प्रत्येक युवक-युवती गृहस्थ जीवन में प्रवेश के पूर्व एक रहस्यमय कल्पना-लोक में रहते हुए भावी गृहस्थी की झशक्रियाँ देखते और विचार करते हैं। आशाओं-आकांक्षाओं के एक विशाल भवन का वे कल्पना-लोक में निर्माण करते हैं। युवक की इच्छा रहती है कि उसकी भावी जीवन सहचरी में परी-सा सौंदर्य हो, ब्रह्मवादिनियों-सा तेज हो, विद्वत्ता और संस्कृति की छाप उसमें स्पष्ट दिखाई पड़े, परिश्रमी भी पर्याप्त हो, ताकि घर-गृहस्थी की झंझटों से उसे मुक्त ही रखें। माता-पिता और परिवार के सदस्यों की देख-भाल में सदा तत्पर रहे, सहिष्णु हो, उदार हो, सेवाभावी हो, कठिनाइयों को हँसकर झेल ले आदि-आदि। युवती तो संवेदना और भावना की प्राण-प्रतिमा ही है। उसके भी सपने कम ऊँचे क्यों हों? वह भी चाहती है सुंदर-आकर्षक सुगठित शरीर, निर्मल चरित्र, संपूर्ण निष्ठा। जब उससे अकस्मात् कोई गलती हो जाए तो पति हँसकर क्षमा कर दे, भरपूर प्यार है, गलती हो जाए तो पति हँसकर क्षमा कर है। सदा ध्यान रखे, अधिक से अधिक समय उसके साथ रहे, समाज में प्रगति करे एवं प्रतिष्ठा प्राप्त करे, उसकी सुविधाओं का सदा ध्यान रखे, पर्याप्त आमदनी वाला हो और पत्नी के लिए खरच करने में उदार हो आदि।
स्पष्ट है कि ये सभी आकांक्षाएँ बहुत अतिरंजित नहीं हैं। एक ही व्यक्ति में इन सभी गुणों का होना असंभव भी नहीं है, परंतु विश्व की यथार्थता कुछ और ही है। यहाँ हर प्रकार की विशेषताएँ एक ही व्यक्ति में मिलनी बहुत कठिन हैं। फिर समाज व्यवस्था की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वर्तमान में सामाजिक व्यवस्थाएँ इतनी विषम और विकृत हो चुकी हैं कि शिक्षा, स्वास्थ्य और उन्नति के अवसर सबके लिए समान नहीं हैं। किसी को लाख प्रयत्नों के बावजूद पोषक आहार नहीं मिल पाता, अतः शरीर उतना सुगठित नहीं हो पाता तो किसी के पास शिक्षा भी है, स्वास्थ्य भी है, किंतु आर्थिक समृद्धि नहीं है, अतः पत्नी के लिए डटकर पैसे खरच कर सकने की स्थिति में उसके होने की कोई संभावना नहीं है। कोई भावनाशील है तो कुछ क्रोधी भी है; कोई हँसमुख और उदार है, किंतु परिश्रमी कम है। ऐसी स्थिति में विश्व की कठोर वास्तविकताओं का ध्यान रखना ही होगा, अन्यथा कल्पना कभी भी पूरी न हो सकेगी और मन में असंतोष बना ही रहेगा। अतः आवश्यक यह है कि विवाह के पूर्व ही इस यथार्थ को भली भाँति हृदयंगम कर जीवन-साथी के चुनाव के समय उन गुणों और विशेषताओं को प्राथमिकता दी जाए, जो सफल और प्रगतिशील दांपत्य जीवन के लिए आवश्यक है।
यहीं एक दूसरा प्रश्न उभर आता है, कि सफल दांपत्य जीवन की धारणा क्या है? यदि गृहस्थ जीवन की सफलता से तात्पर्य मौज-मजा उड़ाने भर से है तो यह इच्छा सारी सुविधाएँ विद्यमान होने पर भी अधिक समय तक पूरी हो सकेगी, इसमें संदेह ही है। निरे मौज-मजा की प्रवृत्ति से व्यक्ति का आंतरिक सत्त्व तेजी से नष्ट होगा और समस्त सुविधा-साधनों के होते हुए भी थोड़े ही दिनों में मनस्ताप की स्थिति आ उपस्थित होगी। यदि साधन सुविधाएँ कुछ कम हैं, तब तो यह मौज-मजा थोड़े दिन भी चलने वाला नहीं और विवाह के कुछ ही दिनों बाद तनाव, अतृप्ति तथा खीज की भावनाएँ दोनों ओर से उभरने लगेंगी।इसलिए गृहस्थ जीवन में प्रवेश के पूर्व इस नई भूमिका स्वीकार करने का उद्देश्य स्थिर कर लेना आवश्यक को है। यह बात अच्छी तरह समझ लेने योग्य है कि यदि विवाहः का उद्देश्य शारीरिक सुख की सुनिश्चित व्यवस्था करना है तो शीघ्र ही हताशा और पछतावा हाथ लगने वाला है। यदि मात्र अभिभावकों को इच्छा से दांपत्य जीवन प्रारंभ किया जा रहा है, तब तो यह मनुष्य के लिए सर्वाधिक हीन स्थिति है। जिस कार्य की आवश्यकता एवं औचित्य स्वयं के ही मन में स्पष्ट न हो, उसे करने चल देना गुलामी की ही स्थिति कही जा सकती है। धन-संपत्ति का लोभ यदि विवाह का प्रेरक तत्त्व हो तो उस दृष्टि से यह मार्ग बहुत लंबा और महँगा सिद्ध होगा। धन-संपत्ति तो परिश्रम और व्यवसाय कौशल से ही मिलने पर अपनी होती है। विवाह के रूप में समृद्धि का ‘शार्टकट’ तलाशना या स्वयं की सौदेबाजी करना बहुत अधिक घाटे का सौदा सिद्ध होने वाला है। उस संपत्ति का उपभोग बहुत बड़ी कीमत चुकाने पर ही हो सकेगा, इतनी बड़ी कीमत कि उसे चकाने पर मन अंतर्दाह से भर उठेगा और उपभोग का आनंद रंचमात्र भी न मिल पाएगा। जिसके कारण वह संपत्ति आई है, वह एक चेतन जीव है। अतः वह इस तथ्य से बेखबर नहीं रह सकता कि वस्तुतः यह संपत्ति उसकी अपनी है, उसके पिता की है और यह व्यक्ति इसके द्वारा खरीदा गया है। ऐसे में दोनों के बीच समानता की वह सहज भावना कभी भी आने से रही, जो प्रगति, सुख, संतुष्टि और तृप्ति के लिए अनिवार्य है।
1. रूपाकर्षण भी दांपत्य जीवन की सफलता का कभी आधार नहीं हो पाता। इसके विपरीत यदि रूपाकर्षण की प्रवृत्ति अधिक प्रबल हुई तो मन अतृप्ति, अस्थिरता और अंतर्दाह से निरंतर जलता रहता है। जीवनसंगिनी का चुनाव करते समय मात्र रूप पर अधिक ध्यान देने वाले उसके आंतरिक गुणों को तो देखना दूर, स्वास्थ्य जैसे बाह्य गुण तक को देखना भूल जाते हैं। इसी प्रकार पुरुष का सौंदर्य मात्र देखने वाले भी उसके स्वास्थ्य को गौण स्थान दे देते हैं; जबकि अच्छा स्वास्थ्य जीवन में किसी भी सुख की अनुभूति के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है। ऐसी अनेक घटनाएँ देखने में आती हैं, जव सुशिक्षिता, रूपवती नारी भी दुर्बल स्वास्थ्य के कारण दांपत्य जीवन का बोझ नहीं सँभाल पाई। तब जीवन एक भार बनकर रह जाता है। पति अस्वस्थ हुआ और सुंदर हुआ, तो भी कुछ ही दिनों में पलों को उस सौंदर्य की निस्सारता स्पष्ट दिखने लगेगी। वह न तो जीवन-संग्राम में विजयी हो सकेगा और न ही वैसी ऊष्मा से भरा सान्निध्य दे सकेगा, जिसकी कि पत्नी, पति से अपेक्षा करती है।
अच्छे स्वस्थ पुरुष का अर्थ यह नहीं कि वह बहुत मोटा-तगड़ा हो, अपितु उसमें परिश्रम की स्वाभाविक प्रवृत्ति हो और कोई रोग न हो। यदि किसी पुरुष ने आराम और पर्याप्त पोषक आहार से शरीर मात्र सुगठित बना लिया है और जीवन-विकास के लिए वांछित अन्य गुण उसमें विकसित नहीं हो सके हैं तो वह स्वास्थ्य किसी काम का न सिद्ध होगा।
इसी प्रकार अच्छी स्वस्थ स्त्री का मतलब यह नहीं कि वह खूब मोटी तगड़ी हो। हाँ, यह आवश्यक है कि उसकी हड्डियाँ न निकली हों, शरीर में रक्त पर्याप्त हो और चेहरे पर ओज हो। काम करने में चुस्त हो, सुस्त न हो तथा गंभीर रोगों से ग्रस्त न हो।
2. स्वास्थ्य के बाद दूसरा आवश्यक गुण है- उदार मनोभाव। विवाह एक संयुक्त संकल्प है। इसका सम्यक निर्वाह तभी संभव है, जब दोनों में एकदूसरे के प्रति उदारता व सहनशीलता का भाव हो। विवाहित जीवन में ऐसे अनेक अवसर आते हैं, जब थोड़ी-सी जल्दबाजी और असहिष्णुता से तिल का ताड़ बन जाता है। क्षणभर का असंयम लंबे समय तक क्षोभकारी छाप छोड़ जाता है। सहिष्णुता का अर्थ अनौचित्य को सहते रहना नहीं है। न ही उदारता का यह अभिप्राय है कि अन्यायमूलक, गर्हित आचरण के प्रति उपेक्षा-भाव रखा जाए, किंतु जब यह स्पष्ट हो कि क्रोध या आवेश क्षणिक है या बात छोटी-सी है तो उस समय उग्र प्रतिक्रिया न की जाए और छोटी-मोटी कमियों की कठोर भर्त्सना न की जाए। सहिष्णु स्वभाव का अर्थ दब्बूपन नहीं समझना चाहिए। यदि कोई नारी परिवार की कटु परिस्थितियों का आघात चुपचाप झेलती जाती है और मन ही मन सुलगती रहती है तो इससे स्वयं उसका स्वास्थ्य तो नष्ट होता ही है, भीतर उठ रहा धुआँ भी कभी किसी क्षण विशेष में भयानकता के साथ विस्फोटक रूप में प्रकट होता है और गहरा दूषित प्रभाव अंकित कर जाता है।
3.इसीलिए हँसमुख स्वभाव होना भी आवश्यक है। हँसमुख होने और छिछोरेपन में अंतर स्पष्ट है। अनावश्यक, निर्लज्ज, हा-हा, हु-हू तथा अगंभीरता शीघ्र ही विरक्ति पैदा करने लगती है। नारी यदि बहुत अधिक हँसोड़ हुई और किसी गंभीर प्रसंग में भी उसने हलका-फुलकापन दिखा दिया तो पति उससे गहरी आत्मीयता का अनुभव कदापि नहीं कर सकता। इसी प्रकार प्रथम दृष्टि में बहुत विनोदी दिखने वाले पुरुष भी गृहस्थ जीवन में या तो तुनकमिजाज निकलते हैं। या फिर इतने लापरवाह कि पत्नी की व्यथा की उन्हें चिंता ही नहीं हो, वे अपने ही धूम-धड़ाके, विनोद, अट्टहास में मस्त रहे आए। यह हँसमुख होना नहीं, विदूषक होना है। हँसमुख होने का अर्थ है- सदा हलके-फुलके रहना, बात- बात में मुँह न लटकाना और र प्रफुल्ल प्रसन्न रहना। ऐसे व्यक्ति का चेहरा भीड़ में भी अलग दिखता है। मृदु हास्य की मधुरता चेहरे को खिला रखती है। सभी के साथ उसके व्यवहार में कोमलता रहती है। नर-नारी, दोनों के लिए यह गुण अत्यधिक मूल्यवान हैं। मृदु स्वभाव की गृहिणियाँ ही परिवार के सभी सदस्यों से उत्तम व्यवहार करती हैं। प्रेम का शासन सदा कठोर शासन से अधिक शक्तिशाली होता है। घर के नौकरों तथा इसी कोटि के अन्य लोगों से भी प्रेमपूर्ण मृदु व्यवहार ही अधिक सफल सिद्ध होता है। कठोरता से विरोध और दुर्भाव ही पनपता है। हँसमुख, मृदुल स्वभाव वाले लोग अपने चारों ओर सच्चे हितैषी एकत्र कर लेते हैं, जबकि रूक्षता से दूरी और दुराव बढ़ता है।
4. इन सबके साथ सर्वोपरि आवश्यक गुण है- परिश्रमशीलता। इस संसार में बिना परिश्रम के प्रगति संभव नहीं है। आलसी पुरुष और स्त्री समाज के लिए हर प्रकार से हानिकारक हैं। आलस्य का विष शरीर को तो विनष्ट करता ही है, मन-मस्तिष्क को भी प्रमादी व पंगु बना देता है। ऐसा मन संकुचित व कलुषित होता जाता है। मस्तिष्क की स्फूर्ति नष्ट हो जाती है।
परिश्रम के गुण से वंचित युवती कभी भी सुयोग्य गृहिणी नहीं बन सकती। उसे परिवार बसाने की कल्पना ही छोड़ देनी चाहिए। परिश्रम न करने वाला युवक समाज की भाग-दौड़ में कहीं भी ठहर नहीं सकता। उसके पल्ले सदा अभाव, अपमान, अवज्ञा और अवनति ही पड़ने वाली है। मात्र परिश्रमी युवक युवती ही जीवन लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ सकने की सोच सकते हैं। उनके ही व्यक्तित्व का विकास होता रह सकता है। सफलता उनका ही वरण करती है। चाहे सभी विभूतियाँ पहले से प्राप्त हों, किंतु यदि परिश्रम की प्रवृत्ति न रही हो तो वे सभी विभूतियाँ एक- एक कर देर-सबेर में विलुप्त हो जाने वाली हैं।
इन गुणों के साथ ही एक विशेष गुण, जो लड़की में देखा जाना आवश्यक है, वह है-गृह-कला अर्थात गृह- व्यवस्था में उसकी प्रवीणता। जो नारी गृह प्रबंध में रुचि न रखती हो, वह पारिवारिक दायित्वों को सँभाल न सकेगी। अन्य क्षेत्रों में वह कितनी भी प्रतिभासंपन्न हो, पर गृह कला में निपुण न हुई तो उसे दैनंदिन जीवन में तनाव तथा परेशानी का ही सामना करना पड़ेगा। पति की आर्थिक कठिनाइयों को भी गृह-कला में निपुण नारी ही समझ और समझा सकती है।
इस प्रकार विवाह के पूर्व जिन बातों पर ध्यान देना जरूरी है, वे रूप या धन नहीं, अपितु स्वास्थ्य, प्रकृति या स्वभाव, रुचियाँ तथा समझ या प्रतिभा हैं। रूप के स्थान पर स्वास्थ्य की ओर ध्यान देना अधिक आवश्यक है। उसी प्रकार धन के स्थान पर गुण-संपदाएँ तथा शिक्षा की उपाधियों के स्थान पर प्रतिभा और समझदारी देखी जानी चाहिए। गुण-संपदाओं में संतुलन और सहिष्णुता दांपत्य जीवन की आधारभूत आवश्यकताएँ हैं। रूप गर्विता या ज्ञान-गर्विता नारी भी गृहस्थ जीवन में सफल नहीं हो पाती।
जीवनसाथी के चुनाव में इसीलिए सावधानीपूर्ण निरीक्षण आवश्यक है। भावावेश से हानि होगी। हृदय और मस्तिष्क, दोनों को शांत-संतुलित रखकर भली भाँति देख-परखकर निर्णय किया जाना चाहिए। अधिक अच्छा होगा कि स्वयं निर्णय लेने के पूर्व परिपक्व मित्रों और दुनिया देख चुके बुजुर्गों का परामर्श भी ग्रहण किया जाए। परिवार के वयोवृद्धों की बात को आँख मूँदकर मानने में यदि हानि है तो उनके परामर्श की उपेक्षा भी हानिकर रहेगी। उनकी सलाह अवश्य लेनी चाहिए।