पानी के बुलबुलों की तरह बनने-बिगड़ने वाले विवाह- संबंधों ने पाश्चात्य जगत पर दो बहुत बुरे प्रभाव डाले हैं। एक तो उस वचन-अनुबंध का निर्वाह कब तक हो सकेगा इसकी अनिश्चितता । पति-पत्नी प्रमुखतः वासनात्मक आकर्षण से विवाह करते हैं। वह जब तक दोनों ओर से पटरी पर चलता रहता है, तब तक वह अनुबंध बना रहता है, जैसे ही किसी एक ओर से उसमें कमी पड़ती है, वैसे ही असंतुष्ट पक्ष दूसरा साथी तलाश करने में लग जाता है और जैसे ही संयोग बन जाता है, वैसे ही विच्छेद की स्वीकृति अदालत से सरलतापूर्वक प्राप्त कर ली जाती है।
आदि से अंत तक की क्रमबद्ध योजना उनमें से कोई पक्ष नहीं बनाता और न किसी योजना में कोई दूसरे पक्ष को सुनिश्चित सहकारी मानता है। एक घर में रहने और यौनाचार की मान्यता प्राप्त करने पर दोनों अपनी स्वतंत्र दृष्टि रखते हैं। इसलिए या तो बचत होती ही नहीं या फिर उसे इसको सुरक्षा में रखने की बात सोचते हैं। संकट के समय अधिकांश विवाह टूट जाते हैं; क्योंकि इन दिनों मनोरंजन की सुविधा घट जाती है और सहायता का झंझट सिर पर ओढ़ना पड़ता है। इसकी अपेक्षा सुरक्षित पक्ष को पल्ला झाड़कर अलग हो जाना ही सुविधाजनक प्रतीत होता है। ऐसी दशा में कोई पक्ष किसी को जीवनसाथी नहीं मानता है। विवाह को एक ऐसा अनुबंध मानता है, जो जब तक लाभदायक लगे, तभी तक निभे। यही कारण है कि बिना जड़ की बेल बहुत समय हरी-भरी नहीं रहती।
दूसरी समस्या बच्चों की है। यों पाश्चात्य देश वाले इसे झंझट मानते हैं, इसलिए वे इससे बचाव के तरीके अपनाते हैं। फिर भी यदि संतान या संतानों के रहते विच्छेद करना पड़े तो दोनों में से कोई भी उन्हें सँभालने की जिम्मेदारी उठाने को सहज सहमत नहीं होता। ऐसी दशा में वे सरकारी अनाथालय में दाखिल होते हैं। उनका खरचा आमदनी के अनुपात में अभिभावकों को जमा करना पड़ता है। इस प्रकार पाले गए बच्चों का अभिभावकों के प्रति गहरा लगाव होना असंभव है। श्रद्धा और सम्मान जैसा कुछ तो होता ही नहीं।
संतान की अपेक्षा युवावस्था में काम-काज में हाथ बँटाने तथा बुढ़ापे में सेवा-सहायता करने के संबंध में होती है। पाश्चात्य जगत में यह आशा लड़कियों से भी पूरी नहीं हो पाती। लड़कियाँ तो कुमारिका या परित्यक्त रहने की दशा में ही माँ-बाप की ओर कुछ ध्यान दे पाती हैं। ऐसी दशा में बूढ़ों को सरकारी बूढ़ेखाने में अपंगों की तरह भरती होना पड़ता है। अपनी निज की या सरकारी पेंशन के सहारे तक ही उन्हें मौत के दिन पूरे करने पड़ते हैं। उन संपन्न देशों में यह अच्छाई है कि बढ़ी हुई संपन्नता के कारण सरकार अनाथ बालकों एवं असमर्थ बूढ़ों का पालन-पोषण करती रहती है।
भारत की दशा बहुत विपन्न है। यहाँ कुमारियों द्वारा जने हुए बच्चों को सामाजिक सम्मान नहीं मिलता, न सरकार की ओर से ऐसी कोई व्यापक व्यवस्था है। तलाक-शुदाओं तथा विधवाओं के बच्चों का पालन भी सरकार अपनी आर्थिक कठिनाइयों के कारण कर सके, ऐसी संभावना नहीं है। इतने पर भी अपने देश के शिक्षित नवयुवक पाश्चात्य वैवाहिक स्वेच्छाचार की ओर तेजी से अग्रसर हो रहे हैं। सिनेमा इस संदर्भ में लड़के और लड़कियों को विशेष रूप से प्रोत्साहन दे रहा है। ये प्रेम-विवाह की ओर कदम तो बढ़ा देते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि वर्तमान के रहते वह उठाया हुआ कदम कितने दिन निभ सकेगा। तनिक-सी तुनकमिजाजी में तलाक की नौबत जब यूरोप में आती है तो उसी की नकल करने पर यहाँ क्यों नहीं आएगी। जब लड़के मनपसंद की अति सुंदर लड़की ढूँढ़ते हैं तो लड़कियाँ वैसा ही दृष्टिकोण क्यों नहीं रखेंगी ! रूप-यौवन में यह खराबी है कि वह कुछ ही दिन आकर्षक लगता है, इसके बाद नवीनता खोजने लगता है। लड़के उस राह पर चलते हैं तो लड़कियों को कितने दिन तक उस अनुकरण से रोका जा सकेगा ! समानता का दावा जब चल ही पड़ा है तो अपने देश में लड़कों की भाँति अधिक सुंदर साथी ढूँढ़ने के लिए उलटे-सीधे कदम क्यों नहीं उठाएँगी और यूरोप जैसा सिलसिला यहाँ क्यों नहीं चल पड़ेगा !
सामाजिक प्रथा-प्रचलन से एक ओर अतिशय कठोरता और दूसरी ओर उच्छृंखलता के प्रति उत्साह, दोनों का निर्वाह एक साथ कैसे हो-इसी कारण अपने समाज में अभूतपूर्व विग्रह उठ खड़ा हुआ है। कदम पुरुषों की ओर से आगे बढ़ा है तो देर-सबेर में उस पर अनुकरण स्त्रियों की ओर से न होने लगे, इसकी कोई गारंटी नहीं।
पत्नी के कुरूप होने, पिता के घर से विपुल वैभव दहेज में न लाने तथा किसी अन्य के साथ दोस्ती हो जाने पर तलाक लेने की इच्छा होती है, पर वैसा प्रचलन अभी नहीं हो पाया है, इसलिए पीछा छुड़ाने के लिए गला घोंट देने, जहर पिला देने, तेल छिड़ककर जला देने जैसे कुकृत्यों की बाढ़ आने लगी है। ऐसी घटनाओं से आएदिन के अखबार रँगे रहते हैं। यह समाजगत भयानक विग्रह है। इसे बदलना होगा। यों तो पुरातन परंपरा के अनुरूप पतिव्रत शब्द का उपयोग करते ही यह विचार करना पड़ेगा कि पत्नीव्रत उससे भी अधिक कड़ाई के साथ निभाया गया है या नहीं। यदि नहीं तो पत्नी के लिए भी वैसी ही गुंजाइश छोड़नी पड़ेगी। पति की कुरूपता पर संतोष किया जाए और पत्नी की कुरूपता त्याज्य समझी जाए या तिरस्कृत की जाए, यह दुरंगी चाल कब तक चलेगी! पौर्वात्य या पाश्चात्य, दोनों में से एक ही मार्ग अपनाना पड़ेगा। पुरुषों के लिए यूरोप जैसी सुविधा और उस मार्ग में बाधक प्रतीत होने पर पत्नी को मृत्युदंड- मृत्युदंड- यह ‘न्याय’ कब तक चल सकेगा ! फिर बच्चों का भविष्य और बुढ़ापे का आश्रय, इन दो बातों पर भी विचार कर लेना चाहिए। बच्चे माता के साथ पिता द्वारा बरते गए अनाचार को ध्यान में रखते हैं। इस समय कुछ कर न पाने की स्थिति में होने के कारण जब समय आता है, तब बड़े होने पर पूरा-पूरा बदला चुकाते हैं। पिता के दुर्बल होने पर काम-धंधा लड़कों के हाथ आते हो एक-एक पैसे के लिए मोहताज होना पड़ता है और आएदिन भर्त्सना सहनी पड़ती है।
हमें निश्चय करना होगा कि दांपत्य जीवन का क्या स्वरूप हो ? यदि पश्चिम का अनुकरण ठीक है तो आदि से अंत तक वैसी ही व्यवस्था बना देनी चाहिए और कुमारिकाओं से लेकर परित्यक्ताओं, विधवाओं को प्रजनन की छूट देते हुए उनके पालन का अनाथालयों में प्रबंध करना चाहिए। उसमें बुरा मानने जैसी कोई बात नहीं समझी जानी चाहिए। साथ ही दहेज की बात मन में से एकदम निकाल देनी चाहिए। वह स्थायी जीवन में लड़की की भलाई और सुविधा के लिए दिया जाता है। जब वह आधार ही डगमगा गया तो ससुराल से उपहार पाने का तर्क ही क्या रहा!
भारत में नर-नारी सभी मध्यम वेशभूषा के होते हैं। यदि पसंदगी लड़की के स्वरूप पर आधारित होती है तो यह खतरा बना ही रहेगा कि इससे सुंदर लड़की पर दृष्टि पड़ने के उपरांत उस पसंद की गई लड़की के प्रति भी निष्ठा न रहेगी। ऐसी दशा में ऐसी दृष्टि वाले लड़कों को भारत छोड़कर यूरोप चले जाना चाहिए और वहीं विवाह करना चाहिए तथा जो कठिनाइयाँ वहाँ उठानी पड़ती हैं, उनके लिए तैयार रहना चाहिए।
यह बन नहीं पड़ेगा कि पुरुषों की तानाशाही सुपसंदगीचलती रहे, दौलत मिलती रहे और जब मन खट्टा हो, तभी गरदन मरोड़ देने का विशेषाधिकार हाथ में बना रहे। पुरुष दूसरा, तीसरा, चौथा विवाह करते रहें, स्त्रियों को उसी घुटनभरे वातावरण में त्रास सहना पड़े। प्रतिशोध वे स्वयं न ले सकीं तो समाज का एक न्यायपक्ष उठ खड़ा होगा और इस स्वेच्छाचारिता की गरदन न सही, नाक काट लेने जैसा तो कुछ करेगा ही। हमें दोहरे मापदंड नहीं रखने चाहिए और चुनाव करना चाहिए कि पाश्चात्य दांपत्य जीवन अपनाना है या पौर्वात्य। दोनों में अच्छाइयाँ और बुराइयाँ हैं, दोनों में छूट तथा जिम्मेदारियाँ हैं। अभी अवसर है कि हम पत्नीव्रत और पतिव्रत परंपराओं को कठोरतापूर्वक निभाएँ और सुखी दांपत्य जीवन जिएँ, अन्यथा पश्चिम का अनुकरण हमें पश्चात्ताप ही नहीं, प्रताड़ना के लिए भी विवश करेगा।