अपने विवाह को मजबूत बनाएं: पश्चिम के ग्रहण से कैसे बचें(How to Protect Your Marriage from the Eclipse of the West)

दांपत्य जीवन की सुव्यवस्था पर पारिवारिक, सामाजिक, व्यक्तिगत, सभी प्रकार की उन्नति प्रगति निर्भर करती है। पति-पत्नी के सहयोग, एकता, परस्पर आत्मोत्सर्ग, त्याग, सेवा आदि से दांपत्य जीवन की सुखद और स्वर्गीय अनुभूति सहज ही की जा सकती है। जब इनमें किसी तरह का व्यतिरेक और व्यतिक्रम उत्पन्न होता है तो वह विवाह- विच्छेद के रूप में सामने आता है और जीवन नारकीय बनता देखा जाता है।

इन दिनों यही दृश्य बड़े पैमाने पर सर्वत्र देखा जा रहा है। सहिष्णुता के अभाव में छोटी-मोटी बातों को बढ़ा-चढ़ाकर इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है कि राई जैसा प्रकरण पर्वताकार बन जाता है और तिल जितना छोटा प्रसंग भी विशालकाय ताड़ प्रतीत होने लगता है। ऐसे में समझौते को कोई संभावना सफल नहीं हो पाती। जब दोनों पक्षों में से कोई तनिक भी झुकने को, सहने और निभाने को तैयार न हो तो सौमनस्य की आशा कैसे की जा सकती है कि पति पली का द्विपक्षीय संबंध देर तक टिका रह पाएगा। जहाँ गुण तलाशने की जगह अवगुण ढूँढ़ने की दोषपूर्ण प्रवृत्ति हो, वहाँ विवाह की अंतिम परिणति विच्छेद के रूप में ही सामने आती है। वर्तमान का यही सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।

होना यह चाहिए कि दोनों के बीच सामंजस्य इस स्तर का हो, जैसा तालमेल गाड़ी के दो पहियों के मध्य होता है, जिनमें एक की स्थिति पर दोनों के गति-प्रगति निर्भर करती है। दोनों के बीच जितना समन्वय होगा, दांपत्य जीवन उतना ही सुखद, स्वर्गीय, उन्नत व प्रगतिशील बनेगा। इनमें से एक भी अयोग्य, कमजोर हो तो जीवनरथ डगमगाने लगेगा और पता नहीं, कब वह दुर्घटनाग्रस्त होकर नष्ट-भ्रष्ट हो जाए, मार्ग में अटक जाए। न केवल पति-पत्नी, वरन, पारिवारिक व सामाजिक जीवन में गतिरोध पैदा होगा, क्योंकि दांपत्य जीवन पर ही परिवार का भवन खड़ा होता है। परिवारों से ही समाज बनता है, इसलिए पति-पत्नी का परस्पर तालमेल परिवार संस्था का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है।

अपने देश में आजकल विवाह एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आया है। पश्चिमी देशों में तो विकराल रूप धारण कर चुका है। वहाँ ‘चट मँगनी, पट शादी’ जितनी सरलता और शीघ्रता से संपन्न होती है, उतनी ही जल्दी टूट भी जाती है। उसमें स्थायित्व का अभाव होता है। इन दिनों तो वह गुड्डे-गुड़ियों का विवाह रचाने जैसा तमाशा बनकर रह गई है। भारत में तो फिर भी वह पवित्र बंधन कुछ सीमा तक अब भी कायम है। यहाँ के शहरों तक में ही प्रायः वह परिपाटी सीमित है, जिसमें विवाह करने व तलाक देने की परंपरा है, अन्यथा गाँवों में तो लोग इस कानूनी दाँव-पेंच से दूर ही रहना पसंद करते हैं। वास्तविकता तो यह है कि ग्रामीण जीवन में इस प्रकार की वैवाहिक जटिलताएँ यदा-कदा यत्किंचित् ही देखने को मिलती हैं। इन्हें छोड़ दिया जाए तो ग्रामवासियों का वैवाहिक जीवन इतना सुखद और संतोषपूर्ण होता है कि उन्हें इस प्रकार की कोई बात सोचने कीफुरसत ही नहीं मिलती।

शादी-संबंध की पेचीदगियाँ तो तथाकथित सभ्य समाज की देन हैं। इनके बारे में लिखते हुए अँगरेज समाजशास्त्री एन० मैकिट्स अपनी पुस्तक ‘मैरिज एंड मिसकैरिज’ में कहती हैं, “जहाँ शादी का अर्थ देहाकर्षण और काम-क्रीड़ा की पूर्तिभर लगाया जाएगा, वहाँ आएदिन विवाह होते और टूटते ही रहेंगे।” वे आगे लिखती हैं, “संभवतः पाश्चात्य जगत में इन दिनों इस पावन परिणय की परिभाषा सिकुड़कर ऐसी ही संकीर्ण हो गई है, फलतः वहाँ यह रिश्ता ज्यादा दिन तक न तो स्थिर रह पाता है और न स्थायी। तनिक-सी नोक-झोंक हुई नहीं कि पति-पत्नी तलाक लेने और देने की बात सोचने लगते हैं। इसका थोड़ा भी विचार नहीं करते कि इस संबंध-विच्छेद का संतानों पर क्या असर पड़ेगा। यही कारण है कि वहाँ की युवक- युवतियों में भी यह आदत छूत की तरह लगती दिखाई पड़ रही है।”

कुछ इसी प्रकार का मंतव्य प्रकट करते हुए डॉ० डेनेवल अपने ग्रंथ ‘ए रिव्यू ऑन वेडिंग’ में लिखते हैं कि पौर्वात्य और पाश्चात्य विवाह में अंतर मात्र इतना है कि पूरबी देशों में इस रिश्ते को एक पवित्र बंधन माना जाता है-एक ऐसा गठबंधन, जो जन्म-जन्मांतरों से चला आ रहा हो, जबकि यूरोपीय देशों में यह मात्र एक कानूनी प्रक्रिया है, जिसमें पत्नी मात्र कानूनसम्मत रखैल है (लिगलाइज्ड फोर्म ऑफ कनक्यूबाइनेज)। प्राच्य देशों में शादी दो दिलों का मिलन है, किंतु पश्चिम में यह संबंध शरीर तक ही सीमित होता है, अंतर की गहराइयों तक उतरने की उसकी सामर्थ्य नहीं। यहाँ इसे एक शर्तनामा (कांट्रेक्ट) से अधिक और कुछ नहीं माना जाता; जबकि भारत में इसे उच्च आदर्शों के प्रस्तुत कर सकने वाले एक आवश्यक अनुबंध के रूप में स्वीकारा गया है। वे कहते हैं कि वास्तव में इस संबंध में भारतीय मान्यता ही ज्यादा सही और सटीक है कि विवाह एक प्रकार का दायित्व वहन अथवा बंधन है। इससे पलायन, दायित्वशून्यता या निर्बाध स्वतंत्रता का कोई संकेत नहीं मिलता। उनके अनुसार घर जब तक बंद होता है, तब तक वह निरापद और शांतिमय होता है। कपाट खुला रहने पर उसमें चोर-उचक्के आ सकते हैं और तरह-तरह के उत्पात- उपद्रव खड़े करके घर की शांति भंग कर सकते हैं। यह बंधन का सुख है। जिस घर का दरवाजा टूटा-फूटा, ढीला- ढाला और चौपट हो, वहाँ आएदिन आक्रमण होते और कोहराम मचते ही रहेंगे।

यह सत्य है कि पति-पत्नी परिवाररूपी घर का किवाड़ हैं। इस किवाड़ के दो पल्लों में से एक भी खराब, असहिष्णु, अनुदार, कठोर हुआ तो घर लुट जाएगा, परिवार बिखर और बरबाद हो जाएगा और बच्चों की जो दुःखदायी स्थिति होगी, उसका अनुमान लगाना कठिन है। विदेशों में इस दशा में उन्हें जो कष्ट उठाना पड़ता है, उसे गंभीर नहीं तो पीड़ादायक अवश्य कहा जा सकता है; क्योंकि वहाँ दांपत्य जीवन में भी बच्चों को वह प्यार प्रेम नहीं मिल पाता, जो मिलना चाहिए। फिर तलाक के बाद माता-पिता के स्नेह की आशा कैसे की जा सकती है! तब तो नए साथी के साथ घर बसाने और ऐश-मौज करने में वे इतने व्यस्त हो जाते हैं कि संतान की कोई चिंता ही नहीं रहती और जब नए विवाह से नए जोड़े के बच्चे पैदा होते हैं, तब तो पहली संतान की एक प्रकार से उपेक्षा ही होने लगती है। पिता तो सौतेला होता ही है, माता के व्यवहार में भी बेरुखी झलकने लगती है।

जहाँ मातृत्व और पितृत्व का सूनापन साँय-साँय कर रहा हो, वहाँ संतानों को ऐसे ही त्रास झेलने पड़ते हैं। अपने देश में अभी इसका प्रभाव तो इतना विकट नहीं हुआ है, पर यह भी नहीं कहा जा सकता कि पश्चिम के प्रभाव से यह बिलकुल बचा हुआ है। तलाक के मामले पिछले दिनों यहाँ जितने अधिक प्रकाश में आए हैं, उनसे यही लगता है कि विवाह की मूल धुरी ही टूटकर बिखर गई है, अन्यथा भारतीय संस्कृति में पुरुष और स्त्री को आधा-आधा अंग मानकर एक शरीर की व्याख्या की गई है, जिसमें स्त्री को अर्द्धांगिनी व वामा कहा गया है। जब दो अर्धांग जुड़ गए, मिलकर एक हो गए तो फिर उनके अलग होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता है, पर आज यह सब कुछ संभव होता दिखाई पड़ रहा है। विज्ञान जिस प्रकार दो संलग्न अंगों को काटकर अलग कर देता है, उसी प्रकार वर्तमान कानूनी प्रक्रिया भी पवित्र वैवाहिक सूत्र-बंधन को तोड़ने और छोड़ने की मान्यता प्रदान कर देती है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि शादी अब यहाँ भी पति-पत्नी के अंतर्संबंधों को अभिव्यक्त करने वाला पावन संस्कार न रहकर बाह्य देहाकर्षण की बोधक बनकर रह गई है।

इसका कारण क्या है? गहराई में उतरकर उसकी जाँच- पड़ताल करने पर जो महत्त्वपूर्ण सूत्र हाथ लगता है, उससे यही प्रतीत होता है कि उसके पीछे कुछ हद तक भोगवादी मान्यता प्रधान कारण है और शेष के लिए इन दो की अनुदारता एवं असहिष्णुता को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। यदि इन सबसे बचा जा सके तो कोई कारण नहीं कि विवाह अपनी भारतीय अवधारणा के अनुरूप ‘पावन परिणय’जैसा कुछ साबित न हो सके।

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