सुंदरता हर किसी को प्रिय है। सुंदर दृश्य, सुंदर स्थान, सुंदर वस्तुएँ मन को भाती हैं। सुंदर चेहरा भी भाए, यह मन की स्वाभाविक विशेषता है। अन्य सद्गुणों के साथ-साथ चेहरे का सौंदर्य भी हो तो इसे एक अतिरिक्त विशेषता रूप-आकार को मानना चाहिए। जहाँ रूप को ही प्रधानता दी जाती है तथा अन्य मानवोचित गुणों-सुसंस्कारों की उपेक्षा की जाती है, वहाँ भारी भूल होती है। जीवनसाथी के चुनाव में इन दिनों रूप को ही प्रधानता देने का जो दौर चला है, उससे लाभ तो बहुत कम है, हानियाँ अनेक हैं। अत्यधिक प्रधानता देने की पागल दौड़ में जो लोग बिना सोचे-विचारे सम्मिलित होते रहते हैं, वे वस्तुतः अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हैं। नर-नारी के बीच आकर्षण तथा संबंधों का आधार शरीर की बाह्य सुंदरता बन जाने से, आपसी स्नेह, संवेदना, श्रद्धा, शील, सौजन्य, संयम, शिष्टता एवं शालीनता जैसे सद्गुणों की उपेक्षा होने लगती है। फलतः शरीराकर्षण के आधार पर स्थापित हुए संबंधों में प्रगाढ़ता नहीं आती। शरीर का सौंदर्य कम होते ही नर-नारी के परस्पर संबंध भी मधुर नहीं रह पाते। रूप को अधिक महत्त्व दिए जाने के खतरे भी अधिक हैं।
ऐसी स्थिति में लड़की के रूपवान होने से अहंकारबढ़ जाना स्वाभाविक है। अहंकार की छाप उसके व्यवहार में झलकने लगती है, जिसके कारण परिवार के अन्य सदस्यों के प्रति व्यवहार सुमधुर नहीं रह पाता। यदि पत्नी आत्मगर्विता रूपसी बनकर रह जाए, उसके आचरण में दर्प प्रकट होने लगे, वह शिष्टता एवं शालीनता की उपेक्षा करने लगे तो जिस रूप को इतनी प्रधानता दी गई थी, वही उपदंश जैसा घातक सिद्ध होता है। शरीर के उभार के प्रति प्रचंड आकर्षण का वातावरण बना देने से लड़की के दिल-दिमाग में रूप के प्रति अदम्य आकर्षण की मान्यता बैठ जाएगी। अन्य सद्गुणों की चारित्रिक विशेषताओं की उपेक्षा कर देने से वह अपने शील की रक्षा कर सकने में भी असमर्थ सिद्ध होती है। रूप के प्रति आकर्षण से शील को छोड़कर भटकने का अवसर मिलता है।
दूसरी ओर रूपसी नारी पर कामलोलुप पुरुष भी डोरे डालने के फेर में रहते हैं। वे उसी के लिए जोड़-तोड़ करते, ताना-बाना बुनते रहते हैं। चारित्रिक विशेषताओं को महत्त्व न दिए जाने से कितनी ही रूपवान नारियों के भटकने की संभावना बनी रहती है। व्यभिचारियों की दाल वहीं गलती है, जहाँ रूप को प्रधानता दी जाती है। जिनके व्यक्तित्व की आधारशिला चरित्र के ऊपर रखी गई है, वहीं रूप-आकर्षण के संवेग में बहने की गुंजाइश नहीं रहती।
पश्चिमी देशों में परिवार संस्था जरा-जीर्ण हो चली है। दांपत्य जीवन में यत्किंचित् ही मधुर स्नेह दिखाई पड़ता देरी नहीं लगती। तलाक की है। विवाह संबंधों को टूटते घटनाएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। समाजशास्त्रियों का मत है कि इसका एक प्रधान कारण है जीवनसाथी के चुनाव में रूप को अतिरंजित महत्त्व दिया जाना। अपने देश में भी उसका अंधानुकरण किया गया तो विवाह-संस्था खोखली होकर रह जाएगी। दांपत्य जीवन की पवित्रता सुरक्षित नहीं रह सकेगी। आपसी संबंधों में न तो पवित्रता रह पाएगी और न ही मधुरता। रूपप्रधान दृष्टि रूप को हो महत्त्व देगी और जहाँ-कहीं भी वह दिखाई देगी, उधर हो जाने के लिए मचलेगी। फलस्वरूप नर-नारी न तो अपनी शालीनता की रक्षा कर पाएँगे और न ही चरित्र की। निस्संदेह यह स्थिति व्यक्ति, परिवार एवं समाज, तीनों ही के लिए घातक सिद्ध होगी।
सुंदर स्वास्थ्य, नीरोग काया को महत्त्व दिया जाए, शरीराकर्षण की बात इस सीमा तक तो सही है, पर रंग एवं रूप को तो किसी भी हालत में अतिरंजित प्रश्रय नहीं मिलना चाहिए। ऐसा संभव भी नहीं है कि अभीष्ट प्रकार की कल्पना के अनुरूप हर किसी को रूपवान, गोरे वर्ण का जीवनसाथी मिल जाए। अपने देश की जलवायु भी ऐसी नहीं है। उत्तरी भारत के पहाड़ी अंचल और पश्चिमी भारत में पंजाब, हरियाणा जैसे क्षेत्रों में यह सुंदरता भले हो पाई जाए, अन्यत्र चमड़ी के रंग पर आधारित सुंदरता के मापदंड पर कम ही लोग खरे उतरेंगे।
यहाँ बाह्य सौंदर्य की महत्ता को नकारा नहीं जा रहा है वरन यह कहा जा रहा है कि वह तभी प्रशंसनीय अभिनंदनीय है, जब सुसंस्कारिता से अनुप्राणित हो, अन्यथा रूप और सुसंस्कारिता के बीच चयन का अवसर आने पर दूसरे को ही प्रधानता दी जानी चाहिए। विवाह के उपरांत दांपत्य जीवन में स्थायित्व इसी के आधार पर आता है तथा मधुर सामंजस्य तभी स्थापित हो पाता है।
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