भारतीय विवाह संस्था रुग्ण और विकृत हो चुकी है। उसका अब न कोई समकालीन वैश्विक संदर्भ है, न ही सनातन शास्त्रीय संदर्भ। यह विकृति मनोविज्ञान, लूटमार की व्यवस्था तथा उसकी प्रतिक्रिया, बुढ़ियापुराण और अंधानुकरण की कर्दम प्रवृत्तियों का एक ज्वलंत उदाहरण मात्र है। उसमें से स्वस्थ, उपयोगी, लाभकारी और कल्याणकारी तत्त्व समाप्तप्राय हो चले हैं। इस तथ्य को जो लोग समझ चुके हैं, वे ही उसकी विकृतियों से निर्ममतापूर्वक पिंड छुड़ाकर – नई रचनात्मक रीतियों के साथ उसे जोड़ने हेतु सक्रिय हो सकते हैं। जो लोग इस तथ्य को ही मानने को तत्पर न हों कि संप्रति हमारी विवाह संस्था विकृत एवं रुग्ण हो चुकी • है और उसे पुनः स्वस्थ बनाने की आवश्यकता है तो वे इस संस्था का क्षरण और विघटन ही देख सकेंगे। हिंदू धर्म का सुदीर्घ, सुविस्तृत इतिहास है और उसके अनेक रूप हैं। – इसकी विवाह संबंधी मान्यताएँ तथा व्यवस्थाएँ भी निरंतर परिवर्तित होती रही हैं और जो लोग यह तर्क देते हैं कि विवाह संस्था का मौजूदा स्वरूप सनातन है या सहस्रों वर्षों से चला आ रहा है, वे या तो मूर्ख होते हैं या फिर छल कर रहे होते हैं।
सचाई यह है कि विवाह संस्था के उद्देश्य, आधार, प्रविधि और प्रक्रियाएँ, सभी में सतत परिवर्तन होता रहा है। हाँ, प्रत्येक परिवर्तन प्राचीनता से अपने जुड़े होने के दावे के साथ किया जाता रहा है। यह भारतीयों की प्रिय शैली प्रतीत होती है कि वे प्रत्येक परिवर्तन की जड़ें शास्त्रों में बताएँ। ऐसा बताते हुए न केवल शास्त्रों से भिन्न, वरन विपरीत मार्ग पर भी लोग बढ़ते रहे हैं।
ऋग्वेद में ऐसे मंत्र हैं, जो स्पष्ट करते हैं कि वैदिक काल में विवाह परिपक्व युवक-युवतियों के बीच, परस्पर इच्छा व संकल्प के साथ होता था। विवाह का निर्णय सीधे ही युवक-युवती करते थे। वे विवाह तेजस्वी जीवन जीने के लिए करते थे।
अब इस उद्देश्य की बालविवाह, दहेज प्रथा, अलन- चलन आदि रीति-रिवाजों से घिरे तथा यौन-आकर्षण व प्रजनन के लिए किए जाने वाले विवाहों से तुलना करें। भला दोनों लक्ष्यों में कौन-सा साम्य है? क्या विवाह के समय कुछ वैदिक मंत्र बोल लेना या पुरोहित से बुलवा देना ही विवाह को वैदिक बना देता है? श्रुति ही नहीं, मनु आदि रचित स्मृतियों में भी विवाह के जो विधान हैं, वे प्रचलित विवाह-रस्मों से सर्वथा भिन्न हैं।
आज विवाह के उद्देश्य के बारे में जो धारणाएँ फैली हैं, उन्हें तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है।
(१) विवाह एक द्विपक्षीय अनुबंध है।
(२) विवाह स्वाभाविक यौन-आकर्षण तथा यौन-क्षुधा की पूर्ति के टिकाऊ प्रबंध के लिए सामाजिक स्वीकृति से संपन्न एक रस्म है।
(३) विवाह समाज में प्रचलित वह विधान है, जिसके बारे में सोचना व्यर्थ है, उसे अपनाना ही अच्छा है।
दूसरी ओर भारतीय मनीषियों की दृढ़ मान्यता यह रही है कि विवाह दो आत्माओं का मंगल मिलन है। पाणिग्रहण के समय बँधी गूढ़ एवं अदृश्य ग्रंथि जन्म-जन्मांतर तक बँधी रहती है। भारतीय मान्यता के अनुसार विवाह स्त्री- पुरुष, दोनों को एकसूत्र में बाँधकर अर्द्धनारी नटेश्वर की तरह उन्हें एकरूप बना देता है। पति-पत्नी एकदूसरे के अर्धांग होते हैं और दोनों का समन्वय एक पूर्ण इकाई की सृष्टि करता है। इस प्रकार विवाह साधना-पथ पर आरूढ़ होने का व्रत-पर्व है, जो दोनों के भिन्न अस्तित्व को घुला- मिलाकर गंगा-यमुना की तरह एकाकार संगम में परिणत करता है। तभी तो विवाह के समय पति-पत्नी परस्पर कहते हैं-
यदेतद् हृदयं तव तदस्तु हृदयं मम् ।
यदिदं हृदयं मम तदस्तु हृदयं तव ॥
यह जो तुम्हारा हृदय है, वह मेरा हृदय बन जाए और यह जो मेरा हृदय है, वह तुम्हारा हो जाए।
साथ ही दोनों सम्मिलित रूप से देवशक्तियों को साक्षी रखकर संकल्प करते हैं।
विवाह के संबंध में अवधारणा स्पष्ट होनी चाहिए। सृष्टि में प्रत्येक कार्य अपने कारण से जुड़ा रहता है और विवाह के संबंध में जो दृष्टिकोण तथा व्यवहार होगा, जिन आधारों पर वह तय किया जाएगा, जिस भाँति संपन्न किया जाएगा, वैसे ही परिणाम सामने आएँगे। जो लोग विवाह के लिए वर-कन्या का चयन तो किन्हीं और आधारों पर करते लिए वर देखाएँ का आधारों से भिन्न किस्म की पालते हैं,उन्हें विफलता और निराशा के सिवाय कुछ मिलने वाला नहीं।
इस दृष्टि से आज की स्थिति देखें तो विचित्र हो दृश्य सामने आता है। आज वर-वधू की जोड़ी किस आधार पर तय की जाती है? सर्वोपरि आधार तो जातीय बंधन का रहता है, जिसे एक प्रकार से सामाजिक रुढ़ियों का भय माना जा सकता है। यह भी इस बात का प्रमाण है कि संबंधित लोगों के जीवन में कोई पोल है। क्योंकि सुस्पष्ट और सुदृढ़ चरित्र के लोग सदा से ही तेजस्वी होते रहे हैं और समाज की अनुचित रूड़ियों को ठुकराते रहे हैं, अतः समाज का यह तथाकथित भय लोगों की सामाजिकता का द्योतक है। यदि सचमुच सामाजिकता का भय हो तो बेईमानी, घूसखोरी, मिलावट, छल तथा अमीरी के स्वाँग जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ लोग क्यों अपनाए रहें ! ये सब अपराध धड़ल्ले से करने वाले लोग जब विकृत रूढ़ियों को मानते समय सामाजिकता की दुहाई देते हैं तो यह विश्वसनीय नहीं लगता।
वर-वधू की पसंदगी में अगला आधार धन का तलाशा जाता है। लड़की वाले लड़के के परिवार की संपत्ति, पद- प्रतिष्ठा तथा आजीविका का स्वरूप देखते हैं। ऐसा कमाऊ लड़का देखा-ढूँढ़ा जाता है, जिसकी ऊपरी आमदनी अर्थात घूसखोरी ज्यादा हो। उधर लड़के वाले भी ऐसी ही लड़की तलाशते हैं, जो ज्यादा से ज्यादा दहेज ला सके। पसंदगी का अगला आधार होता है रूप। लड़का देखने में छैला लगे, यह लड़की वालों की इच्छा रहती है। उधर लड़के तो चाहते ही हैं परी-सुंदरी। इन पसंदों से लोगों की सामाजिक मान्यता का स्पष्ट पता चलता है। धन को और वो भी काला धन पसंद करने वाले स्पष्टतः भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन देने वाले कामुकता के उभार को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। दूसरी ओर यही लोग समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और चारों ओर फैल रही वासनोत्तेजक परिस्थितियों पर रोब क्षोभ शोक व्यक्त करते देखे जाते हैं। दोहरेपन की भी कोई सीमा है क्या ऐसेव्यवहार में? यह तो दोमुँहेपन की पराकाष्ठा है।
काले धन और गोरे रूप को अतिशय प्रमुखता देने का जो दौर चला है, उससे हानियाँ ही सुनिश्चित हैं। पत्नी सुंदर हो तो एक लाभ यह माना जा सकता है कि वह मन को अधिक आकर्षक लगेगी। सुंदर दृश्य, सुंदर स्थान, सुंदर वस्तुएँ मन को भाती हैं, सुंदर चेहरा भी। यह स्वाभाविक है, पर रूप को अधिक प्रधानता देने वाले वातावरण में लड़कियों के रूपजन्य अहंकार की वृद्धि अनिवार्य है, यह ध्यान रहे। जन कही लड़की पत्नी के रूप में आत्मगर्विता रूपसी बनकर रह जाती है, उसके व्यवहार से शिष्टता-शालीनता उपेक्षा और रूप का दर्ष प्रकट होता है, तब जिस रूप को इतनी अधिक प्रधानता दी गई थी, जिसे पाना जीवन का बहुत बड़ा पुरुषार्थ मान लिया गया था, वही दंश देने लगता है।
बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। यह तो साधारण-सो बात है कि देह के उभार के प्रति प्रचंड आकर्षण का वातावरण बनने पर लड़की के दिल-दिमाग में भी बही मान्यता छा जाएगी और वह भी रूप के प्रति अदम्य आकर्षण पाल बैठेगी। ऐसी स्थिति में उसके भीतर भी पति से अधिक किसी रूपवान युवक के प्रति खिंचाव उभर सकता है। यह ध्यान रहे कि यह प्रक्रिया शील के परित्याग को ओर ले जाती है। फिर इन दिनों तो रूप ही नहीं, ‘कट’ को पसंद करने का प्रचलन है। यह ‘कट’ क्या है? सिनेमा के परदों पर प्रस्तुत नट-नटनियों के शरीर की सज्जा से बने ‘भावबिंब’ ही ‘कट’ कहलाते हैं। ये ‘कट’ उन नट-नटनियों के भी शरीर की वास्तविक प्रतिच्छवि नहीं होते, वरन बनाव-ठनाव तथा कैमरे की करामात के सम्मिलित प्रयास- परिणाम होते हैं। अयथार्थ देह-बिंब की कल्पनाओं पर टिकी ‘कट’ की यह धारणा जिन लड़के-लड़कियों के दिल-दिमाग पर छा जाती है, वे देह के इस कल्पित बाहरी ढाँचे यानी ‘कट’ से जिस युवक-युवती की देहयष्टि को कुछ समानता देखते हैं, उधर ही उनका आकर्षण उमड़ पड़ता है। ऐसे में शील के प्रति आग्रह कितना शेष रह सकता है, सहज विचार किया जा सकता है। ‘कट’ और रूपाकार को प्रधानता देने वाली विवाह संस्था के क्या परिणाम निकलेंगे, कल्पना करना कठिन नहीं। इस प्रवृत्ति से विवाह तथा परिवार-संस्था के आधारभूत प्रयोजन तो पूरे होने असंभव ही हैं, स्वयं रूप-यौवन तक सुलभ नहीं हो पाता; क्योंकि ‘कट’ और मांसलता को टटोलते फिरने वाली आँखों में न तो पैनापन होता है और न ही गहराई। आकर्षण की अंधी प्यास, विवेक के अभाव में, कई बार मृग-मरीचिका में फँसा देती है। लिपे-पुते चेहरे के पीछे से झाँक रही बीमारी को सतहजीवी आँखें नहीं देख पातीं। पाश्चात्य देशों में तो लड़के-लड़की आपस में कई दिनों तक साथ-साथ रहते हैं, घूमते हैं, एकदूसरे को समझने की कोशिश करते हैं, तब भी यौवन का आवेश सही निर्णय का संतुलन नहीं बना रहने देता, फिर कुछ मिनटों में देखा गया ‘कट’ और रूप धोखा दे दे तो क्या आश्चर्य। ऐसे में स्वस्थ साधी तक नहीं मिल पाता।
यही बात धन के बारे में अंधी मान्यता के प्रति भी लागू होती है। जहाँ ऊपरी कमाई ही देखी जाती है, वहाँ दिखावे का भी बोलबाला रहता है। दिखावे के अभ्यस्त लड़के दुव्र्व्यसनी भी होते हैं। वह दुर्व्यसन धन को भी चौपट करता है. स्वास्थ्य को भी और उसे ब्याही गई लड़की की जिंदगी में अभाव, अपमान, अवनति और अवसाद का ही आधिपत्य रहता है। फिर ऊपरी कमाई का अमीरी के प्रदर्शन से सीधा संबंध है। अपने समाज में विवाह के नाम पर प्रदर्शन और फजूलखरची का जो भयानक अभिशाप फैला है, उसके मूल में काले धन को मस्तक नवाने की अनैतिकतापूर्ण प्रवृत्ति ही है। यह अपव्यय लोगों को न सिर्फ बेईमान बनाता है, वरन भीतर से आर्थिक दृष्टि से भी खोखला बनाता है। इसी खोखलेपन को ढकने के लिए कुल, वंश की इज्जत आदि की बड़ी-बड़ी डींगें हाँकी जाती हैं। इन डींगों की तह तक देखने पर पता चलेगा कि ऐसे लोग प्रकारांतर से, बेशरमी के साथ यह बखान रहे होते हैं कि उनके कुल में अमुक अमुक पूर्वज किस कदर तिकड़मी, छली, शोषक, व्यभिचारी, अपव्ययी तथा दुर्व्यसनी थे। इसे ही शान की जिंदगी वगैरह कहा जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि इन दिनों विवाह में रिश्ते तय करते समय को बात-चीत, लड़के-लड़की चुनने का परिधि क्षेत्र, पसंदगी के आधार, विवाह-उत्सव का स्वरूप और पति तथा पत्नी से एवं एकदूसरे की ससुराल से पाली जाने वाली अपेक्षाएँ, सभी कुछ असंगत, अस्पष्ट और अशालीन तथा अविवेकपूर्ण हैं। ये सारी प्रवृत्तियाँ अस्वस्थ, रुग्ण, विकृत मानस के लक्षण हैं। इससे मुक्त होने पर ही स्वस्थ, श्रेष्ठ वैवाहिक, पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन जी सकना संभव है। यदि निरुद्देश्य रहकर ही इस रूढ़ि का निर्वाह किया जाता है, तब तो कोई बात नहीं, किंतु स्वस्थ दांपत्य जीवन की वाह है तो स्वस्थ आधार बनाने होंगे। इस दृष्टि से तीन बातों को प्रधानता देनी होगी। उत्तम स्वास्थ्य, आचार-व्यवहार को अनुरूपता, स्वस्थ जीवन-दृष्टि। विवाह को स्वस्थ, मधुर उत्सव के रूप में संपन्न करना भी स्वस्थ जीवन-दृष्टि का ही अंग है।
विवाह का प्रमुख प्रयोजन दो मित्रों का संपूर्ण सहजीवन है। यह मैत्री समस्वरता, समानता तथा आदान-प्रदान की क्षमता पर ही निर्भर है। अतः लड़के और लड़की, दोनों को अपने जीवनसाथी का चुनाव इन्हीं कसौटियों पर कसकर करना चाहिए। तभी वे दांपत्य जीवन का आनंद प्राप्त कर सकते हैं। यह भी वहां पत्रकाले अभिभावक करें या पुत्र पुत्री की सहमति से बाई अथवा लड़के-लड़की स्वयं ही करें, किंतु ये आधार ध्यान में रखे जाने चाहिए।
न्यूनतम आवश्यकता मात्र यह है कि लड़की-लड़के स्वस्थ हों; ताकि उनके उत्तरदायित्व भली भाँति निभा सकें।दोनों में परिश्रमशीलता, कर्त्तव्यनिष्ठा तथा मानवीय सत्प्रवृत्तियाँ पर्याप्त हों, उदारता और सदाशयता की कमी न हो। साथ ही दोनों की पारिवारिक परंपराएँ अधिक भिन्न तथा जीवन संबंधी दृष्टिकोण परस्पर प्रतिकूल न हों। इन आधारभूत आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए रिश्ते तय करने तथा उत्सव को सादगी-शालीनता से मनाने पर ही विवाह-संस्था को स्वस्थ रखा जा सकता है।