विवाह पद्धति कौतुक न बनाया जाए । Simple Weddings: The Key to a Happy Life

भारतीय समाज में दीर्घ दासता के कारण तरह-तरह की विचित्र विसंगतियाँ एवं अंतर्विरोध घर कर गए हैं। अंधकार-युग में पनपे इन दोषों को दूर करने पर ही हम सचमुच सुसंस्कृत कहला सकते हैं।

ऐसी विसंगतियों का एक मूर्तरूप यहाँ प्रचलित वर्तमान विवाह-व्यवस्था है। एक ओर तो हर भारतीय विवाह को धार्मिक कृत्य कहता-मानता है। संसार में प्रत्येक धार्मिक कृत्य की दो अनिवार्य विशेषताएँ होती हैं- पहली उनकी सादगी, ताकि सर्वसाधारण उन्हें कर सकें। दूसरी उनकी सात्त्विकता-सहजता, ताकि उन्हें करने वाले सुख-शांति, संतोष एवं प्रसन्नता का अनुभव करें। जो कृत्य मुट्ठीभर लोगों के लिए सुगम, औरों के लिए दुर्गम हो तथा लोगों की परेशानियाँ बढ़ाए, उसे धार्मिक कृत्य नहीं माना जा सकता।

अपने यहाँ विवाह का प्रचलित स्वरूप ऐसा ही हो गया है कि उसे करने के पहले अच्छी-खासी पूँजी जुटानी जरूरी है। इतना धन न जुटा पाने के कारण अनेक लड़के- लड़कियाँ अनावश्यक समय तक कुँआरे बैठे रहते और तरह-तरह की विकृतियाँ अपनाते-फैलाते हैं।

इसके साथ ही विवाह का आयोजन जब होता भी है तो वह इतने सारे दबावों को लेकर आता है कि मानो कोई बहुत बड़ी आफत आ गई हो। हँसते-हँसाते सात्त्विक उल्लास एवं सुरुचिपूर्ण साधारण सज्जा के वातावरण में वर-वधू, अभिभावक, कुटुंबी, मित्र आदि बैठें, गंभीरता और पवित्रता का वातावरण हो, ऐसी क्रियाएँ हों, जो वर-वधू भली भाँति समझें और सत्प्रेरणा ग्रहण करें तथा उपस्थित लोगों को भी सरसता, सदाशयता का आनंद मिले, तब तो यह धार्मिक कृत्य हो सकता है, लेकिन अर्थहीन रीति-रिवाजों के कौतुकपूर्ण जाल-जंजाल को कौन समझदार व्यक्ति धार्मिक आयोजन मानेगा !

विवाह संस्कार एवं धर्मकृत्य के नाम पर होने वाले विचित्र क्रिया कलापों को यदि कोई स्वतंत्र बुद्धि का व्यक्ति देखी सील धागों को या तो पागल मान बैठेगा या कोई टोना टोटका जैसी रहस्यमय क्रियाएँ करने वाले लोग समझ बैठेगा।

एक विचित्र किंतु सत्य तथ्य यह है कि इस ऊल- जलूल प्रक्रिया का शास्त्रीय विधि-विधानों से कोई संबंध नहीं है। यह बुढ़िया-विधान मूवता की शाक्ति से उपजा और उसी पर टिका है। प्रायः लोग पुरोहितों को विश्वास्रवासी अरिताको नाहित किन होने पर भी इस कीचड़ में भैंसे ही रहेंगे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि यदि किसी भी विवाह शादी की पूरी प्रक्रिया को देखा जाए तो वहाँ प्रत्येक समझदार पंडित पुरोहित यह कहता है, “अच्छा भाई, सब लोग अपनी-अपनी रस्म पूरी कर मैं करूँ।” जो ऐसा नहीं कर लें, फिर मैं शास्त्रीय कृत्य शुरू कर में ही रोका-टोका जाता है और कहा जाता है कि अमुक कृत्य हमारे कुल राति है वह का किया गया तो अमुक प्रकार का अनिष्ट होगा। इससे यही स्पष्ट होता है कि इन लोगों को मंत्रों और पंडितों के प्रति भी अधिक आदर नहीं होता। सच तो यह है कि वर्तमान विवाहपद्धति में शास्त्रीय विधि-विधानों का स्थान अत्यंत गौण है। नई-नई मूढ़ताएँ तक उसमें आएदिन जुड़ती रहती हैं।

इन रीति-रिवाजों के कारण वर-वधू को घंटों व्यर्थ ही भूखे-प्यासे रहना और रातभर जागना पड़ता है। इनके दबाव से कार्यभार और अनावश्यक व्यस्तता इतनी अधिक बढ़ जाती है कि जिस घर में विवाह होता है, वहाँ के सभी वयस्क सदस्य चार-पाँच दिन तक अधपगलों की स्थिति में दौड़ते, भागते, व्यस्त रहते देखे जाते हैं। घरभर में हाहाकार-सा मचा रहता है, जिससे हर व्यक्ति के दिमाग में तनाव रहता है, नींद उड़ जाती है। उत्तेजित मनःस्थिति और आनंदरहित व्यस्तता का पाचन शक्ति तथा शरीरसंस्थान पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इससे संबंधित व्यक्तियों का स्वास्थ्य प्रायः खराब हो जाता है। चाहिए तो यह था कि आनंद, उमंग, प्रसन्नता भरे विनोद और प्रेरणादायक वातावरण से पुलकित तन-मन इस आयोजन के उपरांत नई ताजगी का अनुभव करता, दैनंदिन की व्यस्तता के दोहराव में परिवर्तन से सरसता और प्रफुल्लता आती, लेकिन मूढ़ताजन्य रूढ़ि इस उत्सव को एक यंत्रणाभरी प्रक्रिया बनाकर रख देती है।

इन रीति-रिवाजों की बहुलता के सारे स्वरूप को देखा जाए तो वे भोंड़े तो होते ही हैं, मनुष्य को शक्ति देने के स्थान पर उसका मनोबल तोड़ने-गिराने वाले भी होते हैं। वर-वधू को न जाने कितने नए-पुराने देवी-देवताओं की ही नहीं, पेड़ों, स्थानों, दोराहे-तिराहे-चौराहों की पूजा करने को कहा जाता है। इस पूजा का कोई प्रेरक प्रतीकात्मक अर्थ भी नहीं बताया हैं।।।, उलटे उनके प्रति अंधश्रद्धा और आतंक पैदा करने वाली जाता, उकल्पनाएँ गढ़ी-कही जाती हैं। इससे वर-वधू को कपथ जीवन-दृष्टि मिलने के स्थान पर उनमें जड़ता, भीरुता और विवेकहीन रूढ़िवादिता पनपती है।

इन रिवाजों की भरमार, भीड़-भाड़ और आपाधापी में कोई न कोई अलन-चलन करने में चूक हो ही जाती है। बस, रूढ़ि के गुलामों को तत्काल वर-वधू के अनिष्ट की संभावनाएँ दीखने लगती हैं। इससे अभिभावकों को मानसिक कष्ट उठाना पड़ता है। साथ ही वर-वधू भी आशंकित- आतंकित हो जाते हैं।

स्थिति यह है कि इन रीति-रिवाजों का स्वरूप एकसा कहीं नहीं है। इससे पढ़े-लिखे रहने वाले पंडितों को भी इनकी कोई निश्चित जानकारी नहीं रहती। वे तो अपनी दान-दक्षिणा के जुगाड़ में और विवाह की धार्मिक पुस्तकों के आधार पर अपना दायित्व पूरा करने तक ही सीमित रहते हैं। शेष प्रपंच से आँखें मूँदे रहने में ही वे अपनी भलाई समझते हैं। क्योंकि उन्हें वहाँ कोई सुनने वाला तो है नहीं। अन्य शिक्षित लोगों को भी इनकी कोई जानकारी नहीं होती। वे इसी ताक में रहते हैं कि किसी प्रकार यह बला टले, रस्में पूरी हों और अपना नाश्ता-पानी, भोजन का क्रम चले। ऐसी स्थिति में सारे आयोजन का नेतृत्व करते हैं अनपढ़-अविकसित रूढ़िविद्। कई बार दो रूढ़िविदों में किसी विधि के स्वरूप, समय और क्रम के बारे में ठन जाती है। वर-वधू, अभिभावक, पंडित, शिक्षित बराती, सब मुँह बाए ताकते रहते हैं। उन दोनों में आपस में कटुतापूर्ण कहासुनी होती है और वातावरण अपवित्र, अशोभन बनता है। इन चित्र-विचित्र रिवाजों का कोई एक निश्चित विधान है नहीं, अतः उनका कोई सर्वमान्य निर्णय भी तो संभव नहीं है। अब यदि एक पक्ष की मानी तो दूसरा क्रुद्ध। वह पूरे विवाह को ही अशुभ ठहरा देगा। दोनों को मानो तो अंधी आस्था इसे भी अशुभ ठहरा डालती है, क्योंकि प्रत्येक पक्ष का विश्वास रहता है कि मात्र उतना ही और वैसा ही करना शुभ है, जैसा वह कह-बता रहा है। ऐसी स्थिति में समय और धन की बरबादी तो होती ही है, भावनात्मक तुष्टि भी नहीं प्राप्त होती।

सच तो यह है कि रीति-रिवाजों का अमर्यादित, अनिर्धारित गोरख-धंधा इतना जटिल है कि उसका संतोष- पूर्ण निर्वाह असंभव है। फिर इस गोरखधंधे का प्रवर्तक हर रूढ़िवादी यह चाहता है कि इसके प्रति लोगों की अंधश्रद्धा बनी रहे। यदि वह किसी भी विवाह को यह कह दे कि हाँ, इसमें सभी रस्में सही ढंग से निभाई गई हैं तो फिर उसी के अनुसार उस दंपती के जीवन में कोई भी बाधा-व्यवधान नहीं आना चाहिए; क्योंकि सारे देवता, भूत, बाबा-जोगी, पीर-पगार आदि सबको तुष्ट कर दिया गया है।मूढ़ से मूढ़ रूढ़िवादी यह जानता है कि मनुष्य जीवन में परेशानियों और कष्ट के अवसर न आएँ, यह असंभव है। अतः यह उसकी विवशता होती है कि वह किसी न किसी रस्म, नेग-जोग, अलन-चलन में कोई गलती रह गई होना या कमी रह जाना सिद्ध करे; ताकि भविष्य में जब कभी कोई अप्रिय घटना घटे, तब वह अपने भविष्यकथन की धाक जमा सके।

इस प्रकार यह सारा ही क्रम मूढ़तावर्द्धक, आतंककारी, मनोबल को घटाने वाला, व्यक्ति जीवन में आशंकाएँ तथा हीनता का भाव बढ़ाने वाला, अविवेक की प्रतिष्ठा करने वाला और चिंतन-मनन की क्षमताएँ घटाने वाला है। इनका पालन करने वाला समाज असंस्कृत और अज्ञानी ही बनता चला जाएगा; क्योंकि वह स्वयं नहीं जानता कि वह अमुक कृत्य क्यों कर रहा है।

विवाह की भूमिका से लेकर उपसंहार तक ऐसे सैकड़ों नहीं, हजारों छोटे-बड़े रिवाज, रस्म, अलन-चलन, पूजा- पाठ, टोटके और व्यवहार किए जाते हैं, जिनका अर्थ एवं अभिप्राय पूछा जाए तो उन्हें करने और कराने वाले दोनों एक ही उत्तर दे पाते हैं, “ऐसा होता चला आया है। हमारे यहाँ ऐसा चलन है। हमारे कुल की यह परंपरा है।” जबकि एक तो जो होता चला आया है, वह सभी कुछ ठीक नहीं कहा जा सकता। दूसरे, सचाई यह है कि सब परंपरा-पुष्ट भी नहीं है। किसी भी घर और घराने में इन दिनों चल रहे इन रिवाजों में से तीन-चौथाई तक आज से डेढ़-दो सौ साल पहले नहीं चलते थे। उनकी संख्या क्रमशः बढ़ती गई है। हजारों वर्ष पहले उनका क्या स्वरूप था, यह जानने की तो रूढ़ि-पूजकों को कभी न इच्छा होती है और न फुरसत मिलती है। इस प्रकार इन रीति-रिवाजों का आधार न तो शास्त्र हैं और न परंपरा। विवेक से तो उनका प्रत्यक्ष बैर ही है। वे मात्र अज्ञानता, मूढ़ता और मनोविकृति पर टिके तथा बढ़ रहे हैं।

धर्मकृत्य तथा सुसंस्कार के नाम पर चलने वाली इन बाल-क्रीड़ाओं और पागलों की अनबूझ क्रियाओं जैसी विचित्र किंतु उनसे हजार गुनी महँगी, हानिकारक एवं असभ्यतापूर्ण कुरीतियों के जंजाल को हटाना आवश्यक है, जिससे कि विवाह एक बोझ न बना रहे। वह सभ्य एवं सुसंस्कृत लोगों का सुरुचिपूर्ण आयोजन बने, चित्त को स्फूर्ति तथा प्रसन्नता दे। क्रियाएँ वर-वधू को भावभरी प्रेरणाएँ दें। उपस्थित लोगों को भी उससे शिक्षा मिले, हर्ष हो। शरीर, मन, बुद्धि आर्थिक स्थिति एवं सामाजिक वातावरण पर उसका प्रतिकूल प्रभाव न पड़े, अपितु उल्लास, आनंद एवं आदर्श की धारा को विवाह-कृत्य वेगवान बनाए। यही विवेकशील मनुष्य के लिए उपयुक्त है।

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