे चलकर कलेजे का दरद, हृदय की कमजोरी का रूप धारण कर लेती है। इसी से सर का दरद। खुन का पीला पड़कर पीलिया हो जाना आदि रोग पैदा हो जाते हैं। यदि यह मल बहुत अधिक देर तक बड़ी आंत में रुकता है, तो उसमें सड़न पैदा होकर ‘ट्यूबरकुलोसिस’ नामक कीटाणु पैदा हो जाते हैं, जो क्षयरोग के जनक माने जाते हैं। ये कीटाणु रक्त में मिलकर जब फेफड़ों में पहुँचते हैं तो आरंभ में तो ऑक्सीजन वायु लगने से वे मर जाते हैं, पर जब वही खराबी बहुत समय तक चलती रहती है और कोटाणुओं की संख्या बढ़ जाती है, तो वे फेफड़ों के ऐसे हिस्से में चिपक जाते हैं, जहाँ वायु बहुत कम पहुँचती है या नहीं पहुँचती। तब वे उस अंश को सड़ाकर नष्ट कर डालते हैं। यही तपेदिक के भयंकर रोग का मूल कारण है।
कब्ज का होना दिमाग के लिए भी बड़ा हानिकारक है। शरीर का संचालनकर्त्ता दिमाग ही है, जो अनगिनत ज्ञान-तंतुओं के द्वारा हजारों प्रकार की शारीरिक क्रियाओं को संपन्न करता है। दिमाग को भी शुद्ध रक्त से ही पोषण मिलता है और इसी से वह कार्यक्षम बना रहता है। पर मलाशय द्वारा दूषित रक्त दिमाग में पहुँचता है, तो उस पर भी कुप्रभाव पड़ता है और उसकी शक्ति कम होने लगती है। यही दिमागी कमजोरी आगे चलकर स्मरणशक्ति के हास, मूच्छा, पागलपन आदि के रूप में परिणत होने लगती है, जिससे मनुष्य का जीवन एक प्रकार से बेकार हो जाता है।
बवासीर और मूत्राशय का कष्ट
बवासीर का रोग आजकल बहुत फैला हुआ है और इसमें लोगों का स्वास्थ्य प्रायः बहुत कमजोर पड़ जाता है। इसका मुख्य कारण आहार संबंधी बदपरहेजी ही होता है।जब आँतों में अधिक मल स्थायी रूप से जमा रहने लगता है, तो उसके भार से मांसपेशियाँ बढ़ जाती हैं और उनमें रक्त भर जाता है। इससे गुदा के बाहर का मांस फूलकर सख्त पड़ जाता है, जिसे मस्सा कहने लगते हैं। मलत्याग करने जाते समय इन मस्सों में प्रायः बहुत दरद हुआ करता है। जब इन मस्सों पर भीतर से सख्त मल निकलने के कारण अधिक दबाव पड़ता है, तब ये मस्से फटकर खूनी बवासीर बन जाते हैं। लोगों का विश्वास है कि एक बार बवासीर हो जाने पर वह फिर कभी जड़ से अच्छा नहीं होता। वास्तव में विलायती और देशादसे अच्छा नहीं होता कोश रोग कुछ समय के लिए दब जाते हैं तथा अनुकूल परिस्थिति पाने पर फिर से उभर आते हैं। इसलिए बवासीर को दूर करने का कारगर उपाय आहार-विहार को ठीक करके कब्ज मिटाना ही है। इससे बवासीर धीरे-धीरे स्वयं ठीक हो जाता है।
मूत्र संबंधी रोगों का भी एक बड़ा कारण कब्ज ही होता है। शारीरिक मलों को बाहर निकालने में मूत्र संस्थान का भीमहत्त्व कम नहीं है। एक सामान्य व्यक्ति को चौबीस घंटे में लगभग डेढ़ सेर मूत्र निकलता है, जिसमें यूरिक ऐसिड और अन्य क्षारों का परिमाण लगभग आधा छटाँक होता है। यदि ये पदार्थ शरीर से बाहर न निकलें, तो स्वास्थ्य को भयंकर क्षति पहुँचा सकते हैं। इन विजातीय दुषित द्रव्यों को बाहर निकालने के लिए हमारे गुरदे निरंतर कार्य करते रहते हैं। अगर उनमें कोई खराबी आ जाए अथवा किसी विकार के कारण अपना काम ठीक प्रकार से न कर सकें, तो तरह तरह की बीमारियों का पैदा हो जाना सुनिश्चित है।
कब्ज का कुप्रभाव मूत्राशय पर भी पड़ता है, क्योंकि मलाशय के बिलकुल निकट होता है और जब कब्ज के कारण मल शरीर के भीतर रुका रहता है, तो उसका कुछ अंश गुरदों द्वारा भी सोख लिया जाता है। गुरदों के पास दूषित क्षारों को जल में घोलकर बाहर निकालने का काम पहले ही बहुत काफी रहता है। जब वह मलांश भी उसमें पहुँच जाता है, तो उनमें खराबी पैदा होने लगती है और दूषित तत्त्वों का कुछ भाग भीतर ही रुककर मूत्र संबंधी रोग उत्पन्न करने लगता है। ये रोग प्रायः मधुमेह आदि के रूप में प्रकट होते हैं और अनेक बार वे कठोर रूप धारण करके ‘पथरी’ भी बन जाते हैं, जिसके कारण मूत्र निकलना ही बंद हो जाता है और रोगी को अकथनीय कष्ट सहन करना पड़ता है।
पेशाब में सम्मिलित ‘यूरिक एसिड’ शरीरशास्त्रवेत्ताओं के मतानुसार स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक पदार्थ है और उससे असमय में ही वृद्धावस्था की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जब यूरिक एसिड रक्त के साथ मिलकर शरीर में फैल जाता है, तो उससे नाड़ियों में कड़ापन पैदा होने लगता है और संधिस्थानों में मैल जमकर गाँठों तथा जोड़ों में दरद होने लगता है, जो आगे चलकर गठिया की बीमारी के रूप में परिवर्तित हो जाता है।
चर्मरोग भी पेट में दूषित मल इकट्ठा हो जाने की निशानी है। फोड़ा-फुंसी आदि का मूल कारण मलाशय में ही होता है। जब पूरा मल गुदामार्ग से बाहर नहीं निकल सकता, तो अन्य इंद्रियाँ उसे बाहर निकालने का प्रयत्न करने लगती हैं। इनमें हमारी त्वचा का स्थान प्रमुख है, क्योंकि वह पसीने के रूप में बहुत अधिक दूषित तत्त्वों को बाहर निकालती है। पसीने द्वारा शरीर पर जो मैल जमता है, वह उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। जब त्वचा को अपना नियमित कार्य करने के अतिरिक्त मलाशय की गंदगी का भी कुछ भाग निकालना उसका कार्यभार बढ़ जाता है और कुछ समय पड़ता है, तो उसका जरा भीतर रुक जाने से प्रेसियों और बाद मल का कर उपद्रव होने लगते हैं। ऐसे ही लोगों खुजली आधिः बुरी गंध भी आने लगती है। लोग इनसे पुसकोारा पाने के लिए मरहम, वैसलीन, पाउडर, साबुन आदि का सहारा लेते हैं, पर इनसे खराबी का मूल कारण दूर वहाँ हो सकता और चर्मरोग किसी न किसी रूप में कष्ट देते ही रहते हैं। उनको मिटाने का असली उपाय पेट को हलका करना और आमाशय की सफाई ही होता है। जब उपवास, फलाहार और एनिमा द्वारा पाचन और मल संस्थान की शुद्धि हो जाती है, तो फोड़े-फुंसी प्रायः बिना कुछ मरहम आदिलगाए स्वयं ही सूखकर ठीक हो जाते हैं।
इस प्रकार इसमें कुछ भी संदेह नहीं रह जाता कि प्रायःसभी शारीरिक रोगों का एक बड़ा कारण कब्ज की शिकायत है। वैसे अपने अन्य दोषों के कारण भी अनेक रोग और कष्ट पैदा होते हैं, पर कब्ज से उनके मिटाने में आवश्यकता से बहुत अधिक समय लग जाता है। यदि पेट साफ रहे और मलाशय अपना काम ठीक ढंग से करता रहे, तो रक्त भी अपेक्षाकृत शुद्ध रहेगा और उस हालत में कोई भी आकस्मिक रोग, जो बाहरी कारणों से पैदा होता है, शीघ्र मिट जाएगा।
कब्ज को पैदा ही न होने दें
बीमारियों को दूर करके स्वास्थ्य को ठीक बनाए रखने का मुख्य उपाय भोजन में इस प्रकार सावधानी रखना है, जिससे वह ठीक ढंग से पचता रहे और उसका मल भाग शीघ्र ही शरीर से बाहर निकल जाए। हमारे यहाँ जनसाधारण की यह मान्यता हो गई है कि जो व्यक्ति घी, दूध, गेहूँ, चावल, मैदा, सूजी, मसाले आदि कीमती पदार्थों का जितना अधिक प्रयोग करेगा, वह उतना ही अधिक स्वस्थ तथा शक्तिशाली रहेगा। इस भ्रम में पड़कर लोग अपने बच्चों को छोटी अवस्था से ही अधिक खाने की प्रेरणा देते रहते हैं और जहाँ तक संभव होता है, अपनी सामर्थ्यानुसार उनके लिए घी, दूध, मेवा, मिठाई आदि जुटाते रहते हैं, पर इसका परिणाम प्रायः विपरीत ही होता है। अधिक कीमती और पौष्टिक पदार्थ खाने वाले व्यक्ति और उनके लड़के बच्चे गरीबों की अपेक्षा बीमारियों के शिकार अधिक होते हैं और उनको अपनी आय का एक अंश डॉक्टरों और वैद्यों को नियमित रूप से देना ही पड़ता है।
आहारशास्त्रियों का कहना है कि मानव शरीर को स्वस्थ और सशक्त रखने के लिए घी दूध अथवा गोग मछली. अंडा आदि जैसे पदार्थों की इतनी आवश्यकता नहीं है. जितनी ही प्राकृतिक क्षार और विटामिन (जीवनतत्व) वाले ताजा और शुद्ध अन्न, फल आदि की। मेवा, मिठाई पकवान आदि से हमको केवल श्वेतसार, प्रोटीन, चिकनाई आदि की प्राप्ति हो सकती हैं। पर इनको पचाकर सुद विटामिन्स से ही उसमें ताजगी और स्फूर्ति आ सकते है बहुत से लोग क्षार का अर्थ नमक, मिर्च, मसाले आदि के समझते हैं और सब प्रकार के भोजनों में इनका खुब प्र करते हैं, पर ये ऊपरी क्षार पदार्थ उन क्षारों का काम पूरा नहीं कर सकते, जो विभिन्न खाद्य पदार्थों में प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं। ये ऊपर से मिलाए गए क्षार पदार्थ से और अधिक देर से पचते हैं और उनकी मात्रा बहुर अधिक होती है, तो आमाशय की पाचनक्रिया को बिगाड़कर तरह-तरह के रोगों का सूत्रपात करते हैं।
सच तो यह है कि पेट को खराब करके कब्ज पैदा करने का सबसे पहला कारण ऐसा अनुपयुक्त आहार कान ही है, जो आमाशय में पहुँचकर समय पर ठीक तरह से पच सके। शीघ्र पचने वाले पदार्थों में सबसे पहला स्थान ताजा शाक, तरकारी, फल और कच्चे दूध का है। गेहूँ चावल, दाल आदि भी यदि प्राकृतिक रूप में कम से कम परिवर्तन करके काम में लाए जाएँ, तो शरीर निर्माण में उपयोगी सिद्ध होते हैं। पर जो लोग गेहूँ को खूब बारीक पीसकर उसका सब चोकर अलग कर देते हैं अथवा जो चावल को सुंदर दीखने के लिए मशीन द्वारा खूब सफेद और पॉलिशदार बना देते हैं, वे उनका पूरा लाभ नहीं उठा पाते। वे अपनी जिह्वा को तृप्त करते हैं और पेट को भी भर लेते हैं, पर ऐसा भोजन देर से पचता है और उससे जो रस और रक्त बनता है, वह क्षारों और विटामिन के अभाव से घटिया दरजे का होता है। साथ ही छिलका और चोकर आदि को बिलकुल निकाल देने से उसका मल भी देर से निकलने वाला होता है। ये बातें कब्ज पैदा करने वालों और उसे बढ़ाने वाली होती हैं।